X

क्या हमें भारतीय बैंकों के बजाय विदेशी बैंकों पर भरोसा करना चाहिए?

Rate this post

एक समय जब वैश्विक बैंक दिवालिएपन से जूझ रहे थे और 2008 में वैश्विक मंदी के कारण ऋण को नियंत्रित करने  में असमर्थ थे, तब भारतीय बैंक एक राइजिंग स्टार के रूप में उभरकर सामने आए, क्योंकि यह आसानी से वैश्विक बाजार में अस्थिरता की अवधि पर काबू पाने में सक्षम रहे हैं। पिछले दो वर्षों में भारतीय बैंकिंग प्रणाली को अपने अपरिवर्तनीय कार्य और प्रणाली के लिए, खासकर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक और निजी भारतीय बैंक, को काफी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा है। भारतीय बैंक अनैतिक कॉर्पोरेट शासन, भाई भतीजा वाद और हाल ही में हुए घोटालों से पीड़ित हैं। लोगों के विश्वास को काफी ठेस पहुँची है, क्योंकि उन्होंने अपना धन भारतीय बैंकों, विशेष रूप से सार्वजनिक क्षेत्र की बैंकों को सौंपा था, जिन्होंने आम आदमी को काफी निराश किया है। लेकिन, जब से वैश्विक बैंकों ने विश्व बैंकिंग प्रणाली की स्थिरता में सुधार लाने की शुरुआत की है तब से इन्होंने भारतीय बैंकों को पीछे छोड़ दिया है। नतीजा यह हुआ कि देश की बैंकिंग प्रणाली भारतीय बैंकों के काम काज और संरचनाओं में तकनीकी और व्यवस्थित सुधार के साथ खुद को बरकरार रखने में नाकाम रही है।

भारत में बैंकों का महत्व और उनका बदलता स्वरूप

एक बैंक अपनी आंतरिक और बाहरी दोनों चुनौतियों पर काबू पाने में सक्षम होती है और दुनिया में नवीनतम तकनीकी उन्नति के साथ स्वयं को आशावादी रखती है। देश की अर्थव्यवस्था को कुशलतापूर्वक और सुचारु रूप से काम करने के लिए एक उचित और अपडेट बैंकिंग प्रणाली महत्वपूर्ण है। भारतीय बैंकिंग प्रणाली की उत्पत्ति 1780 के दशक से समझी जा सकती है जब औपनिवेशिक प्रशासन के तहत कई बैंकों से पहला बैंक भारतीय भूमि पर खोला गया था। उन्नीसवीं शताब्दी में, कई नए बैंक धीरे-धीरे अस्तित्व में आए और अर्थव्यवस्था को शीघ्र ही उचित बैंकिंग प्रणाली के तहत लाने में सक्षम रहे। जब 1935 में भारतीय रिजर्व बैंक का गठन हुआ, तब तक प्रेसीडेंसी बैंकों अर्ध-केंद्रीय बैंकों के रूप में कार्यरत थे। भारत की आजादी के बाद, कई नए बैंक खुल गए और 1960 से 1980 के बीच की अवधि में निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण देखा गया। ये राष्ट्रीयकृत बैंक, लोगों की कड़ी मेहनत से अर्जित धन की देख-रेख करने के साथ भारतीय बैंकिंग प्रणाली का प्रमुख हिस्सा चलाते हैं। नरसिम्हा समिति की रिपोर्ट के अनुसार आर्थिक उदारीकरण ने 1991 में बैंकिंग सुधारों की पहली और आवश्यक जरूरतों की शुरुआत की। अर्थव्यवस्था के उदारीकरण ने निजी बैंकों और विदेशी बैंकों को भारतीय बैंकिंग प्रणाली में व्यापार करने के लिए प्रेरित किया जो न केवल ग्राहकों के लिए वरदान साबित हुआ बल्कि समृद्ध संपन्नता और राष्ट्रीयकृत बैंकों की कार्य कुशलता में वृद्धि हुई।

विदेशी और भारतीय बैंकों के बीच अंतर

प्रारंभिक वर्षों में विदेशी बैंकों ने भारतीय अर्थव्यवस्था में प्रवेश किया, ये बैंक हाई-इंड  सर्विसेस के माध्यम से भारतीय गरीब वर्ग की आवश्यकताओं की पूर्ति कर रहे थे। लेकिन, समय बीतने के साथ ही विदेशी बैंकों ने खुद को स्थानीय परिदृश्य में अनुकूलित कर लिया है, जबकि भारतीय जीवन स्तर और मांगों के अनुरूप उपायों के साथ प्रयोग किये हैं। विदेशी बैंक सीमा पार वित्तीय सहायता प्रदान करते हैं और अंतर्राष्ट्रीय बाजार तक पहुँच बनाने में, वैश्विक बाजार और कई अन्य प्रीमियम सेवाओं में पूंजी सहायता प्रदान करते हैं। लेकिन, विदेशी बैंकों की समस्या ग्राहक पर आधारित है क्योंकि इन बैंकों की  छोटे शहरों में पहुँच बहुत कम है तथा ये बैंक गरीब और निम्न मध्यम वर्ग को सेवाएं प्रदान करने में पूरी तरह से सक्षम नहीं हैं। इससे विदेशी बैंकों के लिए भारतीय बैंकिंग प्रणाली में पर्याप्त आधार बनाना मुश्किल हो जाता है। हालांकि, भारतीय बैंक अभी भी विदेशी बैंकों की तुलना में आबादी के बड़े हिस्से को पूरा करते हैं। भारतीय घरेलू बैंकों की दूर-दराज पहुँच ने विदेशी बैंको को दूरस्थ गांवों, छोटे कस्बों और शहरों में बैंकिंग सेवाएं प्रदान करने में मदद की है।

 

Summary
Article Name
क्या हमें भारतीय बैंकों के बजाय विदेशी बैंकों पर भरोसा करना चाहिए?
Description
1990 के दशक से विदेशी बैंकों ने भारतीय बैंकिंग बाजार में अपनी जगह बनाई है और उन्हें प्रतिस्पर्धी माहौल प्रदान करके भारतीय बैंकों के कार्य पद्धति में सुधार करने में मदद की है। हालांकि, भारतीय बैंक अभी भी समय पर सेवाएं प्रदान करने और व्यापक रूप से ग्राहकों तक अपनी पहुँच के मामले में एक प्रभावशाली स्थिति रखते हैं।
Author
Categories: Business
Related Post