किसी भी समाचार पत्र के वैवाहिक पृष्ठ को उठाइए और उसे पढ़ने में दस मिनट व्यतीत कीजिये। आपको अपने लिए भले ही आदर्श जीवनसाथी नहीं मिले लेकिन “रंगत” को लेकर बोध ज़रूर हो जाएगा। वह आमतौर पर ऐसे होते हैं :
गोरी, पढी-लिखी लड़की चाहिए –
एक गोरी, पढ़ी-लिखी दुल्हन की तलाश है-
हर एक गोर लड़के को अपने लिए पढ़ी लिखी, गोरी दुल्हन की तलाश है..
हाँ – भारत विविधताओं और संस्कृति से समृद्ध भूमि है । लेकिन, यह विडंबना की भूमि भी है। शुरुआत से ही हम अपनी जाति पर गर्व होने के बारे में बात करते हैं, लेकिन फिर भी, अपने उपमहाद्वीपीय त्वचा के रंग को स्वीकार नहीं कर सकते हैं। दूसरी तरफ, कई “राष्ट्रवादी लोग” पश्चिमी प्रभाव से दूर रहने की इच्छा जाहिर करते हैं, फिर भी वे यूनाइटेड किंगडम या संयुक्त राज्य अमेरिका के लोगों की तरह अपनी त्वचा की रंगत निखारना चाहते हैं। कुछ निश्चित रंगों को लेकर ऐसा जुनून क्या है ?
रंगत में पक्षपात करना कहां से आया?
आपने कितनी बार देखा है कि गोरी रंगत को सुंदरता का पैमाना समझा जाता हैI शायद कई बार। भारतीयों के पास अपने-अपने अलग तरह के अलंकरण हैं, माता-पिता को अन्दर एक खुशी महसूस होती है जब उनका बच्चा गोरे रंग के साथ पैदा होता है। तुलनात्मक रूप से सांवली रंगत वाले बच्चों का कमतर तरीके से पालन पोषण किया जाता है I यहां तक कि स्कूलों में भी, त्वचा के रंग के आधार पर भेदभाव के उदाहरण देखने को मिलते हैं- चाहे वह स्कूल के वार्षिक नाटक में गोरी रंगत वाले बच्चे को मुख्य भूमिका देना
यह भेदभाव करने की संस्कृति कहाँ से आयी ?
कैसे गोरी त्वचा की रंगत को “बेहतर” बना दिया गया, खासकर तब, जब देश के अन्दर मामूली संख्या में गोरी रंगत वाले लोग मौजूद है? सबसे साधारण सा जवाब है- उपनिवेशीकरण। यह भाग्य का फेर था कि, अंग्रेजों ने भारत पर हमला किया, और धीरे-धीरे देश पर अपना शासन स्थापित किया- वे सफेद त्वचा (गोरे रंग) की जातीयता से संबंधित थे। सामूहिक साक्ष्य बताते हैं कि अंग्रेज, भारतीयों के गेहुंए रंग को कमतर मानते थे।
भारत में उपनिवेशीकरण की गति काफी धीमी थी जो लगभग 200 वर्षों के बाद धीरे-धीरे खत्म हो गई। यह स्वाभाविक है कि यही एकमात्र देश नहीं था जो उस स्थिति में प्रभावित हुआ, बल्कि हमारे समाज और उसके लोग भी गहराई से प्रभावित हुए। हमारी त्वचा की रंगत के खिलाफ अंग्रेजों द्वारा किया गया भेदभाव धीरे-धीरे हमारी मानसिकता में शामिल हो गया। इसलिए, भारत में रंग भेदभाव पारंपरिक नहीं , बल्कि औपनिवेशिक है। स्वतंत्रता प्राप्त होने के बावजूद, हम अभी भी अपने अन्दर एक पक्षपात की भावना रखे हुए हैं और सोच रहे हैं कि अब हम स्वतंत्र हैं।
सौंदर्य उत्पादों में भेदभाव
एक ऐसा उत्पाद जिसे देखकर भारतीय घर में लगभग हर बच्चा बड़ा हुआ है वह है ड्रेसिंग टेबल पर रखी फेयर एंड लवली ट्यूब है। वर्षों से, रंगत निखारने वाली और क्रीम बाज़ार में आईं और साथ ही हमारी ड्रेसिंग टेबल पर भी, लेकिन जो चीज़ नहीं बदली वह है हमारा जुनूनI
भारतीय राजस्व सेवा (आईआरएस) द्वारा 2009 के आंकड़े बताते हैं कि रंग गोरा करने वाली क्रीम सबसे कम उम्र के उपयोगकर्ता 12 साल के युवा हैं! 12 से 14 साल तक के लगभग 13% उपयोगकर्ताओं के लिए समूह गठित है। यदि इससे भी आँखे नहीं खुलीं तो किसी से भी नहीं खुलेंगी।
भारतीय बच्चों की परवरिश किस तरह से की जा रही है, कि उन्हें किसी भी उम्र में या फिर कम उम्र में ही अपनी त्वचा की रंगत को गोरा करने की आवश्यकता महसूस होने लगती है? बच्चों के काले रंग के कारण उन्हें नीचा दिखाने वाले उदाहरण दुर्लभ नहीं हैं। अध्ययनों से पता चलता है कि रंग-आधारित भेदभाव के परिणामों की वजह से हो सकता है कि बच्चे आत्मसम्मान में कमी, हीन भावना के साथ बड़े हों।
यहां तक कि रंगत गोरा करने के उत्पाद के विज्ञापनों में भी गहरे त्वचा वाले व्यक्ति (आमतौर पर एक लड़की), का आत्मविश्वासी और संकोची होना दिखाया जाता है – जब तक वह अपने चेहरे पर गोरा होने वाली क्रीम नहीं लगाती है, और गोरी नहीं हो जाती है! उसकी समस्याएं अचानक खत्म हो जाती हैं और वह एक विश्वासी और युवा महिला के रूप में बदल जाती है।
निष्कर्ष
आज के समय में ऐसा सोचना डरावना लगता है कि रंगत के आधार पर भेदभाव कितना सामान्य हो गया है। गोरा करने वाली क्रीम के विज्ञापन, जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है, नियमित रूप से राष्ट्रीय टेलीविजन पर प्रसारित किया जाते हैं, और इसमें किसी को शायद ही कोई समस्या दिखती है। वास्तव में, बाजार में यह उत्पाद बहुत अच्छे बिकते हैं, जो सभी आयु समूहों के बीच लोकप्रिय है। विवाह के मामले में भी, व्यक्ति की रंगत अक्सर एक महत्वपूर्ण निर्धारक बन जाती है कि उन्हें “अच्छा” जीवनसाथी मिल जाएगा।
ऐसा लगता है कि पीली त्वचा को भी सुंदरता माना जाने लगा है। लेकिन हम जानते हैं कि इसमें इससे कहीं ज्यादा है, और होना भी चाहिए। हमें अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त हुए 72 साल हो गए, लेकिन ऐसा लगता है हमारा शरीर अभी भी औपनिवेशिक है।