भारतीय सिनेमा का इतिहास
भारतीय सिनेमा का इतिहास उन्नीसवीं शताब्दी के पहले का है। 1896 में, ल्युमेरे ब्रदर्स द्वारा शूट की गई पहली फिल्म का प्रदर्शन मुंबई (बंबई) में किया गया था।
लेकिन वास्तव में सिनेमा का इतिहास तब बना, जब लोकप्रिय हरिश्चंद्र सखाराम भाटवडेकर को सावे दादा के रूप में जाना जाता था, ल्यूमेरे ब्रदर्स की फिल्म के प्रदर्शन से बहुत अधिक प्रभावित होकर उन्होंने इंग्लैंड से एक कैमरा मंगवाया था। मुंबई में उनकी पहली फिल्म हैंगिंग गार्डन में शूट की गई थी, जिसे ‘द रेसलर’ के रूप में जाना जाता था। यह एक कुश्ती मैच की सरल रिकॉर्डिंग थी, जिसे 1899 में प्रदर्शित किया गया था और भारतीय फिल्म उद्योग में यह पहला चलचित्र माना जाता है।
बॉलीवुड की शुरुआत
भारतीय सिनेमा के पिता दादासाहेब फाल्के ने भारत की पहली लंबी फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ बनाई थी, जो सन् 1913 में प्रदर्शित हुई। मूक फिल्म (ध्वनिरहित) होने के बावजूद, इसे व्यावसायिक सफलता मिली। दादा साहब केवल निर्माता नहीं थे, बल्कि निर्देशक, लेखक, कैमरामैन, संपादक, मेकअप कलाकार और कला निर्देशक भी थे। भारतीय सिनेमा की पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ थी, जिसे 1914 में लंदन में प्रदर्शित किया गया था। हालाँकि, भारतीय सिनेमा के सबसे पहले प्रभावशाली व्यक्तित्व दादासाहेब फाल्के ने 1913 से 1918 तक 23 फिल्मों का निर्माण और संचालन किया, भारतीय फिल्म उद्योग की प्रारंभिक वृद्धि हॉलीवुड की तुलना में तेज नहीं थी।
1920 के दशक की शुरुआत में कई नई फिल्म निर्माण करने वाली कंपनियां उभरकर समाने आई। 20 के दशक में महाभारत और रामायण पौराणिक और ऐतिहासिक तथ्यों और एपिसोड के आधार पर फिल्मों का बोलबाला रहा, लेकिन भारतीय दर्शकों ने हॉलीवुड की फिल्मों, विशेष रूप से एक्शन फिल्मों का स्वागत किया।
टॉकीज की शुरुआत
अर्देशिर ईरानी द्वारा निर्मित ध्वनि सहित पहली ‘आलम आरा’ फिल्म थी, जो कि सन् 1931 में बाम्बे में प्रदर्शित हुई। यह भारत की पहली ध्वनि फिल्म थी। आलम आरा के प्रदर्शन ने भारतीय सिनेमा के इतिहास में एक नए युग की शुरुआत की। फिरोज शाह ‘आलम आरा’ के पहले संगीत निर्देशक थे। 1931 में आलम आरा के लिए रिकॉर्ड किया गया पहला गीत ‘दे दे खुदा के नाम पर’ था। यह वाजिर मोहम्मद खान द्वारा गाया गया था।
इसके बाद, कई निर्माण कंपनियों ने कई फिल्मों को रिलीज किया, जिसकी वजह से भारतीय सिनेमा में काफी वृद्धि हुई। 1927 में, 108 फिल्मों का निर्माण किया गया था, जबकि 1931 में 328 फिल्मों का निर्माण किया गया। इसी समय, एक बड़ा फिल्म हॉल भी निर्मित किया गया जिससे दर्शकों की संख्या में एक महत्वपूर्ण वृद्धि हुई।
1930 और 1940 के दौरान कई प्रख्यात फिल्म हस्तियों जैसे देवकी बोस, चेतन आनंद, एस.एस. वासन, नितिन बोस और कई अन्य प्रसिद्ध लोग को फिल्मी परदे पर उतारा गया।
क्षेत्रीय फिल्मों का विकास
इतना ही नहीं केवल हिंदी सिनेमा का विकास ही नहीं हुआ, बल्कि देश में क्षेत्रीय फिल्म उद्योग ने भी अपनी छाप छोड़ी। 1917 में, पहली बंगाली फीचर फिल्म ‘नल दमयंती’ प्रमुख भूमिकाओं में इतालवी अभिनेताओं के साथ जे.एफ. मदान द्वारा बनाई गई थी। इस फिल्म के फोटोग्राफर ज्योतिष सरकार थे।
1919 में, पहली दक्षिण भारतीय फीचर फिल्म ‘कीचक वधम’ नामक मूक फिल्म स्क्रीनिंग के माध्यम से दिखाई गई। यह फिल्म मद्रास (चेन्नई) में आर. नटराज मुदलियार द्वारा बनाई गई थी। दादा साहब फाल्के की बेटी मंदाकिनी पहली बाल कलाकार थी, जिन्होंने 1919 में फाल्के की ‘कालिया मर्दन’ फिल्म में बाल कृष्ण की भूमिका निभाई थी।
‘जमाई षष्ठी’ बंगाली में पहली ध्वनि फिल्म थी, जिसे 1931 में प्रदर्शित किया गया था और यह मदन थियेटर लिमिटेड द्वारा निर्मित की गई थी। ‘कालिदास’ तमिल की पहली ध्वनि फिल्म थी, एचएम रेड्डी द्वारा निर्देशित 31 अक्टूबर 1931 को मद्रास में प्रदर्शित की गई थी। बंगाली और दक्षिण भारतीय भाषाओं के अलावा, असमी, उड़िया, पंजाबी, मराठी और कई अन्य भाषाओं में भी क्षेत्रीय फिल्में बनाई गई थी।
‘अयोध्येचा राजा’ पहली मराठी फिल्म थी, जिसे 1932 में वी. शांताराम द्वारा निर्देशित किया गया था। यह फिल्म दो भाषाओं में बनाई गई थी। 1932 में ‘अयोध्या का राजा’ हिंदी में और ‘अयोध्येचा राजा’ मराठी में प्रभात कंपनी द्वारा निर्मित पहली भारतीय ध्वनि फिल्म थी।
एक नए युग का जन्म
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान बनाई जाने वाली फिल्मों की संख्या में एक संक्षिप्त गिरावट देखी गई। मूल रूप से आधुनिक भारतीय फिल्म उद्योग का जन्म 1947 के आसपास हुआ था। इस अवधि में फिल्म उद्योग में उल्लेखनीय और उत्कृष्ट परिवर्तन हुए। श्रेष्ठ फिल्म निर्माताओं जैसे सत्यजीत रे और बिमल रॉय ने फिल्में बनाई, फिल्में निचले वर्ग के अस्तित्व और दैनिक दुखों पर केंद्रित थी। ऐतिहासिक और पौराणिक कथाओं या कहानियों ने फिर से अपनी जगह ले ली और सामाजिक संदेशों के साथ बनने वाली फिल्म श्रेष्ठ मानी जाने लगी। ये फिल्में वेश्यावृत्ति, दहेज, बहुविवाह और अन्य भ्रष्टाचार जैसे विषयों पर आधारित थी जो हमारे समाज में प्रचलित थे।
1960 के दशक में, नए निर्देशकों जैसे कि ऋत्विक घटक, मृणाल सेन और अन्य लोगों ने आम आदमी की वास्तविक समस्याओं पर जोर दिया। उन्होंने कुछ बेहतरीन फिल्मों का निर्देशन किया, जिसने भारतीय फिल्म उद्योग को अंतर्राष्ट्रीय फिल्म परिदृश्य में जगह बनाने में सक्षम बनाया।
1950 और 1960 में, भारतीय सिनेमा के इतिहास को स्वर्ण युग माना जाता है क्योंकि गुरु दत्त, राज कपूर, दिलीप कुमार, मीना कुमारी, मधुबाला, नर्गिस, नूतन, देव आनंद और वाहिदा रहमान जैसे कुछ यादगार कलाकारों का जब उदय हुआ।
यह लेख अधूरा रहेगा, अगर भारतीय सिनेमा में संगीत के योगदान का उल्लेख नहीं किया जाए। भारतीय फिल्मों का गीत एक अभिन्न अंग हैं। गीतों की उपस्थिति ने अंतर्राष्ट्रीय फिल्मों की तुलना में भारतीय फिल्मों को एक विशिष्ट रूप दिया है। भारतीय फिल्म उद्योग ने कई प्रतिभाशाली गीतकार, संगीत निर्देशक और कलाकारों का निर्माण किया गया।
बॉलीवुड – मसाला फिल्मों का खोजकर्ता
बॉलीवुड में मसाला फिल्मों का आगमन 1970 के दशक में हुआ। राजेश खन्ना, धर्मेंद्र, संजीव कुमार, हेमा मालिनी जैसे और कई अन्य अभिनेताओं की आभा ने दर्शकों को मंत्रमुग्ध और मोहित किया।
सबसे प्रमुख और सफल निदेशक, मनमोहन देसाई को कई लोगों ने मसाला फिल्मों के जनक (पिता) के रूप में माना था। मनमोहन देसाई के अनुसार, “मैं चाहता हूँ कि लोग अपने दुःख को भूल जाएं। मैं उन्हें उन सपने की दुनिया में ले जाना चाहता हूँ जहाँ कोई गरीबी नहीं है, जहाँ कोई भिखारी नहीं है, जहाँ भाग्य दयालु है और भगवान अपने समुदाय की देखभाल करने में व्यस्त हैं।”
रमेश सिप्पी द्वारा निर्देशित फिल्म ‘शोले’ ने न केवल अंतर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित की, बल्कि अमिताभ बच्चन को ‘सुपरस्टार’ भी बनाया।
1980 के दशक में, कई महिला निर्देशकों जैसे मीरा नायर, अपर्णा सेन और अन्य लोगों ने अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया। 1981 में फिल्म ‘उमराव जान’ में रेखा के असाधारण और शानदार प्रदर्शन को हम कैसे भूल सकते है।
1990 के दशक में शाहरुख खान, सलमान खान, माधुरी दीक्षित, आमिर खान, जूही चावला, चिरंजीवी और कई अन्य कलाकारों का एक नया दल फिल्मी दुनिया में दिखाई दिया। अभिनेताओं की इस नई शैली ने अपने प्रदर्शन को बढ़ाने के लिए नई तकनीकों का इस्तेमाल किया, जिसने आगे बढ़कर भारतीय फिल्म उद्योग को उन्नत के शिखर पर पहुँचा दिया। वर्ष 2008 में, भारतीय फिल्म उद्योग के लिए भारतीय फिल्म स्लमडॉग मिलियनेयर में सर्वश्रेष्ठ संगीत के लिए ए. आर. रहमान को दो अकादमी पुरस्कार मिले।
भारतीय सिनेमा अब भारत तक सीमित नहीं है और अब इसकी सराहना अंतर्राष्ट्रीय दर्शकों द्वारा की जा रही है। बॉलीवुड बॉक्स ऑफिस संग्रह में विदेशी बाजार का योगदान काफी उल्लेखनीय है। 2013 में, भारत के नेशनल स्टॉक एक्सचेंज में 30 फिल्म प्रोडक्शन कंपनियों को सूचीबद्ध किया गया था। मल्टीप्लेक्स भी कर प्रोत्साहनों के कारण संसेक्स भारत में तेजी से आगे बढ़ रहे हैं।
भारतीय सिनेमा हमारे दैनिक जीवन का एक हिस्सा बन गया है, चाहे वह क्षेत्रीय और एक बॉलीवुड ही क्यों न हो। हमारे समाज में मनोरंजन के लिए खेल भी एक प्रमुख भूमिका निभाता है। यद्यपि भारतीय सिनेमा का प्रमुख शब्द मनोरंजन है, इसलिए खेल से अधिक फिल्म उद्योग की जिम्मेदारी है, क्योंकि फिल्में दर्शकों के मन को प्रभावित करती है।
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