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सिद्धेंद्र योगी 14 वीं सदी के एक असाधारण विद्वान और कलाकार थे। 11 वीं और 13 वीं सदी के बीच भक्ति काल के दौरान, कुचीपुड़ी नृत्य में एक क्रांति देखी गई।

सिद्धेंद्र योगी ने यक्षज्ञ लोक नृत्य नाटक के मौजूदा स्वरूप को अपनाया और इसे एक नया रूप दिया। इस प्रसिद्ध विद्वान और कलाकार ने इस नृत्य रूप को एक अति विशिष्ट रूप और शिष्टता प्रदान करने के लिए पहल की।

सिद्धेंद्र योगी ने नाट्य शास्त्र के नृत्य सिद्धांतों को शामिल किया, जो सभी भारतीय शास्त्रीय नृत्य शैलियों की बाइबिल (एक पवित्र ग्रंथ) है। उन्होंने पारंपरिक शास्त्रीय संगीत के उपयोग के साथ सौंदर्य और स्टाइलिश फुटवर्क (लयवद्ध तरीके से कदमों का इस्तेमाल) पेश किए।

उन्होंने लोक परंपराओं और शास्त्रीय परंम्पराओं को एक में मिला दिया। वे इस कला का प्रशिक्षण महिलाओं को देने के पक्ष में नहीं थे, उनका मानना था कि आम तौर पर महिलाएं हाव भाव और भावनाओं को बढ़ा चढ़ाकर पेश करती हैं, इस वजह से नृत्य का आध्यात्मिक स्वरूप कम हो जाता है।

इसलिए इस काल के दौरान कुचीपुड़ी नृत्य पर पुरुष नर्तकों का वर्चस्व था, पुरुष नर्तकों का वर्चस्व इतना अधिक था कि महिला नर्तकियों की भूमिकाएं भी पुरुष नर्तकों के द्वारा निभाई जाती थी। इस नृत्य में केवल उन युवाओं को प्रदर्शन करने का अधिकार था जो कठोर धार्मिक तरीके से जीवन यापन करते थे और आम तौर पर यह कला उन नर्तकों की पीढ़ी दर पीढ़ी एक दूसरे से जैसे पिता से पुत्र तक पारित होती चली आई।

सिद्धेंद्र योगी ने एक प्रसिद्ध नाटक “भामकालपम” लिखा था। यह नाटक हिंदू भगवान, श्री कृष्ण और उसके साथी सत्यभामा और रुक्मिणी पर आधारित है। कुचीपुड़ी नृत्य के प्रदर्शनों का सबसे प्रसिद्ध हिस्सा – सत्यभामा चक्र उनके द्वारा पेश किया गया था।

एक लोकप्रिय चरित्र सिद्धेंद्र योगी के अनुसार, उन्होंने भगवान कृष्ण की स्तुति में परिजथापाहरानाम नामक एक नृत्य की रचना की थी, जिसमें उन्हें भगवान कृष्ण ने चमत्कारिक ढंग से कृष्णा नदी में डूबने से बचाया था। उन्होंने इस नृत्य नाटक में प्रदर्शन करने के लिए ब्राह्मण युवाओं को प्रशिक्षित किया।

यह सबसे पुराना ज्ञात कुचीपुड़ी नृत्य नाटक कहा जाता है। यह कहा जाता है कि वर्तमान कुचीपुड़ी नृत्य शैली की स्थापना नृत्य नाटक परंपरा से हुई थी, जिसे भागवत मेला नाटकम के रूप में जाना जाता है।

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