हरीश चंद्र भारत के एक प्रसिद्ध भौतिक शास्त्री और गणितज्ञ थे। हरीश चन्द्र के पिता चंद्रकिशोर एक सिविल इंजीनियर थे। हरीश चन्द्र ने अपना बचपन उत्तर प्रदेश के कानपुर में अपने दादा के घर पर व्यतीत किया। बहुत ही कम उम्र में हरीश चन्द्र ने एक ट्यूशन टीचर से शिक्षा ग्रहण की थी।

हरीश चन्द्र ने चौदह वर्ष की आयु में क्राइस्ट चर्च माध्यमिक विद्यालय में पढ़ाई की और इसके बाद इण्टरमीडिएट की शिक्षा कानपुर से प्राप्त की। इसके बाद, हरीश चन्द्र इलाहाबाद विश्वविद्यालय गए जहाँ पर क्वांटम यांत्रिकी पर डिराक के सिद्धांतों से प्रभावित होकर सैद्धांतिक भौतिकी की शिक्षा प्राप्त की। हरीश चन्द्र ने 1941 में स्नातक (ग्रेजुएशन) और 1943 में परास्नातक (मास्टर्स) की उपाधि प्राप्त की। हरीश बैंगलोर में भारतीय विज्ञान संस्थान में सैद्धांतिक भौतिकी की समस्याओं पर हो रहे शोध में होमी भाभा के संरक्षण में स्नातकोत्तर शोध साथी बने। हरीश चन्द्र का विवाह ललिता काले से हुआ था और दो बेटियां भी हुई।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के शिक्षक के. एस. कृष्णन हरीश चंद्र के शिक्षक थे। के. एस. कृष्णन ने हरीश चंद्र को कैम्ब्रिज में पीएचडी की डिग्री के दौरान शोध कार्य के लिए डिराक के नाम का सुझाव दिया। 1945 में, हरीश चंद्र ने डिराक की निगरानी में, कैम्ब्रिज के गॉनविले और कयॉस कॉलेज में डॉक्टरेट की डिग्री प्राप्त की। हालांकि, हरिश्चन्द्र डिराक के व्याख्यान से अधिक संतुष्ट नहीं हुए, जब उन्होंने मालूम हुआ कि डिराक वास्तव में अपनी किताबों से अध्यनन कर रहे थे। कैम्ब्रिज में रहते हुए हरिश्चन्द्र की रुचि भौतिकी में कम होकर गणित में अधिक बढ़ गयी और लिटिलवुड और हॉल के व्याख्यान पाठ्यक्रमों में भाग लिया।

पॉली द्वारा एक व्याख्यान में भाग लेने के दौरान हरिशचन्द्र ने पॉली के कार्य में हुई एक गलती को उजागर किया। बाद में पॉली और हरीश चंद्र बहुत करीबी दोस्त बन गए। वर्ष 1947 में, हरीश चंद्र ने लॉरेंटेज समूह के अपने शोध ‘अनंत अपरिवर्तनीय प्रस्तुतियों के लिए डॉक्टरेट की डिग्री प्राप्त की। शोध में हरीश चन्द्र ने “एसएल (2, सी) के अपरिवर्तनीय एकान्त प्रतिनिधित्व का एक पूर्ण वर्गीकरण” दिया था।

हरीश चंद्र डिराक के साथ प्रिंसटन आए और 1947 से 1948 तक उनके सहायक के रूप में कार्य किया। संयुक्त राज्य अमेरिका में रहते हुए ये कुछ प्रमुख गणितज्ञ वेइल, आर्टिन और चेवेली जो वहाँ पर कार्य कर रहे थे, उनसे बहुत अधिक प्रभावित हुए। डिराक के कैम्ब्रिज वापस लौटने के बाद भी हरिश चन्द्र प्रिंसटन में एक साल तक रहे। 1949-50 के बीच हार्वर्ड में वह जारिस्की से प्रभावित हुए। हरीश चंद्र 1950 से 1963 तक कोलंबिया विश्वविद्यालय के एक विभाग रहे, यह अवधि उनके कैरियर के लिए सबसे अधिक उपयोगी मानी जाती है, जहाँ हरीशचन्द्र ने सेमीसिंपल लाइ ग्रुप्स के प्रतिनिधित्व पर कार्य किया। इस अवधि के दौरान हरीश चन्द्र ने कई और संस्थानों में भी कार्य किया। वर्ष 1955-56 तक इन्होंने प्रिंसटन के उन्नत अध्ययन संस्थान में कार्य किया और 1957-58 में गुगेनहेम फेलो, पेरिस रहे।

हरीश चंद्र ने लाइ समूहों और लाइ अल्जीब्रस के प्रतिनिधित्व में मौलिक सिद्धांत को सूत्रबद्ध करने का कार्य किया था। सेमीसिंपल लाइ ग्रुप्स के परिमित-आयामी के प्रतिनिधित्व सिद्धांत को एक प्रकरण के अनंत-आयामी प्रस्तुतिकरण तक बढ़ाया तथा वेइल के चरित्र सूत्र एनालॉग को तैयार किया। हरीश चन्द्र के कुछ अन्य योगदान निम्न हैः अर्धसूत्रीय समूहों के लिए प्लैंकेरल विधि का विशिष्ट निर्धारण, आइसेन्स्टाइन श्रृंखला के परिणाम और ऑटोमोर्फिक रूपों की अवधारणा के आधार, पृथक श्रृंखला के प्रतिनिधित्व का मूल्यांकन और उनके वास्तविक लाइ ग्रुपों सहित जिसमें “शीर्ष रूपों के दर्शन” का पी-एडिक समूह या एडेल रिंग समूह भी शामिल है। वर्ष 1963 में, प्रिंसटन में उच्च अध्ययन संस्थान में कार्य करते हुए, हरीश चन्द्र ने 1968 में आईबीएम-वान न्यूमैन प्रोफेसर नियुक्त किया गया था।

हरीश चन्द्र को कई प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त हुएः

  • 1954 में, बीजगणित में एएमएस कोल पुरस्कार।
  • 1954 में, अंतर्राष्ट्रीय कांग्रेस अध्यक्ष रहे।
  • 1969 में, एएमएस कोलोक्वियम लेक्चरर का पुरुस्कार।
  • 1973 रॉयल सोसाइटी के सदस्य का पुरुस्कार।
  • 1974 में, भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी से रामानुजन पदक प्राप्त किया।
  • 1973 में, दिल्ली विश्वविद्यालय और 1981 में येल विश्वविद्यालय द्वारा सम्माननीय डिग्री प्राप्त की।
  • 1981 में, नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज (संयुक्त राज्य) के सदस्य रहे और 16 अक्टूबर 1983 को जब ये प्रिंसटन के एक सम्मेलन में भाग ले रहे थे तभी दिल का दौरा पड़ने के कारण इनकी मृत्यु हो गई थी।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *