आगरा में 1837 से 1838 का अकाल भारत में स्वतंत्रता के पूर्व युग की प्रमुख दुर्घटनाओं में से एक था। इस अकाल से पहले यह क्षेत्र 1803 से 1804, 1813 से 1814, 1819, 1825 से 1826, 1827 से 1828 और 1832 से 1833 के दौरान कई अकाल और अकाल जैसी स्थितियों के कारण प्रभावित हुआ था। 1830 के दशक में कई अन्य कारकों ने भी प्रभाव पैदा करना शुरू कर दिया था जैसे कि एक आर्थिक मंदी, एल नीनो के संभावित प्रभाव और विभिन्न पारिस्थितिकीय परिवर्तन जो 10 से अधिक वर्षों तक जारी रहे थे। इसका मतलब यह था कि क्षेत्र में पहले से ही फसलों की कमी थी और ये कारक उन्हें मूलरूप से नष्ट करने के लिए तैयार थे। 1837 के दौरान इलाहाबाद और दिल्ली के बीच दोआब क्षेत्र में गर्मियों के मौसम में भी बरसात न के बराबर हुई थी। यमुना के आस-पास के जिलों की स्थिति दोआब क्षेत्र जैसी ही थी।
राहत
1837 के अंतिम महीनों से राहत मिलनी प्रारम्भ हुई थी। हालांकि फरवरी 1838 से ही स्थिति को सुधारने के लिए बड़े पैमाने पर प्रयास शुरू किया गया था। कावनपुर (कानपुर के अत्यधिक नजदीक) के उप-कलेक्टर रोज ने भारत के तत्कालीन गवर्नर-जनरल को लिखे गए एक पत्र में कहा था कि राहत की सामग्री कम होने के बावजूद उन्होंने समस्याओं को कुछ हद तक कम कर दिया था और साथ ही अन्य क्षेत्रों में जाने वाले लोगों की संख्या भी कम हो गई थी।
उड़ीसा में 1866 का अकाल
1866 में मानसून की विफलता उड़ीसा में अकाल का मुख्य कारण थी। यहाँ अकाल से ठीक पहले सूखा पड़ गया था जिसने आम लोगों को प्रभावित किया था जो सर्दियों वाली मुख्य चावल की फसलों पर निर्भर रहते थे। इस तथ्य के अलावा कि 1865 में बारिश कम थी, यह समय से बहुत पहले ही रुक गई थी। बंगाल के राजस्व बोर्ड की प्रशासनिक गलतियों ने स्थिति को और खराब कर दिया था। उन्होंने लोगों की गलत गणना कर दी थी जिन्हे तत्काल मदद की जरूरत थी और और गलत कीमत सूची ने उन्हें केवल गुमराह किया गया था। इसका मतलब था कि खाद्य भंडार आवश्यकता से बहुत कम था।
राहत
औपनिवेशिक सरकार ने करीब 10,000 टन चावल आयात करके राहत प्रदान करने का प्रयास किया था लेकिन 1866 से पहले चावल लोगों तक नहीं पहुँच पाये क्योंकि खराब मौसम के कारण चावल से भरे जहाजों को उड़ीसा से पहले ही रोकना पड़ा था। 1866 की भारी बारिश ने लोगों में भुखमरी जैसी समस्याओं को और बढ़ा दिया था। जबकि कई लोगों की हैजा और मलेरिया जैसे रोगों के कारण मृत्यु हो गई। 1866 में उड़ीसा में राज्य की आबादी के एक-तिहाई लगभग दस लाख लोगों की मौतें हुई थी। जब कि भारत के पूर्वी तट में विशेषकर मद्रास के क्षेत्र में दो साल में 4 से 5 मिलियन लोगों की मौतें हुई थीं।
1896 का भारतीय अकाल
वर्ष 1896 के शुरुआत में भारतीय अकाल बुंदेलखंड के हिस्सों में शुरू हो गया था। 1895 में शरद ऋतु के दौरान इस क्षेत्र को अकाल का सामना करना पड़ा था क्योंकि गर्मी के मौसम में बरसात बिलकुल नहीं हुई थी। सर्दियों में भी बरसात की कमी के कारण 1896 के शुरूआत में प्रांतीय सरकार द्वारा अकाल घोषित किया गया था। यहाँ भी राहत सामग्री एकत्र करना प्रारम्भ कर दिया गया था। 1896 में गर्मियों में बारिश फिर से विफल हुई जिसके कारण जल्द ही अकाल संयुक्त प्रांत, बरार और केंद्रीय प्रांतों में फैल गया। बाम्बे और मद्रास प्रेसीडेंसी के कुछ हिस्से बंगाल, बर्मा, पंजाब, राजपुताना, हैदराबाद और मध्य भारतीय एजेंसी जैसी रियासतों के अलावा अन्य राज्य भी प्रभावित हुए थे।
राहत
1883 के अनंतिम अकाल कोड के साथ अधिकारियों ने 821 मिलियन व्यक्तियों के लिए राहत का आयोजन किया था। जिसमें लगभग 72.5 मिलियन रुपये का खर्च आया था। सरकार ने न केवल 12.5 मिलियन रुपये का राजस्व चुकाया बल्कि लोगों को 17.5 मिलियन रुपये का ऋण भी प्रदान करवाया। राहत कार्य के लिए एक दानार्थ राहत कोष भी स्थापित किया गया था जिसमें 17.5 मिलियन रुपये अर्जित हुए थे। इसमें 1.25 मिलियन रुपये केवल ब्रिटेन में एकत्र हुए थे। हालांकि, सबसे अच्छे प्रयासों के बावजूद भी जीवन हानि की भरपाई नहीं हो सकती थी। जिसमें अकेले ब्रिटिश क्षेत्र में लगभग 7.5 से 10 मिलियन लोगों की मौतें हुई थीं।
1899 से 1900 का भारतीय अकाल
1899 से 1900 तक के समय को भारत का आखिरी विनाशकारी अकाल माना जाता है। यह मुख्य रूप से 1899 में मध्य और पश्चिमी भारत में गर्मियों में मानसून की असफलता के कारण पड़ा था। 1896 से 1897 के अकाल के दौरान मध्य प्रांत और बरार बुरी तरह प्रभावित हुए थे। हालांकि 1898 से 1899 की शुरुआत का समय पर्याप्त वर्षा और कृषि कार्यों के लिए अच्छा रहा था। लेकिन 1899 में गर्मियों में मानसून असफल होने के बाद स्थिति बदल गई। जिससे कीमतें तेजी से बढ़ीं और शरद ऋतु के मौसम वाली खरीफ की फसल पानी की कमी के कारण नष्ट हो गई थी। इसमें सबसे ज्यादा प्रभावित इलाके थे:
- केंद्रीय प्राँत
- बरार
- बॉम्बे प्रेसीडेंसी
- अजमेर-मेरवाड़ा प्रांत
- पंजाब का हिसार जिला
- राजपुताना एजेंसी
- केंद्रीय भारतीय एजेंसी
- हैदराबाद
- काठियावाड़ एजेंसी
- बंगाल प्रेसीडेंसी
- मद्रास प्रेसीडेंसी
- उत्तर-पश्चिमी प्रान्त
राहत
पिछली बार अकाल राहत कार्यकर्ताओं को कुछ बड़ी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा था जिसके कारण इस बार अकाल राहत कार्य में कुछ सुधार हुआ था। 1900 तक केन्द्रीय प्राँत और बरार को कम से कम 20% तक की अकाल राहत मिली थी। 1900 की गर्मियों में बारिश मध्यम थी, जिसने कुछ मामूली राहत में मदद की थी। जिससे उस वर्ष शरद ऋतु में कृषि कार्य भी सुगमतापूवर्क शुरू हो गया था। जिसके फलस्वरूप दिसंबर 1900 में अकाल राहत कार्य आवश्यक नहीं रह गया था।
महत्त्व
यह सूखा भारतीय आर्थिक इतिहास के लिए एक प्रकार का जल विभाजक माना जाता है। इस सूखा से पहले, भारतीय अर्थव्यवस्था की निर्भरता बड़े पैमाने पर खेती पर थी और इसके बाद 20 वीं सदी के दौरान अर्थव्यवस्था में परिवर्तन एक बड़ा परिणाम था। इसका मतलब यह था कि जो लोग पहले ही खेती में लगे थे, वे लोग अन्य कार्यों का भी चुनाव कर सकते थे।
हालांकि, इसका मतलब यह भी था कि कृषि क्षेत्र कुछ प्रभावित हुआ था, एक प्रवृत्ति जो लोगों के साथ इन दिनों अधिक मात्रा में प्रकट हुई है- खेती करने वाले परिवारों में भी और अधिक सुरक्षित नौकरियों का चयन करने वाले परिवारों में भी । यह वह समय था जब भारत में रेलवे का निर्माण हुआ था और इसने कुछ किसानों को अपने उत्पादों को बाजारों में उच्च मूल्यों पर बेचकर जरूरी परिसंपत्तियों और धन एकत्र करने की इजाजत दी थी। जो जरूरत के समय में उन किसानों के काम आती थी। वास्तव में 20 वीं शताब्दी की शुरुआत में बॉंम्बे प्रेसीडेंसी को निर्यात के लिए विकसित किया जा रहा था।
आजादी के बाद भारत में प्रमुख सूखे
आजादी के 69 सालों में भारत को प्रभावित करने वाले कुछ प्रमुख सूखों के बारे में निम्नलिखित तालिका में विवरण दिया गया है।
सूखे का वर्ष | प्रभावित स्थान | प्रभावित लोगों की संख्या |
1966 | बिहार और उड़ीसा | 50 मिलियन |
1969 | राजस्थान, गुजरात, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, हरियाणा, कर्नाटक और मध्य प्रदेश | 15 मिलियन |
1970 | बिहार और राजस्थान | 15.2 मिलियन |
1972 | राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और उत्तर प्रदेश | 50 मिलियन |
1979 | पूर्वी राजस्थान, पंजाब, हिमाचल प्रदेश और उत्तर प्रदेश | 200 मिलियन |
1982 | राजस्थान, पंजाब और हिमाचल प्रदेश | 100 मिलियन |
1983 | तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, केरल राजस्थान, कर्नाटक, बिहार और उड़ीसा | 100 मिलियन |
1987 | पूर्वी के पूरे और उत्तर पश्चिमी भारत | 300मिलियन |
1992 | राजस्थान, उड़ीसा, गुजरात, बिहार, और मध्य प्रदेश | कोई आँकड़े नहीं |
2000 | राजस्थान, गुजरात, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश | 100 मिलियन से अधिक |
2013 में महाराष्ट्र का अकाल
2013 में महाराष्ट्र में सूखा मुख्य रूप से पिछले वर्ष जून से सितंबर के दौरान कम वर्षा की वजह से पड़ा था। यह पिछले 40 वर्षों में इस राज्य को प्रभावित करने वाला सबसे भयंकर सूखा माना जाता है। अकाल से प्रभावित निम्नलिखित क्षेत्र हैं:
- सोलापुर
- अहमदनगर
- साँगली
- पुणे
- सतारा
- बीड
- नासिक
- लातूर
- उस्मानाबाद
- नांदेड़
- औरंगाबाद
- जलना
- जलगाँव
- धुले
2015 का महाराष्ट्र सूखा
2015 के अकाल ने महाराष्ट्र के 90 लाख किसानों को प्रभावित किया था, जो कि स्वीडन की आबादी के करीब थे। आधिकारिक आँकड़ों के अनुसार इस सूखे से शरद ऋतु की फसलें सबसे ज्यादा प्रभावित हुई थीं। महाराष्ट्र राज्य हमेशा अपने कृषि संकट के लिए चर्चा में बना रहता है और भारत के ही सबसे ज्यादा किसान आत्महत्याएं करते हैं। इस बार भी मानसून उन लोगों की अपेक्षाओं को पूरा करने में असफल रहा था और मानसून फसलों के नष्ट हो जाने के बाद आया था। जिसके कारण किसान बुरी तरह से प्रभावित हुए जो मानसून के सहारे अपनी फसलों का उत्पादन करते थे। यहाँ तक कि जब 2014 में मानसून आया तो मूसलधार बारिश ने फसलों को भारी नुकसान पहुँचाया जिससे इस राज्य को भयंकर कृषि संकट का सामना करना पड़ा था।
अकाल से अत्यधिक प्रभावित क्षेत्रों में विदर्भ और मराठवाड़ा क्षेत्र थे। संयोगवश ये राज्य ऐतिहासिक रूप से सबसे उपेक्षित भागों में से एक हैं। महाराष्ट्र सरकार ने 4000 करोड़ रुपये की अनुमानित राहत रकम को वितरित कर उन क्षेत्रों की स्थिति को बदलने का प्रयास भी किया था। अकाल से कुछ हफ्ते पहले राज्य सरकार ने बता दिया था कि लगभग 2 या 3 गाँवों के कुछ हिस्से अकाल की चपेट में आ सकते हैं। जिसके कारण राज्य में फसल की पैदावार में 50% की कमी और राज्य के कृषि उत्पादन में भारी कमी आई थी।
भारत सरकार ने प्रभावित इलाकों में एक टीम भी भेजी थी ताकि वहाँ के प्रभावित लोगों को सबसे पहले सहायता प्रदान कर सकें। वहाँ की राज्य सरकार ने 2000 करोड़ रुपये की राहत प्रदान की थी। जिसके कारण केंद्र सरकार को करीब 4800 करोड़ रुपये की राहत प्रदान करनी पड़ी थी। विदर्भ के किसान-कार्यकर्ता विजय जावंडिया ने कहा कि 2008 से 2015 तक महाराष्ट्र चार बार सूखे से पीड़ित हो चुका है। उनके अनुसार सूखे के कारण कम उपज के अलावा किसानों को उनकी फसलों की कम कीमतों का सामना करना पड़ता है। कम उत्पादन के कारण किसानों को अन्य कई कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ा था।
सूखे ने महत्वपूर्ण फसलों जैसे कि कपास को भी अत्यधिक प्रभावित किया था। यह राज्य कुछ अन्य महत्वपूर्ण फसल सोयाबीन के लिए जाना भी जाता है और जवंडिया के अनुमान के मुताबिक सोयाबीन उत्पादन में सामान्य से 50% गिरावट आई और कपास का उत्पादन 1.5 करोड़ क्विंटल कम हो गया।