हम भारतीय इस तथ्य पर गर्व करते हैं कि भारत तेजी से एक प्रमुख विकासशील राष्ट्र के रूप में उभर रहा है। समृद्धि और लाभ देश के कई उन बड़े हिस्सों तक पहुँचा रहे हैं जहाँ दस साल पहले इसका अस्तित्व नहीं था। यह कोई उपलब्धि नहीं है क्योंकि कहानी पूरी तरह से परिपक्व नहीं है। भारत के विकास में एक अंधेरा अपना योगदान दे रहा है। वह बाल श्रम का उपयोग है। एक राष्ट्र के रूप में, हमने अधिक लंबे समय से बच्चों को बहुत सस्ते और अक्सर मुफ्त श्रमिकों के रूप में उपयोग करने के क्रूर व्यवहार को स्वीकार कर लिया है। हमने बच्चों की मानसिकता को बदल दिया है जिससे वह स्कूल जाने से इनकार करते हैं। स्कूल बच्चों को उनका जीवन बेहतर बनाने का अवसर प्रदान करते हैं। यह समस्या शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में है और हम इस काले सच के साथ काफी समय बिता चुके हैं।
भारत में बाल श्रम के परिणाम
उभरता हुआ दृश्य अंधकारमय है। बच्चों से खतरनाक उद्योगों जैसे आतिशबाजी, माचिस उद्योग, इलेक्ट्रोप्लेटिंग, बीड़ी उद्योग, काँच बनाने, पीतल के कारखानों, लॉक बनाने, सीसा खनन और पत्थर तोड़ने आदि में काम करवाया जाता है। इन क्षेत्रों में काम करने वाले व्यक्तियों के स्वास्थ्य पर गंभीर नकारात्मक प्रभाव पड़ते हैं। जिससे बच्चे अपनी किशोरावस्था में पहुँचने से पहले ही कई रोगों के सम्पर्क में आ जाते हैं।
हमें शहरों में घर में बैठकर भयानक परिस्थितियों का कोई अंदाजा नहीं है कि बच्चों से एक दिन में दस-बारह घंटे से ज्यादा काम कराया जाता है। कई मामलों में, बच्चों को उनके माता-पिता के द्वारा ऋण के बदले कारखानों के मालिकों के सामने पेश कर दिया जाता है। यह एक वस्तु विनिमय समझौता है, जिस ऋण का भुगतान बच्चे के माध्यम से किया जाता है। सभी वस्तुओं का विनिमय नहीं किया जा सकता है। कुछ बच्चे पैसों के लिये कार्य करते हैं जहाँ उन्हें प्रतिदिन दस रुपये तक की छोटी राशि का भुगतान किया जाता है। ऐसी कई अन्य परिस्थितियाँ हैं जहाँ बच्चों को काम करने के लिये ही पाला जाता है। इनमें बच्चों को घरों में चलने वाले कुटीर उद्योगों जैसे हथकरघा और कालीन बुनाई में कार्य करवाया जाता है। लेखक ने पूर्वी यू.पी. के भदोही और मिर्जापुर में कालीन के कारखानों का व्यक्तिगत रूप से दौरा करते हुये बच्चों को अपने माता-पिता के साथ काम करते हुए देखा है। यह सभी घर ग्रामीण क्षेत्र में आंतरिक भाग में पड़ते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों के लगभग सभी घरों में माता-पिता के द्वारा बच्चों को अतिरिक्त आय के साधन के रुप में देखा जाता है।
सामाजिक सुरक्षा प्रणाली और गरीबी के कारण ही यह ग्रामीण इलाकों में प्रचलित है। बच्चों को अतिरिक्त जनशक्ति के रूप में बढ़ाने से आबादी की समस्या अधिक बढ़ती जा रही है, जिससे भारत कमजोर पड़ रहा है। यह बंधुआ मजदूरी की स्थिति है। एक गरीब व्यक्ति बच्चों को पढ़ाने-लिखाने में सक्षम नहीं होता, लेकिन इस उम्मीद में उन्हें पैदा करना जारी रखता है कि वे बुढ़ापे में आय का साधन बन कर आय में बढ़ोतरी करेंगे। ग्रामीण इलाकों के बड़े परिवार गरीबी के प्राथमिक कारणों में से एक है। शहरी और अर्ध शहरी शहरों और कस्बों में यह स्थिति स्पष्ट रुप से समझी जा सकती है चाहे भले ही यह उचित न हो।
हमारे घरों का रहन-सहन
यह गड़बड़ हो जाती है। याद करिये कि दक्षिण दिल्ली वसंत कुंज में मध्यम या उससे अधिक वर्ग के लोगों की कॉलोनी में झारखंड की एक नौकरानी को कई महीनों तक घर में बंद करके उस पर अत्याचार किया गया था, उसे भोजन भी नहीं दिया जाता था जब उसे कोई नहीं ले गया तब वह मुश्किल से मदद के लिए चीखने में कामयाब हो पायी। जब एक गैर सरकारी संगठन से साथ पुलिस ने छापा मारा तो उनको एक बीमार लड़की पड़ी मिली जो मरने के करीब थी, उसके शरीर पर जलने के निशान पड़े थे। वह बहुत डरी हुई थी। त्वचा के संक्रमण के साथ वह गंदी और घायल अवस्था में थी। यह मामला भारत की राजधानी दिल्ली की एमएनसी में एक उच्च पद पर अधिक वेतन प्राप्त करने वाली महिला के घर में पाया गया। हमें ऐसा लगता है कि बाल श्रम और इसका दुरूपयोग गाँवों में ही होता है? यह मामला भारत की राजधानी दिल्ली में एक शिक्षित और उच्च वेतन प्राप्त करने वाली कर्मचारी के घर में पाया गया है।
हम इसके साथ कैसे रह सकते हैं?
तो क्या शहरी क्षेत्र में रहने वाले व्यक्तियों को ऐसा करना पड़ता है, खासकर कानून की अच्छी जानकारी रखने, गैर सरकारी संगठनो द्वारा निभाई गयी सक्रिय भूमिकाएं और बहुत ही सक्रिय मीडिया के दौरान? इसके बावजूद हम बच्चों से घरेलू श्रमिक के रूप में कार्य करवाते हैं और उनका दुरुपयोग करते हैं। किस चीज ने हमें इतना मतलबी और क्रूर बना दिया है? हमने अपनी अंतरात्मा को क्यों मार दिया है? क्या नैतिकता की विरासत और नीतियों को हम अपने बच्चे के लिये छोड़ देते हैं जबकि एक बच्चे की पहली शिक्षा घर से शुरू होती है? यहाँ पर कई ऐसे घर हैं जहाँ पर बच्चे को शिक्षा का मौलिक अधिकार और गरिमा का जीवन नहीं दिया गया है।
कोई भी देश वहाँ के रहने वाले नागरिकों और समाज पर निर्भर करता है। अगर हम एक ऐसे देश का निर्माण करना चाहते हैं जहाँ अगली पीढ़ी गरिमा और निष्पक्षता के साथ जी सकती है, जहाँ सभी के लिये विकास के अवसर उपलब्ध हों, तो हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हम उस समाज का मुख्य केन्द्र एक मजबूत नींव पर बनायें जैसे हमारा घर।
यदि हमारे घर या आसपास के क्षेत्रों में बाल श्रम संबंधी घटनायें होती हैं तो उसके खिलाफ आवाज उठाना हमारा नैतिक अधिकार है। यदि हम ऐसा नहीं करते हैं, तो हम अपने बच्चों की नजरों में सम्मान की उम्मीद और नैतिक अधिकार खो देंगे। हम किसी एक बच्चे के भविष्य को नकार कर दूसरे बच्चे के भविष्य को संवार नहीं सकते। और कोई रास्ता नहीं है।