टीपू सुल्तान (1750-1799) मैसूर राज्य के वास्तविक शासक थे। वह ‘टाइगर ऑफ मैसूर’ नाम से भी जाने जाते थे। इनका पूरा नाम सुल्तान फतेह अली खान टीपू था। इनका जन्म 20 नवंबर सन् 1750 को वर्तमान कर्नाटक में स्थित बेंगलुरू के निकट कोलार जिले के देवनहल्ली में हुआ था। वह हैदर अली और फकुरुन-उन-निशां (फातिमा बेगम) के सबसे बड़े पुत्र थे। सन् 1782 में अपने पिता की मृत्यु के बाद, टीपू सुल्तान शासक बने। द्वितीय मैसूर युद्ध के बाद उन्होंने मैसूर राज्य पर भी कब्जा कर लिया। टीपू सुल्तान एक दयावान और महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले शासक थे। उन्होंने दक्षिण भारत में ब्रिटिश उत्पीड़न के खिलाफ बहादुरी के साथ निरंतर विरोध प्रदर्शित करते हुए भारतीय इतिहास में अपना नाम अंकित करा लिया।

टीपू सुल्तान को बचपन से ही शिक्षाविदों में बहुत अधिक रुचि थी। उन्हें विभिन्न भाषाओं का अच्छा ज्ञान था। टीपू सुल्तान अच्छी तरह से शिक्षित होने के साथ ही एक कुशल सैनिक भी थे। उन्होंने 15 वर्ष की उम्र में ही युद्ध कला सीख ली थी और अपने पिता के साथ कई सैन्य अभियानों में भाग लिया करते थे। टीपू एक धार्मिक प्रवृति के व्यक्ति थे। वह सभी धर्मों को मान्यता देते थे। कुछ सिद्धांतों के द्वारा उन्होंने हिंदुओं और ईसाइयों के धार्मिक उत्पीड़न का विरोध भी किया। टीपू ने अपनी प्रजा की कुशलता के लिए बहुत कठिन परिश्रम किए और साथ ही सड़कों का निर्माण, तलाबों और बाँधों का निर्माण, तट रेखा के कई बंदरगाह, कई महलों और किलों का सौंदर्यीकरण, विदेशी व्यापार, वाणिज्य और कृषि उत्पादन में वृद्धि करने आदि अन्य प्रमुख कार्यों में उनका महत्वपूर्ण योगदान शामिल है।

टीपू सुल्तान अपने सम्मानित व्यक्तित्व वाले एक साधारण नेता के रूप में जाने जाते थे। टीपू को अपनी प्रजा से बहुत सम्मान मिला और अंग्रेजों के खिलाफ फ्रांसीसी, अफगानिस्तान के अमीर और तुर्की के सुल्तान जैसे विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय सहयोगियों की सहायता कर उनका विश्वास अर्जित किया। टीपू सुल्तान ‘जेकबिन क्लब’ के संस्थापक सदस्य थे, जिन्होंने फ्रांसीसी के प्रति निष्ठा कायम ऱखी। वह अपने पिता की तरह एक सच्चे देशभक्त थे। टीपू ने ब्रिटिश की ईस्ट इंडिया कंपनी के विस्तार से होने वाले खतरे का अनुमान भी व्यक्त किया था। टीपू और उनके पिता हैदर अली ने सन् 1766 में हुए प्रथम मैसूर युद्ध में अंग्रेजों को हरा दिया और सन् 1782 के द्वितीय मैसूर युद्ध में भी अंग्रेजों को हराने में सफल हो गए और इसके साथ ही मैंगलोर की संधि कर ली थी। टीपू की ताकत का आभास हो जाने के बाद अंग्रेजों ने सन् 1790 में तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध के लिए हैदराबाद और मराठों के पड़ोसी राज्यों के साथ समझौता कर लिया था। हालांकि, वर्साइल की संधि पर हस्ताक्षर करने के बाद से फ्रांसीसियों ने भी टीपू का साथ छोड़ दिया और यह संयुक्त सैन्य बल टीपू के लिए बहुत अहम साबित हुआ और इस युद्ध में वह श्रीरंगापट्नम की राजधानी में पराजित हो गये। इस प्रकार टीपू को सन् 1792 की एक संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य होना पड़ा और उनके साम्राज्य के आधे हिस्से को भयंकर युद्ध में हुई क्षतिपूर्ति के लिए जब्त कर लिया था। अंतत: अंग्रेजों ने नवाब के भी साथ सबंध तोड़ दिए और सन् 1795 में उन्हें पराजित कर दिया। उन्होंने एक बार फिर मैसूर पर हमला करने का प्रयास किया जिससे सन् 1798 में चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध की संज्ञा दी गई। एक सक्षम सैन्य रणनीतिकार होने के नाते टीपू ने इस समय अपने शत्रुओं को पराजित करने के लिए युद्ध में रॉकेट तोपखाने की एक पुरानी और सफल सैन्य रणनीति के साथ एक बेहतर सेना का गठन किया। अंततः टीपू सुल्तान बड़ी वीरता के साथ लड़ते हुए, 4 मई सन् 1799 को अपनी राजधानी श्रीरंगापट्नम की रक्षा करते हुए युद्ध में वीर गति को प्राप्त हो गये। टीपू सुल्तान को उनके माता-पिता की कब्र के पास ही दफनाया गया। सन् 1784 में उन्होंने राजधानी श्रीरंगापट्नम में एक विशेष मकबरे का निर्माण करवाया था, जो ‘गुंबज’ के नाम से जाना जाता है।

टीपू ने अपनी विरासत के अतिरिक्त शाही यादों को भी छोड़ दिया, जिसमें प्रमुख रूप से राज्य में विशिष्ट सुन्दरता वाले हथियार, यांत्रिक ‘मैसूर का टाइगर’, स्वर्ण ‘बाघ-सिर’, सिंहासन, टीपू के सिक्के आदि शामिल हैं और साथ ही साथ प्रसिद्ध उत्कीर्ण शाही ‘टीपू सुल्तान की तलवार’ उनके अंतिम सांस तक उनके साथ रही थी। कई अंतर्राष्ट्रीय लोगों के विवादों से गुजर रही शाही तलवार, लगभग दो सौ साल बाद उद्योगपति व राजनीतिज्ञ विजय माल्या के माध्यम से आखिरकार भारत लौट आई है। शाही तलवार को टीपू सुल्तान के जीवन पर आधारित कई वृत्तचित्रों और टेलीविजनों के धारावाहिकों में भी देखा जा सकता है। इसके अलावा ‘दरिया दौलत बाग’ टीपू सुल्तान के ग्रीष्म महल के नाम से प्रसिद्ध है जो अब एक राष्ट्रीय स्मारक एवं पर्यटकों का आकर्षण केंद्र माना जाता है। ब्रिटिश शासन को खत्म करने में पथ प्रदर्शक का कार्य करने वाली टीपू सुल्तान की देशभक्ति भावना, भविष्य में भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों के दिलों में हमेशा उजागर रहेगी।

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