बिपिन चंद्र पाल (1858-1932) एक प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ, पत्रकार और एक प्रख्यात वक्ता थे, जो तीन प्रसिद्ध देशभक्तों में से एक थे। इन्हें लाल बाल पालकी तिकड़ी के नाम से भी जाना जाता था। वे लाला लाजपत राय तथा बाल गंगाधर तिलक के साथ स्वदेशी आंदोलन में प्रमुख रूप से शामिल थे। उन्होंने पश्चिम बंगाल के विभाजन का विरोध भी किया था।

बिपिन चंद्र पाल का जन्म 7 नवंबर 1858 में बांग्लादेश के सिलहट नामक गाँव में हुआ था। वे शिक्षा ग्रहण करने के लिए कलकत्ता आए और वहाँ के प्रेसीडेंसी कॉलेज में दाखिला कराया। परन्तु स्नातक की पढ़ाई पूरी होने से पहले उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी थी। हालांकि, बिपिन चंद्र पाल की पढ़ने-लिखने में ज्यादा रूचि नहीं थी, फिर भी उन्होंने विभिन्न पुस्तकों का व्यापक रूप से अध्ययन किया। उन्होंने अपने कैरियर की शुरूआत स्कूल के एक मास्टर के रूप में की थी। बिपिन चंद्र पाल ने कलकत्ता पब्लिक पुस्तकालय में एक पुस्तकालयाध्यक्ष के रूप में भी काम किया था। वह केशव चंद्र सेन के साथ शिवनाथ शास्त्री, बी.के. गोस्वामी व एस.एन बनर्जी के संपर्क में भी रहे हैं। बिपिन चंद्र पाल को राजनीति में सक्रिय रूप से शामिल होने के लिए, बिपिन चंद्र सेन के व्यक्तित्व ने बहुत अधिक आकर्षित किया। जल्द ही वह तिलक, लाला, व अरबिंद के संपर्क आकर उनकी उग्रवादी देशभक्ति से भी प्रेरित हो गये। सन् 1898 में वह तुलनात्मक धर्मशास्त्र का अध्ययन करने के लिए इंग्लैंड गए थे, परन्तु असहयोग आंदोलन के अन्य नेताओं के साथ अपने स्वदेशी विचार-विमर्श का प्रचार करने के लिए वापस आ गये। स्वयं एक पत्रकार होने के नाते बिपिन चंद्रपाल ने देशभक्ति भावनाओं और सामाजिक जागरूकता को फैलाने में अपने पेशे का भी इस्तेमाल किया। वह डैमोक्रैट, स्वतंत्र व कई अन्य पत्रिकाओं और समाचार पत्रों के संपादक थे। उन्होंने बंगाल में रानी विक्टोरिया पर आधारित एक जीवन-कहानी को भी प्रकाशित किया। ‘स्वराज’ एवं वर्तमान की स्थिति में ‘द सोल ऑफ इंडिया’ उनके द्वारा लिखी गई दो प्रसिद्ध पुस्तकें हैं। बिपिन चंद्रपाल कभी न हारने वाले व्यक्ति थे। वह अपने सिद्धांतों का पूर्णताः पालन करते थे। उन्होंने हिंदुत्व की बुराइयों और बुरे व्यवहारों के खिलाफ अपना विरोध प्रदर्शित किया। वह ब्राह्म समाज के सदस्य थे और पुरुषों एवं महिलाओं की समानता में विश्वास करते थे। उन्होंने विधवा महिला शिक्षा और उनके पुनर्विवाह को भी प्रोत्साहित किया। भारत के सबसे बड़े देशभक्त के रूप में इस महान क्रान्तिकारी का सन् 1932 में निधन हो गया।

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