अधिकांशतः असहज चुप्पी को तोड़ना काफी असहज सा लगता है। भारत जैसे देश में, इस असहज चुप्पी को तोड़ने के लिए आपको शायद बहुत अधिक साहस को जुटाने की आवश्यकता होती है। आखिरकार, किसी बात को छिपाने या उसे अनदेखा करने के लिए हमारा प्रयोग किया जाता है। लेकिन #मी टू आंदोलन के साथ भारत में एक नई सच्चाई उभरती हुई प्रतीत हो रही है। बेशक, यह एक कड़वा सच है लेकिन फिर भी इसका स्वागत है क्योंकि भारत को पूरी तरह से इसकी आवश्यकता है।
तो, #मी टू आंदोलन से क्या नतीजा निकला? इस पहल की शुरुआत करने वालों के लिए, हालांकि हम पहले से ही जानते थे, जिन्होंने आज जिस समस्या का सामना किया है, उसमें यथार्थ गंभीरता देखी गई है। समस्या यह है कि इस देश की महिलाएं हर दिन उत्पीड़न जैसी समस्याओं का सामना करती हैं, लेकिन जब वे विरोध में अपनी आवाज उठातीं हैं तो उन्हें जवाब में “रात में बाहर न निकलने ” या “उचित कपड़े पहनने” के लिए कहा जाता है। वास्तव में अगर यही लोग महिलाओं के प्रति अपने हिंसक व्यवहार को बदल सकें तो पुरुषों में एक बड़ा बदलाव हमें देखने को मिल सकता है। मैं केवल कुछ ही मर्दों की बात कर रही हूं, क्यूंकि (#NotAllMen) सभी पुरुष महान नहीं होते, सही कहा न मैंने? प्रत्येक महिला अकेले बाहर जाने से पहले, एक ऑटो के अंदर बैठने से पहले, एक अजनबी से बात करने से पहले, कभी-कभी परिवार के सदस्य से भी और कुछ भी करने से पहले दो बार जरूर सोंचती है। लेकिन मैं फिर कहूंगी कि (#NotAllMen) सभी पुरुष महान न होते हैं, है ना?
#मी टू क्या है?
हैशटैग “मी टू” की लोकप्रियता अक्टूबर 2017 में, विशेष रूप से तब बढ़ी जब महिलाओं को कार्यस्थल पर उत्पीड़न जैसे मामलों का सामना करने की हद ही पार हो गई। हॉलीवुड फिल्म निर्माता, हार्वे वेनस्टीन पर यौन हमले के आरोपों के तुरंत बाद आंदोलन जंगल की आग की तरह फैल गया। यह किसी भी महिला के लिए एकजुटता, सशक्तिकरण और सहानुभूति के शक्तिशाली मिश्रण के रूप में कार्य करता है जो जीवन में किसी भी समय इस तरह के शोषण से गुजर चुकी हो।
कुछ ही दिनों के अन्दर, अनगिनत महिलाओं ने सोशल मीडिया पर अपने व्यक्तिगत जीवन के उत्पीड़न के मामलों को साझा किया- चाहे वह ट्विटर हो, फेसबुक हो या इंस्टाग्राम हो। जिन लोगों ने अपनी कहानियों का खुलासा नहीं किया, उन्होंने केवल “#मी टू” लिख दिया।
आंदोलन भारत में कैसे आया
2017 में, जब आंदोलन दुनिया भर में फैल रहा था, तो इसने भारत की तरफ भी अपना रास्ता बना लिया। रोजमर्रा के कार्यों से बाहर निकलकर महिलाएं आगे आ रहीं थीं और अपनी कहानियों को साझा कर रहीं थीं, कई एकजुट होकर साथ खड़ी हुईं थीं। आंदोलन कई पुरुषों के लिए भी शोषण के अपने अनुभवों को साझा करने का एक मार्ग बन गया है।
वर्तमान में, भारत में #मी टू को एक बेहतर वाक्यांश के अभाव के लिए “दूसरी लहर” के रूप में संदर्भित किया जा रहा है। अक्टूबर, 2018 की शुरुआत में आंदोलन एक बार फिर प्रकाश में आया, जब बॉलीवुड अभिनेत्री तनुश्री दत्ता ने नाना पाटेकर पर एक दशक पहले यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया। इसके बाद ज्यादा से ज्यादा महिलाएं अपनी कहानियों के साथ आ रही थीं, प्रत्येक कहानी संजीदा और रोंगटे खड़े करने वाली थीं।
#मी टू: वर्तमान परिदृश्य पर एक नज़र
जब दत्ता ने पाटेकर पर आरोप लगाया, तो उन्होंने आरोपों से इंकार कर दिया, यहां तक कि उन्होंने दत्ता के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने का भी संकेत दिया। एक ही समय में, प्रसिद्ध कॉमेडी अभिनेताओं, फिल्म निर्देशकों, पत्रकारों के साथ अन्य व्यवसायियों पर भी महिलाओं के साथ उत्पीड़न के आरोप लगाए गए हैं।
प्रसिद्ध एआईबी ग्रुप के पूर्व कॉमेडी अभिनेता उत्सव चक्रवर्ती पर कई महिलाओं ने उत्पीड़न का आरोप लगाया था, उनमें से कुछ नाबालिग भी थीं। इसके बाद इस ग्रुप ने एक माफीनामा जारी करते हुए एक अनिश्चित अवधि तक उनसे अभिनेता उत्सव चक्रवर्ती के सारे वीडियो को उनके अकाउंट से हटाने के लिए भी कहा है। क्वीन फिल्म के निर्देशक विकास बहल पर फैंटम फिल्म्स, एक बैनर जिसके तहत बहल फिल्मों का निर्माण करते हैं, के पूर्व कर्मचारी द्वारा उत्पीड़न का आरोप लगाया गया था। बाद में, अभिनेत्री कंगना राणावत ने बहल के साथ अपने अनुभव के बारे में भी बात की जब बहल ने इन्हें बेहद असहज बना दिया।
अनुभवी अभिनेता आलोक नाथ पर इन्डस्ट्री से एक महिला ने बलात्कार का आरोप लगाया है। हालांकि वह इन आरोपों से लगातार इनकार कर रहें है, अन्य महिलाएं भी सामने आ रही हैं, जो आलोक नाथ को महिलाओं का शोषण करने वाला शराबी कहकर संदर्भित कर रही हैं। प्रसिद्ध भारतीय लेखक चेतन भगत पर भी महिला द्वारा अवांछित लाभ उठाने का आरोप लगाया गया है। भगत ने सार्वजनिक माफी मांगी है, जिसमें कहा गया है कि वे महिला के साथ स्ट्रॉन्ग कनेक्शन महसूस करते थे इसलिए यह इनकी भूल है।
इसी तरह लगभग हर दिन अनगिनत अन्य नाम आते रहते हैं, सबसे बड़ा नाम शायद एमजे अकबर पूर्व पत्रकार और वर्तमान केंद्रीय मंत्री का है। कई महिला पत्रकारों, मुख्य रूप से गजला वहाब और सबा नकवी ने उल्लेख किया है कि कैसे अकबर युवा पत्रकारों का शोषण करते हुए न्यूज़रूम में दरिंदा बन जाते थे, आमतौर पर वह उन्हें अपना शिकार बनाते, जिन्होंने अपने करियर की नई शुरूआत की हो। कथित रूप से, जब वह कांग्रेस पार्टी में शामिल हुए थे तो महिलाओं के प्रति काफी प्रतिष्ठित जाने जाते थे, ठीक उसी प्रकार से जब ये भाजपा में शामिल हुए तब भी इन्हें बहुत ही सम्माननीय माना जाता था।
क्या हम गलत कर रहे हैं?
एक महत्वपूर्ण बात जो तनुश्री दत्ता के मामले में ध्यान देने योग्य है वह यह है कि जैसे ही उन्होंने नाना पाटेकर पर आरोप लगाया, इसके बाद तो मानों आरोपों की झड़ी सी लग गई। लेकिन, यहां पर एक ट्विस्ट आया: क्योंकि यह आलोचना नाना पाटेकर के लिए नहीं थी, बल्कि तनुश्री दत्ता के लिए थी। उनके सोशल मीडिया हैंडल पर घृणित संदेशों को अंधाधुंध भेजा जा रहा था, कुछ लोगों ने इनकी इस कहानी को साजिश बताया और उनकी इस कहानी को झूठा करार दिया था। बहुत से लोगों ने उनके पेशे की ओर संकेत करते हुए यह भी कह डाला कि उन्होंने विगत वर्षों में “विवादास्पद” भूमिकाएं निभाई हैं। जैसा कि चाहे जो भी पात्र उनके द्वारा अदा किया गया हो यौन पेशगी की व्याख्या करने का साहसिक कदम उनके द्वारा उठाया गया है।
यहां सिर्फ यही एकमात्र ऐसा मामला नहीं है जहां एक महिला ने केवल अविश्वास और घृणित टिप्पणी का सामना करते हुए अपनी कहानी को साझा करने का फैसला किया है साफ-साफ जाहिर होता है कि ऐसी कई महिलाएं हैं जिन्होंने पुरुषों पर छेड़छाड़ का झूठा आरोप लगाया है। लेकिन, क्या यहां पर हमारा वर्तमान दृष्टिकोण गलत है:
- हर दिन भारत में महिलाओं से छेड़छाड़ मामलों के आँकड़ों को देखिए। अब, झूठे लगाए गए आरोपों के आँकड़ों पर नजर डालिए। सरल गणित और साधारण समझ आपको बताएगी कि किस मामले की संभावना अधिक है।
- लगभग हर औरत को पता होता है कि इस मामले में वह सवालों के घेरे में आ जाएगी, कई लोग उसकी कहानी को बदनाम करने की कोशिश करते हैं। अगर अभी भी कुछ ऐसी चीजें हैं जो उसे आगे आने और बातों को साझा करने के लिए बाधा बन रही हैं, तो आपको अपने परिप्रेक्ष्य पर पुनर्विचार करना होगा।
निष्कर्ष
“मी टू” अभियान महिलाओं के लिए शक्तिशाली और प्रभावी रहा है, इस अभियान ने देश के कई शक्तिशाली पुरुषों के असली चेहरों को सामने ला दिया है। उनमें से कई लोगों को आदर्शवादी बनते देखा गया है। उदाहरण के लिए, एमजे अकबर के मामले में, जिन महिलाओं ने उनके बारे में अपने अनुभव साझा किए हैं, उनमें उल्लेख किया गया है कि वे अपने वफादार प्रशंसकों के बीच कैसे रहते थे।
इस अभियान ने महिलाओं की कई वर्षों की चुप्पी को तोड़कर आगे आने का साहसिक कार्य किया है। दत्ता के मामले में कहें तो 10 साल पहले भी इन्होंने नाना पाटेकर पर आरोप लगाया था, लेकिन उनके इस मामले को अनसुना कर दिया गया था। इस बार भी उन्हें इस मामले में सहानुभूति से ज्यादा आलोचना का सामना करना पड़ा है। और शायद, ऐसा कुछ है जिस पर हमें गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। अगर संदेह की स्थिति में आरोपी को लाभ मिलता है, तो पीड़ित को क्यूं नहीं? इस मामले में सामने आने वाली महिलाओं पर विश्वास करने का मतलब यह नहीं है कि दुनिया में हर एक मनुष्य से नफरत की ओर बढ़ रहे हैं, जैसा कि आप लोग सोंचते हैं। हम केवल अधिक सहानुभूति की ओर बढ़ रहे हैं।
जो लोग कहते हैं “अब क्यों? वह कई साल पहले इस मुद्दे को लेकर आगे क्यों नहीं आए, जब पीड़िता के साथ ऐसा हुआ था?” आपका जवाब यहां दिया गया है:
केवल पीड़िता को यह निर्णय लेने का अधिकार है कि वे अपनी कहानी साझा करते समय पर्याप्त सुरक्षित महसूस करती हैं, यदि वे ऐसा करते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि इस मुद्दे को कितने साल बीत चुके हैं, अगर उनके अधिकारों का उल्लंघन किया गया है, तो उसकी कहानी अभी भी मान्य है।
अगली बार आप या फिर कोई और कहता है, सभी पुरुष महान नही होते हैं (#NotAllMen) – सही कहा न। सभी पुरूष तो नहीं, लेकिन कुछ महान होते हैं (#EnoughMen)।