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यह समय है जाति आधारित आरक्षण को खत्म करने का

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Is-it-time-for-Reservations-to-go-hindiमैं पिछले हफ्ते एक मार्केटिंग गुरु के पास गई जिन्होंने मुझे कुछ साधारण लेकिन बहुत गहरे तथ्य बताए। उन्होंने कहा “यदि सामग्री राजा है, तो संदर्भ भगवान है।” लगभग उसी समय मैंने एक ऐसे विषय पर लेख पढ़ा जिससे लगभग सभी लोग परिचित हैं, कैसे मेधावी छात्र अपनी पसंद के प्रतिष्ठित महाविद्यालयों में प्रवेश पाने में असफल रहे क्योंकि आरक्षित कोटा के कारण इन सीटों पर कम मेधावी छात्रों का प्रवेश हो गया था इसका कारण यह था कि इसमें प्रवेश लेने वाले अधिकांश छात्र किसी विशेष जाति में पैदा हुए थे या अल्पसंख्यक धर्म से संबंध रखते थे। आधुनिक भारत में कोटा या आरक्षण प्रणाली एक ऐसी चीज है जो है तो लेकिन इसका कोई संदर्भ (विशेष पहचान) नहीं है।

भारत में आरक्षण को कुछ विशेष जातियों के लिए लागू किया गया था जो अपने आप में बहुत ज्यादा जाति प्रणाली की तरह ही था। अब जाति व्यवस्था का अर्थ व्यावसायिक विभाजन हो गया है, जो इस तरह हो गया है जैसे बढ़ती उम्र के साथ चेहरे की सुंदरता खत्म हो जाती है। पिछड़ी जातियों का समाज की मुख्य धारा में आना प्रतिबंधित था और यह छुआछूत और सामाजिक बुराइयों की वजह बन गया इसने शत्रुता के एक दमकारी माहौल को जन्म दिया। इस बात को कोई भी नकार नहीं सकता है कि जाति, धर्म और पंथ के आधार पर सामाजिक भेदभाव मानव समाज के सबसे बुरे और अमानवीय व्यवहारों में से एक है। पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण प्रणाली को सबसे पहले भारत के औपनिवेशक शासकों द्वारा भारत सरकार के अधिनियम 1909 में दिया गया था। इस बात से कोई प्रभाव नहीं पड़ता है कि कितना अधिक भेदभाव किया जाता है। जब ब्रिटिशों को लगने लगा कि भारत में उनकी पकड़ ढीली हो रही है तब उन्होंने देश में एक सकारात्मक धार्मिक भेदभाव फैलाने का फैसला किया, बाद में आरक्षण को धर्म के आधार पर देखा जाने लगा। मुस्लिमों और सिखों, भारतीय ईसाई और एंग्लो इंडियंस तथा हिंदुओं और यूरोपीय सभी के उनके प्रतिनिधित्व का कोटा प्राप्त था। इस आरक्षण में दलितों का भी अपना हिस्सा होता होगा।

आरक्षण की आवश्यकता

1950 के दशक तक होने वाले हिंसक विभाजनों और बढ़ते सामाजिक बँटवारे के कारण आरक्षण प्रणाली को लागू करना बहुत जरूरी हो गया। पिछड़ी जातियों के लिए परंपरागत रूप से शिक्षा, नौकरी के अवसर और विकास की संभावनाओं को देखते हुए यह बहुत ही जरूरी हो गया था कि उनके कंधे से कंधा मिलाकर साथ दिया जाए और सकारात्मक कार्रवाई की जाए। 1954 से 1978 के बीच हमनें जाति और धर्म पर आधारित कई आरक्षण और कोटा प्रणालियों को देखा। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों के लिए शैक्षणिक संस्थानों में 20 प्रतिशत आरक्षण निर्धारित किया गया था। अब तक, यह तो समझने योग्य था लेकिन साथ में दो अन्य प्रणालियों, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों के लिए योग्यता के मानकों में छूट और सार्वजनिक सेवाओं और रोजगार के अवसरों में आरक्षण कोटा, को पेश किया गया था जो आने वाले वर्षों में बहुत ही ज्यादा कष्ट का कारण होंगी।

ध्यान को आकर्षित करने वाले सवाल

संदर्भ के कारक पर वापस आते हैं, अब हमारे देश को ब्रिटिश शासन से आजाद हुए सात दशकों से अधिक का समय हो चुका है। यह समय है जहाँ पर हमें एक कदम पीछे आकर वहाँ पर अपनी नजर डालनी होगी जहाँ से हमें आरक्षण मिला।

क्या यह आरक्षण खत्म करने का समय है?

इससे पहले कि हम इस सवाल का जवाब सरल भाषा में हाँ या न में देने का प्रयास करें, हमें यह पता है कि इस समय भारत के पिछड़े वर्गों की स्थिति की समीक्षा करने की आवश्यकता है। क्या अभी तक आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों को सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों में रूप में स्थापित किया गया है? हमारे देश की अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, दलितों और अल्पसंख्यकों के उत्थान में कोटा प्रणाली ने किस प्रकार सहायता की है? क्या सकारात्मक कार्यवाई के उद्देश्यों को प्राप्त कर लिया गया है? जब तक हमारे पास व्यापक डेटा की उपलब्धता नहीं है, मेरिट की समीक्षा करने के उद्देश्य से प्राधिकरण नहीं है, आरक्षण में मिलने वाली आयु सीमा में छूट के नुकसान नहीं पता हैं और प्राप्त किये गए अंक या उपलब्धियों का विवरण नहीं हैं हम इस प्रकार के सवालों का जवाब देने में योग्य नहीं होंगे।

हालांकि, एक बात तो साफ है। भारत में प्रचलित कोटा और आरक्षण प्रणाली को एक संपूर्ण कायाकल्प की जरूरत है। अगर समानता का ही उद्देश्य है, तो हमारे पास जातियों और धर्मों के नाम पर आरक्षण और कमजोर मानकों के लिए कोई स्थान नहीं है। भारत की युवा पीढ़ी को समर्थन की जरूरत है। आइए आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के लोगों के लिए अधिक छात्रवृत्तियाँ और धन, रोजगार के अधिक अवसर और बुनियादी ढांचे को उत्पन्न करें। आइए उनको अपने पैरों पर खड़े होने और चलने (आत्मनिर्भर होने) के लिए मजबूत बनायें, उनको भविष्य की पीढ़ियों तक चलने और आगे बढ़ने के लिए बैसाखी का सहारा न दें।

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