मैथिलीशरण गुप्त एक प्रसिद्ध आधुनिक हिंदी कवि से ज्यादा एक राष्ट्रकवि के रूप में लोकप्रिय हैं। उनका जन्म 3 अगस्त सन् 1886 को चिरगांव, झांसी में हुआ था। चूंकि उन्हें स्कूल जाना पसंद नहीं था, इसलिए इनके पिता सेठ रामचरण गुप्त ने इनकी पढ़ाई की व्यवस्था घर पर ही की थी। एक बच्चे के रूप में इन्होंने संस्कृत, अंग्रेजी और बंगाली आदि भाषाओं का अध्ययन किया था।

प्रारम्भ में मैथलीशरण गुप्त ने सरस्वती जैसी पत्रिकाओं में कविताएं लिखीं। इनकी पहली प्रमुख कृति “रंग में भंग” 1910 प्रकाशित हुई थी। अपने करियर के प्रारंभिक वर्षों के दौरान वे पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी के मार्गदर्शन में लिखते थे। इनकी अधिकांश कविताएं विभिन्न भारतीय पौराणिक कथाओं रामायण, महाभारत, बौद्ध कहानियों और विभिन्न प्रसिद्ध धार्मिक नेताओं के जीवन से प्रेरित हैं।

इनकी प्रमुख काव्यगत कृतियां हैं – रंग में भंग, भारत-भारती, जयद्रथ वध, विकट भट, प्लासी का युद्ध, गुरुकुल, किसान, पंचवटी, सिद्धराज, साकेत, यशोधरा, अर्जुन-विसर्जन, काबा और कर्बला, जय भारत, द्वापर, नहुष, वैतालिक, कुणाल। इनकी कृति भारत भरती सन् 1912 में प्रकाशित हुई थी, जो एक राष्ट्रवादी कविता है, जिसमें भारतीय इतिहास, संस्कृति और परंपराओं की महिमाओं का बखान किया गया है। यह कविता भारत के स्वतंत्रता सेनानियों के बीच बहुत अधिक लोकप्रिय हुई थी। मैथलीशरण गुप्त जी द्वारा रचित महाकाव्य “साकेत” को उनका सबसे प्रसिद्ध कार्य माना जाता है , जो कि रामायण की एक प्रसिद्ध चरित्र उर्मिला के जीवन पर आधारित है।

मैथिलीशरण गुप्त जी ने उमर खय्याम के रूबाइयात और स्वप्न वासव दत्ता (एक संस्कृत नाटक) जैसे महत्वपूर्ण संस्कृत नाटकों का हिंन्दी में अनुवाद किया। इन्होंने तिलोत्तमा, और चन्द्रहास जैसे नाटक भी लिखे हैं। हिंदी साहित्य में इनका एक असाधारण योगदान रहा, इन्होंने मुख्य रुप से आधुनिक हिंदी भाषा और खड़ी बोली को अपनी रचनाओं का आधार बनाया। इन्होंने आधुनिक हिंदी काव्य को विकसित और समृद्ध बनाने के लिए उसका मार्ग प्रशस्तकिया।

मैथिलीशरण गुप्त एक महान देशभक्त और राष्ट्रवादी थे और उन्होंने राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलनों में पूर्ण आस्था और भक्ति के साथ सक्रिय रूप से भाग लिया था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जब भारत को एक गणराज्य घोषित किया गया था, तब उन्हें राज्यसभा का माननीय सदस्य बनाया गया और वे जीवन पर्यन्त इसके सदस्य बने रहे। सन् 1954 में इन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। 12 दिसंबर, 1964 को, हिंदी साहित्य ने अपने सबसे महान लेखक को खो दिया।

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