महाराणा प्रताप को राजपूत वीरता, शिष्टता और दृढ़ता की एक मिशाल माना जाता है। वह मुगलों के खिलाफ युद्ध लड़ने वाले अकेले योद्धा थे। उन्होंने स्वयं के लाभ के लिए भी कभी किसी के आगे हार नहीं मानी थी। वह अपने लोगों से बहुत प्यार करते थे और उनके साथ आजादी की लड़ाई में भी शामिल हुए थे। वह अकबर के साथ हुए हल्दीघाटी के युद्ध में हार गये थे, परन्तु कभी भी आत्मसमर्पण नहीं किया और जीवन के अंत तक संघर्ष करते रहे।

वीरता और आजादी के लिए प्यार तो राणा के खून में समाया था क्योंकि वह राणा सांगा के पोते और उदय सिंह के पुत्र थे। एक ऐसा समय आया जब कई राज्यों के राजपूतों ने अकबर के साथ मित्रता कर ली थी, परन्तु मेवाड़ राज्य स्वतन्त्र ही बना रहा, जिससे अकबर बहुत अधिक क्रोधित हो गया था। उन्होंने राजस्थान के मेवाड़ राज्य पर हमला किया और चित्तौड़ के किले पर कब्जा कर लिया और उदय सिंह पहाड़ियों पर भाग गये लेकिन उन्होंने अपने राज्य के बिना भी स्वतंत्र रहने का फैसला किया। उदय सिंह की मृत्यु के बाद महराणा प्रताप ने इस जिम्मेदारी को संभाल कर लोगों के बीच एक सच्चे नेता के रूप में उभर कर सामने आये।

प्रताप के पास मुगलों का विरोध करने का ठीक समय नहीं था क्योंकि उनके पास पूंजी (धन) का आभाव था और पड़ोसी राज्य भी अकबर के साथ मिल गये थे। अकबर ने प्रताप को अपने घर रात्रि भोज पर आमंत्रित करने के लिए मान सिंह को उनके पास अपना दूत बनाकर भेजा, जिसका मुख्य उद्देश्य उनके साथ बातचीत करके शांतिपूर्ण गठबंधन स्थापित करना था। परन्तु प्रताप स्वयं नहीं गये और अपने पुत्र अमर सिंह को अकबर के पास भेज दिया। इस घटना के बाद मुगल और मेवाड़ के बीच सबंधं अधिक बिगड़ गये तथा जल्द ही 1576 में हल्दीघाटी का युद्ध शुरू हो गया।

प्रताप की सेना के मुकाबले मानसिंह के नेतृत्व वाली अकबर की सेना के पास अपार बल था, फिर भी प्रताप ने अपने विरोधियों का बड़ी वीरता के साथ मुकाबला किया। प्रताप की मदद के लिए आस-पास की पहाड़ियों से भील आदिवासी भी आये थे। प्रताप एक सिंह की तरह बड़ी वीरता के साथ युद्ध लड़ रहे थे परन्तु दुर्भाग्य यह था कि दूसरी तरफ मानसिंह था। अंत में, जब मुगल सेना की विजय सुनिश्चित हो गई, तो प्रताप के लोगों ने उन्हें युद्ध के मैदान से हट जाने की सलाह दी। मुगल सेना के प्रकोप से बचने के लिए महान पुरूष-झलासिंह ने प्रताप सिंह की युद्ध से भाग निकलने में काफी मदद की थी। गंभीर रूप से घायल प्रताप को कोई मार पाता, उससे पहले ही वह अपनी सुरक्षा के लिए अपने वफादार घोड़े चेतक पर सवार हो कर भाग गये।

प्रताप को अपने भगोड़े जीवन में बहुत कठिन मुसीबतों का सामना करना पड़ा किन्तु वह स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करते रहे। भामाशाह जैसे भरोसेमंद पुरुषों की मदद से उन्होंने दोबारा युद्ध लड़ा और प्रदेश के अधिकांश हिस्सों में अपना राज्य पुनः स्थापित कर लिया। यद्यपि वह चित्तौड़ राज्य को पूर्णरूप से स्वतंत्र नहीं करा सके थे परन्तु उनकी मृत्यु अपने अनुयायियों के बीच एक वीर योद्धा की तरह हुई।

महाराणा प्रताप के बारे में कुछ तथ्य एवं जानकारी

उपनाम प्रताप सिंह
शासन काल 1568-1597
जन्म 9 मई 1540
जन्मस्थान कुम्भलगढ़ दुर्ग राजस्थान, भारत
मृत्यु 19 जनवरी 1597 (उम्र 56)
पूर्वज उदय सिंह द्वितीय
उत्ताधिकारी अमर सिंह प्रथम
पत्नी महारानी अजबदे पुनवार
पुत्र अमर सिंह
राजसी घर सिसोदिया
पिता उदय सिंह
माता महारानी जयवंताबाई
धर्म हिन्दू
राज्याभिषेक प्रताप अपने पिता राणा उदय सिंह की पहली पसंद नहीं थे। वह अपने दूसरे पुत्र जगमल को राजा बनाना चाहते थे।
हल्दीघाटी का युद्ध 21 जून 1576 को मुगल सेना और प्रताप सेना के बीच हल्दीघाटी गोगुंडा (वर्तमान में राजस्थान) में युद्ध हुआ जिसमें मुगल सेना की संख्या अधिक होने के कारण प्रताप की सेना को वहाँ से भागना पड़ा।
प्रताप का युद्ध से बच निकलना प्रचलित कथाएं बताती है कि प्रताप के एक सेना नायक ने उनके वस्त्रों को धारण कर लिया और उनके स्थान पर युद्ध में लड़ने लगा था और इस प्रकार प्रताप वहाँ से बच निकले।
गुरिल्ला का युद्ध अपने निर्वासन के दौरान अरावली की पहाड़ियों में छिपकर प्रताप ने गौरिल्ला युद्ध की तकनीक का प्रयोग करके उन लोगों पर चढ़ाई करने का प्रयास किया।
भामाशाह की सहायता दानवीर भामाशाह ने सेनापति के रूप में प्रताप की सहायता की थी ताकि प्रताप मालवा पर उनकी लूट और मुगलों के खिलाफ लड़ाई जारी रख सकें।
देवगढ़ का युद्ध देवगढ़ का युद्ध मेवाड़ और प्रताप के बीच हुआ था जिसमें प्रताप की सेना ने जीत हासिल की और कई मेवाड़ राज्यों पर कब्जा कर लिया, लेकिन चित्तौड़ पर कब्जा करने में असफल रहे।
बच्चे 17 पुत्र और 5 पुत्रियाँ
अंतिम दिन महाराणा प्रताप की मृत्यु 19 जनवरी 1597 को चावंड में हुई थी।

 

 

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