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अमृता शेरगिल का जन्म 30 जनवरी 1913 को हंगरी के बुडापेस्ट में हुआ था। वह उमराव सिंह शेरगिल मजीठिया (एक सिख नौकरशाह) और हंगरी की महिला मेरी एंटोनी गोट्समैन की बेटी थीं। उनके पिता अमृतसर के निकट एक बहुत ही जाने माने कुलीन परिवार (वंश) से संबंध रखते थे।

अमृता शेरगिल के पिता संस्कृत और फारसी के एक प्रसिद्ध विद्वान थे, उन्होंने खगोल विज्ञान, फोटोग्राफी और बढ़ाईगिरी के अलावा दर्शन और धर्म का अध्ययन भी किया, यह कई भाषाओँ के ज्ञाता भी थे। अमृता ने अपने बचपन के शुरूआती कुछ वर्ष यूरोप में बिताए। छोटी उम्र में ही उन्होंने पेंटिग करना शुरू कर दिया और उनकी माँ ने उनके अंदर की इस प्रतिभा को जल्द ही पहचान लिया। उन्होंने कला (पेटिंग, ड्रॉइंग) के लिए पेरिस के सर्वश्रेष्ठ कॉलेज इकोल डेस बीउक्स-आर्टस में शिक्षा प्राप्त की। जब यह पेरिस में थीं तब इनको कई प्रमुख आर्टस गैलरियों (कला दीर्घाओँ) और संग्राहलयों (म्यूजियम्स) का दौरा करने का अवसर प्राप्त हुआ, इसका प्रभाव बाद में उनके कार्य में दिखाई दिया। नवंबर 1934 में वह भारत वापस आ गईं और भारत द्वारा प्रस्तुत की गई छवियों (सीन) से उन पर काफी गहरा प्रभाव पड़ा। शुरूआत में, वह 1935 में हिमाचल प्रदेश के शिमला में बस गईं, यहाँ पर उन्होंने जीवन में होने वाले दिन-प्रतिदिन के अनुभव के आधार पर सामान्य पुरूष और महिलाओँ को चित्रित करना प्रारंभ कर दिया। उन्होंने 1936 में अजंता की गुफाओँ का भ्रमण किया और इस गुफा में बने हुए भित्तीचित्रों से इनकी चित्रकला की शैली (स्टाइल) पर काफी गहरा प्रभाव पड़ा। अमृता शेरगिल ने पेंटिग की भारतीय और पश्चिमी शैलियों के मध्य सामंजस्य स्थापित कर लिया था।

1938 में अमृता के कलात्मक कैरियर का दूसरा दौर शुरू हुआ, इस समय वह प्रकृति चित्रण (छाया) से दूर हो गईं और काल्पनिक चित्रण पर उन्होंने अधिक ध्यान देना शुरू कर दिया। इन पर भारतीय कला दृश्य का बहुत ज्यादा प्रभाव था। अमृता की माता ने अपनी बेटी की जीवन शैली (लाइफ स्टाइल) को नकार दिया और वह चाहती थी कि अमृता अपना अलग जीवन शुरू करे। अमृता की सगाई एक भारतीय व्यक्ति से हो गई, लेकिन इस सगाई को अमृता ने कुछ महीनों के बाद तोड़ दिया। इससे उनकी मानसिकता पर गहरा प्रभाव पड़ा।

1938 में अमृता शेरगिल ने हंगरी के अपने कजिन (चचेरे या ममेरे भाई) डा. विक्टर ईगन से शादी कर ली और लाहौर चली गईं। अमृता शेरगिल को भारत की फ्रीडा कहालो के रुप में संदर्भित किया गया और भारत सरकार ने उनके कार्यों को राष्ट्रीय कला खजाने के रूप मे घोषित कर दिया। 5 दिसंबर 1941 में लाहौर में उनका निधन हो गया।

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