भारत में किसानों की आत्महत्याओं के बढ़ने के कई कारण हैं। अब भूमि उतनी उपजाऊ नहीं है जितनी पहले थी, बाजार भी असफल हो रहे हैं, कर्ज बढ़ता जा रहा हैं और फसलें भी अब ज्यादा सुरक्षित नहीं है। खासकर पिछले एक दशक से, एक आर्थिक समस्या से ज्यादा, उन्होंने अब राजनीतिक और मानवीय आयामों को स्वीकृत कर लिया है।
मौसम और जलवायु के मुद्दे
भारत में मौसम इन दिनों बिलकुल ही अनियमित हो गए हैं और वर्षा सही समय पर नहीं होती है। मध्यम वर्षा, जो अच्छी कृषि के लिए बहुत अधिक आवश्यक है, इस समय मौसम अपने चरम सीमा पर पहुँच गया हैं और अच्छी वर्षा अतीत की बात हो गई है। भारत को कृषि प्रधान देश के रूप में माना जाता है, मध्य भारत में स्थिति विशेष रूप से खराब है।
पिछले तीन वर्षों से, मौसम की स्थिति बदल रही हैं। सामान्य वर्षा होने पर भी स्थिति बिल्कुल वैसी ही बनी हुई है। देश का भू-भाग 56% बर्फ से ढकी हुई नदियों के पानी पर निर्भर है और इस स्थिति में भी मामूली अस्थिरता के कारण हानिकारक प्रभाव पड़ सकते हैं। उसके मद्देनजर निरंतर सूखा और निरंतर बारिश की परिस्थितियों का द्विगुणन भी अक्सर विनाश का कारण बन जाता है। तथ्य यह है कि भारत में 85% कृषि कार्य वर्षा पर निर्भर है। विशेष रूप से बढ़ती फसलों की प्रगति की प्रारंभिक अवधियों के दौरान सूखे स्थलों की स्थिति बहुत खराब हो सकती है। अगर सूखेपन की निरंतर पुनरावृत्ति होती रही तो कुछ बड़े पैमाने पर फसलों का नुकसान हो सकता है।
इन स्थितियों के कारण, इन दिनों में अनुभवी किसानों को भी नुकसान हो रहा है जबकि वे अपनी फसल को सोच-समझकर सही समय पर लगाते है। तथ्य यह है कि फसल को नुकसान पहुँचाने वाले कीड़े, जंगली घास और फसल में लगने वाली बीमारियाँ विकसित हो रही हैं, जिससे किसानों की चिन्ताओं में बढ़ोत्तरी हुई है। किसानों के लिए मृदा अपरदन भी एक बड़ी समस्या है।
संचालन का प्रबंध
रियल स्टेट के कारण भू-सम्पत्ति की कीमतें इतनी बढ़ गई हैं कि लोगों को घर खरीदने में मुश्किल हो रही है। ऐसी परिस्थितियों में सामान्य पूँजी वाले लोगों को खेती करने के लिए खेतों के मालिक होने के बारे में सोचना असंभव जैसा लगता है। जिन लोगों की अपनी जमीन है, उनमें से अधिकांश लोगों को अपने पूर्वजों से मिली है। ज्यादा बार नहीं लेकिन एक किसान की मृत्यु के बाद उसकी जमीन उसके बेटों के बीच विभाजित की जाती है, एक किसान को खेती करने के लिए यह अपर्याप्त है। यही कारण है कि यहाँ पर परिचालन के पैमाने इतने छोटे हैं कि अधिक से अधिक, यहाँ पर केवल दो एकड़ जमीन वाले किसान है। जिसके कारण किसानों को कम आय प्राप्त होती है और किसान मशीनीकरण और स्वचालन जैसी प्रक्रियाओं की अनुमति के लिए तैयार नहीं होता है जबकि अच्छी आय प्राप्त करने के लिए इनके अनुरूप खेती करना आवश्यक है। यही कारण है कि छोटे किसानों के पास मानव श्रम पर भरोसा करने के अलावा, उनके पास कोई अन्य विकल्प नहीं है, जो कि इस युग में बेहद मुश्किल है। कई बार, बढ़ती अचल संपत्ति की कीमतों के कारण, छोटे किसान जो इतनी अच्छी तरह से फसल नहीं पैदा कर पा रहे हैं, तो वे अपनी जमीन रियल स्टेट वालों को बेचने और स्वयं के लिए एक अच्छी जिंदगी सुनिश्चित करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। इसका अर्थ यह भी है कि कृषि के लिए उपलब्ध भूमि की मात्रा कम हो रही है, इस प्रकार आम तौर पर भारतीय कृषि प्रभावित हो रही है।
केरल, बिहार, पश्चिम बंगाल और पूर्वी उत्तर प्रदेश जैसे उच्च जनसंख्या घनत्व वाले राज्यों में छोटे भूखंडों की समस्या तीव्रता से महसूस हो रही है। इन राज्यों में औसतन, किसानों की कृषि योग्य भूमि एक हेक्टेयर से भी कम है। राजस्थान और नागालैंड जैसे राज्यों की स्थिति अलग है। वास्तव में, पंजाब, गुजरात, हरियाणा, कर्नाटक, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में कुल बुवाई वाले क्षेत्र राष्ट्रीय औसत से कहीं अधिक है।
भारत में छोटे किसान, बड़े किसान या जमींदार और मध्यम किसान के बीच का अंतर बहुत बड़ा है। विखंडन पर जोर देने के कारण भारतीय विरासत कानून प्राकृतिक रूप से समस्याग्रस्त है। जब भी कृषि में कोई विखंडन होता है, तो बहुत-सा समय और संसाधन व्यर्थ होते हैं और यह उत्पादन कम कर देता है क्योंकि जमीन के ऐसे छोटे-छोटे टुकड़ों में ठीक से खेती करना मुश्किल हो जाता है। चिह्नित सीमाओं का मतलब यह है कि उपजाऊ भूमि किसी भी प्रक्रिया के लिए इस्तेमाल की जा सकती है, ऐसी परिस्थितियों में यह बहुत ही कम होता है कि किसान उपज को सुधारने के लिए महंगी वस्तुओं का प्रयोग कर सके।
कृषि श्रमिकों का अभाव
इन दिनों कृषि परिश्रम के रूप में मानी जाती है, विशेष रूप से आकस्मिक श्रम। निर्माण और उद्योग जैसे क्षेत्र पहले से ही लोगों को रोजगार दे रहे हैं, जो कि कृषि के अलावा भिन्न प्रकार के कार्यों में लगे हुए हैं। एक कारण यह भी है कि पिछले कुछ दशक में शहरी प्रवास बहुत बढ़ गया है। इन दिनों किसानों के बच्चों को संस्थागत शिक्षा प्राप्त करने और अन्य नौकरियों में शामिल होने में अधिक रुचि है। सरकार ने न्यूनतम समर्थन कीमतों की व्यवस्था भी शुरू कर दी है, जिससे मुद्राप्रसार और मजदूरी में भी वृद्धि हुई है। इसका मतलब यह है कि छोटे भूमिकृषकों को पर्याप्त कृषि श्रम की नियुक्ति के मामले में ज्यादा छूट नहीं मिलती। इसने मजदूरों के लिए एमजीएनआरईजीए (मनरेगा) जैसी योजनाएं भी स्थापित की हैं, जिसका अर्थ है कि वे किसी भी कृषि कार्य की तुलना में उन योजनाओं के अन्तर्गत श्रम करने में अधिक रुचि रखते हैं। सत्य यह है कि कृषि की तुलना में, इन नौकरियों में उन्हें अत्यधिक उत्पादन करने की आवश्यकता नहीं है, जो उन्हें और अधिक उत्साहित करता है। इन साधनों ने सबसे छोटे किसान को अत्यधिक प्रभावित किया है।
कीमतों की असंतोषजनक प्राप्ति
भारत में किसानों की सबसे महत्वपूर्ण समस्याओं में से एक बाजार है। भारत में कानून व्यवस्था पुरानी हैं और बार-बार एक किसान के पास उसके उत्पाद को विनियमित बाजारों में बेचने के अलावा कोई विकल्प नहीं है, जहाँ मध्यस्थ लोगों को अधिक लाभ प्राप्त होता हैं। कभी-कभी, वे 75% तक लाभ कमा लेते हैं अगर बिचौलियों का सफाया किया जाए तो किसान अपने उत्पादों को बेहतर दरों पर बेच सकते हैं। दूसरी ओर, किसानों को न्यूनतम मात्रा में संतुष्ट रहना चाहिए। चीनी कारखानों में स्थिति विशेष रूप से भयानक होती है, जहाँ तराजू तक पहुँचने में उन्हें कष्ट का सामना करना पड़ता हैं और किसानों के लिए लाइन तोड़ने के अलावा अभी भी महत्वपूर्ण समय लगता है। कुछ परिस्थितियों में किसानों को साहूकारों को अपने उत्पाद मुफ्त देने की भी जरूरत पड़ जाती है। यह एक बहुत ही सामान्य घटना है कि छोटे गांवों में बिक्री बहुत कठिनाई से होती है। ग्रामीण ऋण सर्वेक्षण में सही ढंग से कहा गया है कि बिक्री के समय, स्थान या शर्तों के संदर्भ में किसानों के लिए कुछ भी अनुकूल नहीं है।
अपर्याप्त भंडारण सुविधाएं
एसोचैम (भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग मंडल) का अनुमान है कि हर साल पूरे भारत में कृषि उत्पादन का 30-40% फसलें खराब हो जाती है क्योंकि पर्याप्त शीत भंडार नहीं हैं। मौद्रिक शब्दों में, उस नुकसान की कीमत 35,000 करोड़ रुपये तक होती है। वर्ष भर फलों और सब्जियों जैसे खाद्य पदार्थों की उच्च माँग रहती हैं। हालाँकि, असामान्य वर्षा के कारण ये फसलें नष्ट हो जाती हैं। जिन किसानों के पास शीत भंडारण नहीं हैं, उन्हें अपनी उपज जितनी जल्दी हो सके बेचनी पड़ती है ताकि वे सड़ने न पाएं। इसका मतलब यह है कि वे अपनी उपज से कम कीमतों पर बेची जाती हैं क्योंकि माँग से अधिक आपूर्ति होती है। एक छोटे से किसान के लिए एक शीत भंडारण का स्थापन और संचालन करना बहुत महंगा और मुश्किल है।
बीज की गुणवत्ता, कीटनाशक और उर्वरक
भारत में किसानों को अक्सर खराब गुणवत्ता वाले बीज को बोना पड़ जाता है। इस खेदजनक स्थिति के लिए कई कारण- किसानों की अनभिज्ञनता, अधिकारियों के भ्रष्टाचार, अप्रभावी और बलपूर्वक कानून और उसी के अनुचित प्रवर्तन शामिल हैं। वे खराब गुणवत्ता वाले उर्वरक और कीटनाशकों का उपयोग करते हैं। इन सभी कारकों में अक्सर फसलें पूरी तरह से नष्ट हो जाती है। अक्सर ऐसा होता है कि बेहतर गुणवत्ता वाले बीज इतने महँगे होते हैं कि छोटे और मध्यम किसान उन्हें खरीद नहीं पाते हैं। जहाँ तक खाद का सवाल है, सबसे छोटे किसानों को गोबर का उपयोग करना पड़ता है, जो कि करागर है। हालाँकि, उनके आगे समस्या यह है कि इस गोबर का वह ईंधन के रूप में भी प्रयोग करते है, जिसका अर्थ है कि सभी के पास पर्याप्त गाय का गोबर उपलब्ध नहीं हो पाता है। गरीब किसानों के लिए ज्यादातर रासायनिक उर्वरकों को खेतों में प्रयोग करना भी असंभव हैं, यह भी कहा गया है कि भूमि को स्वस्थ रखने के लिए जैविक खाद अत्यन्त आवश्यक है। हालाँकि, यह भी पाया गया है कि इनके अत्यधिक उपयोग से भूमि अनुपयोगी हो जाती है और फसलों की गुणवत्ता भी प्रभावित होती है।
भारत में किसानों के सामने कुछ अन्य समस्याएं हैं:
- बढ़ती लागतों के कारण कृषि पशुओं को बनाए रखने में समस्याएं
- वाणिज्यिक बैंकों की विमुखता के कारण अच्छे नियम और शर्तों पर ऋण प्राप्त करने में समस्याएं
- उचित सिंचाई का अभाव
- मशीनीकरण का अभाव
- अपर्याप्त परिवहन सुविधाएं
इन कमियों और मुद्दों का प्रभाव बहुत ज्यादा है, जो कि अधिकांश लोगों को पता होगा या उनके बारे में पता होना चाहिए। एक किसान के लिए, आत्महत्या के कगार पर एक आपदा के मद्देनजर प्रमुख चिंता अपने बच्चों को ऋण देने से दूर रखना है और स्वयं के द्वारा कर्ज चुकाने का प्रबंध करने से है। उन लोगों के लिए जो थोड़ी बेहतर स्थिति में है, यह निवेश को बचाने का सवाल है और ऋणों से बचने का प्रयास है, जिसका उनके सभी सदस्यों द्वारा दावा किया जा रहा है।
निम्नलिखित कुछ समाधान दिए गए हैं जो किसानों की मदद कर सकते हैं:
- उनको खेती के विभिन्न पहलुओं के बारे में शिक्षित करने की आवश्यकता है।
- उनकी मदद करने के लिए उत्कृष्टता केंद्र स्थापित करने की आवश्यकता है।
- कृषि विश्वविद्यालयों को नए विज्ञान पर आधारित प्रथाओं और तकनीकों को खोजने की आवश्यकता है।
- बीमा की आवश्यकता है।
- उन्हें ऋण में बेहतर पहुँच और नियम एवं शर्तों पर ध्यान देने की आवश्यकता है।
- भूमि धारण (जुताई) संगठित होनी चाहिए।
- कार्बनिक खाद का इस्तेमाल किया जाना चाहिए।
- मशीनीकरण की आवश्यकता है।
- बाजारों को विनियमित किया जाना चाहिए।
- सरकार द्वारा किसानों को पूँजी का प्रत्यक्ष प्रावधान।
- एकीकृत, अनुबंध और सहकारी कृषि को प्रोत्साहित करना।
- जल गैराजों का विकास करना।