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धारा 377- विक्टोरियन नीति पर आधारित एक सख्त कानून

July 23, 2018
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धारा 377- विक्टोरियन नीति पर आधारित एक सख्त कानून

भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को अध्याय XVI के भीतर रखते हुए 1861 में ब्रिटिश शासन के तहत तैयार किया गया था। इस कानून में समलैंगिकता समेत “आर्डर ऑफ़ दि नेचर” के खिलाफ किसी भी यौन गतिविधि को, जो विक्टोरियन आदेश में निषिद्ध थी, अपराध की श्रेणी में रखा गया था। भारत, सांस्कृतिक रूप से एक प्रगतिशील देश रहा है, जहां खजुराहो के मंदिरों का चित्र लेखन और महाभारत में शिखंडी के चरित्र ने विभिन्न यौन उन्मुखताओं के अस्तित्व को उजागर किया है। जहाँ दुनिया की अधिकांश सरकारों ने लेस्बियन, गे, बाइसेक्शुअल, ट्रांसजेन्डर और क्वीयर (एलजीबीटीक्यू) समुदाय के अधिकारों को मान्यता दी है, वहीं भारत इन अल्पसंख्यकों की नीतिमत्ता पर बहस कर रहा है।

भारत में व्याप्त सामाजिक कलंक

एलजीबीटीक्यू समुदाय के लोगों को भी दूसरे नागरिकों की तरह शांतिपूर्वक जीवन जीने का अधिकार है। लेकिन, यह मामला इस समुदाय के लोगों के लिए नहीं है, क्योंकि उन्हें अक्सर कई धार्मिक कट्टरपंथी समूहों द्वारा लक्षित किया जाता है, साथ ही उन्हें भ्रष्ट, और “भारतीय संस्कृति” को विकृत करने वाला माना जाता है। अधिकांश लोगों का मानना ​​है कि समलैंगिकता एक मानसिक बीमारी है जो पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित है और प्रायः ये भारत के एलजीबीटीक्यू समुदाय के लोगों पर हमला बोलते हैं और उन्हें अपशब्द बोलते है। इसके बाद इसे भारतीय समाज में हीनता से देखा जाता है और इसी कारण इस समुदाय के लोगों  को समाज के हर नुक्कड़ और कोने में कठिनाइ, हिंसा और भेदभाव का सामना करना पड़ता है। एलजीबीटीक्यू समुदाय के खिलाफ भारत में प्रचलित यह सामाजिक कलंक है, जो न केवल अल्पसंख्यक समुदाय के लिए उनके अपने अधिकारों की लड़ाई को और अधिक कठिन बना रहा है, बल्कि उनका स्वतन्त्रता से जीने का अधिकार भी छीन रहा है। सालों से, भारत में एलजीबीटीक्यू अधिकार सामान्य जनता के बीच विवाद की हड्डी बनी हुई है, जिसमें केवल कुछ वर्ग ही एलजीबीटी समुदाय के अधिकारों के लिए, खुलकर सामने आ रहे हैं।

भारत में एलजीबीटीक्यू अधिकार और समानता के लिए उनकी लड़ाई

पिछले एक दशक या उससे भी पहले से, भारत में एलजीबीटीक्यू समुदाय के लोग समान व्यवहार के लिए, बिना किसी भेदभाव या डर के बिना जीने के अधिकार हेतु अपनी लड़ाई में खुलकर सामने आए हैं, विशेष रूप से महानगरीय क्षेत्रों से सम्बंधित समुदाय के लोग  शामिल हैं। वर्ष 2009, एलजीबीटीक्यू समुदाय के लिए एक ऐतिहासिक वर्ष था, जब दिल्ली उच्च न्यायालय ने नाज़ फाउंडेशन बनाम दिल्ली की एनसीटी सरकार के लिएअपना फैसला सुनाया था। इस मामले की अध्यक्षता दो न्यायाधीशीय न्ययायापीठ में की गयी थी जिसमें वयस्कों के बीच सहमति समलैंगिक यौन संबंध को अपराध माना गया था। जो एलजीबीटी क्यू समुदाय के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।

भारत में एल जीबीटी क्यू समुदाय के लिए एक बड़ी नाकामयाबी दिसम्बर 2013 में तब देखने को मिली, जब भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने समलैंगिकता सहमति को खत्म करने के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले को अस्वीकार कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने सुझाव दिया था कि संसद को धारा 377 से संबंधित मामले पर सोंच-समझ कर फैसला लेना चाहिए।

नाज़फाउंडेशन ने कई वर्षों तक भारत में एलजीबीटीक्यू समुदाय के समान अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी है। 2013 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद, नाज़ फाउंडेशन ने केंद्र सरकार के साथ सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिसंबर 2013 में किए गए फैसले के खिलाफ एक समीक्षा याचिका भी दायर की थी, जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया था।

2015 में, भारतीय सांसद शशी थरूर ने धारा 377 को खत्म करने के लिए लोकसभा के सभाकक्ष में एक बिल पेश किया था, लेकिन यह बिल धारा को खत्म करवा पाने में विफल रहा था। अगले वर्ष, भारत के सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता और धारा 377 के अपराधीकरण का मूल्यांकन करने का फैसला किया। 2017 में, सर्वोच्च न्यायालय ने सर्वसम्मति से एलजीबीटीक्यू समुदाय के पक्ष में निर्णय लिया था, जिसमें कहा गया था किभारत के संविधान के तहत गोपनीयता का अधिकार एक व्यक्ति का आंतरिक और मौलिक अधिकार है।

2018 की शुरुआत में, सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377 की वैधता की समीक्षा करने का फैसला किया है और इसने 1 मई को आईपीसी की धारा 377 के खिलाफ दायर याचिकाओं को सुनने का फैसला किया तथा इस मामले पर सरकार की राय मांगी।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा धारा 377 की समीक्षा – एलजीबीटीक्यू समुदाय के लिए आशा की किरण

10 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने  धारा 377 के मुद्दे पर कार्यवाही शुरू करने और सहमति समलैंगिकता को खत्म करने के लिए सहमत प्रदान कर दी। पांच-जजों की न्यायापीठ की अध्यक्षता भारत के मुख्य न्यायाधीश के साथ सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ जजों द्वारा की गई। कोर्ट ने धारा 377 के प्रति केंद्र सरकार की राय मांगी है। वरिष्ठ वकील मुकुल रोहतगी, न्यायमूर्ति चंद्रचुद और प्रसिद्ध कोरियोग्राफर नवतेज सिंह जोहर का मानना है कि धारा377 को विक्टोरियन सिद्धांतों के आधार पर बनाया गया था और सार्वजनिक नीति, संवैधानिक नीति को बरकार नहीं रख सकती। उन्हें लगता है कि बदलते समय के साथ इस तरह के एक सख्त कानून को खत्म करना जरूरी है क्योंकि यह भारतीय समाज के अल्पसंख्यक वर्ग के मौलिक अधिकारों को कम करता है।

इंडियन साइकोट्रिक सोसाइटी ने एक रिपोर्ट जारी की है जिसमें कहा गया है कि समलैंगिकता मानसिक विकार नहीं है। यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है जो व्यक्तियों के यौन अभिविन्यास से संबंधित है, इसमें प्रत्येक व्यक्ति को धारा 377 जैसे कानूनों के माध्यम से प्रतिबंधित किए बिना अपने साथी को चुनने का अधिकार प्राप्त होता है, क्योंकि धारा 377 व्यक्ति के कई मौलिक अधिकारों को कम करती है। भारत में एलजीबीटीक्यू समुदाय के लोगों को उम्मीद है कि सर्वोच्च न्यायालय, फैसले का निर्णय उनके पक्ष में करेगा जिससे  वर्षों की आक्षेप, यातनाएं और भेदभाव खत्म हो जाएंगे। प्रत्येक व्यक्ति अपने यौन अभिविन्यास के सास-साथ सभ्य और सम्मानजनक जिंदगी जी पाएगा।

 

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भारत के सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377 (जो स्पष्ट रूप से भारत में एलजीबीटीक्यू समुदाय के मौलिक अधिकारों के खिलाफ है) को खत्म करने के लिए दायर याचिका की समीक्षा करने का निर्णय लिया है।समुदाय को  यौन अभिविन्यास और अपने अधिकारों के लिए वर्षों तक लड़ने के बाद, प्रतिकूल परिस्थितियों और भेदभाव का सामना करना पड़ा है, एलजीबीटीक्यू समुदाय भरोसा जता रहा है कि इनकी आजादी का दिन अब करीब है। सर्वोच्च न्यायालय अपना फैसला सुनाने के लिए तैयार है। क्या देश में समलैंगिता पर सख्त कानून रहना चाहिए या इसे कानून के दायरे से दूर होना चाहिए।
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