Home / India / अग्रसेन की बावली: दिल्ली का गुप्त रहस्य

अग्रसेन की बावली: दिल्ली का गुप्त रहस्य

October 25, 2017
by


अग्रसेन की बावली

‘अग्रसेन की बावली’ एक मशहूर हिन्दी बॉलीवुड फिल्म ‘पीके’ में दर्शाए जाने के बाद राष्ट्रीय रूप से ध्यान में आई, इस फिल्म में बॉलीवुड के कुछ महान कलाकारों जैसे कि आमिर खान, अनुष्का शर्मा और सुशांत सिंह राजपूत ने अभिनय किया है। कई दशकों से अब तक यह स्थान कनॉट प्लेस की बहुमंजिला इमारतों के बीच में छिपा रहा। जब हम अग्रसेन की बावली की कुछ तस्वीरों कों देखते हैं, जो 1920 के दशक में ली गई थी, तो हम यह कह सकते हैं कि उस समय कोई भी इसके आस-पास एकड़ों तक फैले हुए खुले मैदानों को देख सकता है। यह भव्य संरचना दिल्ली शहर के इतिहास की गवाह है और अपने भीतर कई रहस्यों को समाहित किए हुए है। इस विस्तृत सीढ़ीनुमा कुंए की संरचना में करीब 108 सीढ़ीयाँ हैं। यहाँ आने वाले ज्यादातर लोगों में दिल्ली के कॉलेजों के छात्र-छात्राएँ और गर्मी के दिनों में आने वाले स्थानीय लोग शामिल हैं, जिन्हें यहाँ आकर अक्सर आराम मिलता है क्योंकि यह बावली शहर की तेज गर्मी से राहत प्रदान कराती है।

दिल्ली के वास्तुशिल्प खजाने के लिए बॉलीवुड सिनेमा कैसे वरदान बन गया?

‘पीके’ जो कि एक मशहूर हिन्दी बॉलीवुड फिल्म है, इस फिल्म ने वास्तव में ‘अग्रसेन की बावली’ जैसी सदियों पुरानी संरचना के लिए भारतीयों के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय पर्यटकों के मन में भी रुचि पैदा कर दी है। फिल्म द्वारा किया गया प्रचार न केवल ‘अग्रसेन की बावली’ के लिए बल्कि दिल्ली की सभी बावलियों के लिए फायदेमंद साबित हुआ है। ‘अग्रसेन की बावली’ जैसी अन्य संरचनाओं में से कुछ संरचनाएं पिछले कुछ वर्षों में गायब हो गई हैं, जबकि कुछ संरचनाएं अत्यन्त खराब दशा में हैं और कुछ ऐसी संरचनाएं भी हैं जिन पर ध्यान देने की सख्त आवश्यकता है। ‘अग्रसेन की बावली’ जो पुरानी दिल्ली का सबसे पुराना स्मारक है, जो अपने प्रकार के स्मारकों में से सबसे अच्छे संरक्षित नमूने के तौर पर देखा जा सकता है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) ने इसे संरक्षित रखा है – एक पुरानी तस्वीर जो रघु राय द्वारा ली गई थी जो दर्शाती है कि इसे बनाने में शरीर द्वारा की जाने वाली कड़ी और सराहनीय मेहनत, काफी प्रशंसनीय है। 1970 के दशक में ली गई ऐसी ही एक तस्वीर यह दिखाती है कि उस समय यह सीढीनुमा कुंआ पूरी तरह पानी से भरा हुआ था।

यह कहाँ स्थित है?

‘अग्रसेन की बावली’ कनॉट प्लेस में हेली रोड के निकट स्थित एक संकीर्ण स्थान, हैरो लेन में स्थित है। ‘अग्रसेन की बावली’ से इंडिया गेट दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित है और यहाँ से जंतर मंतर की दूरी 1.5 किमी है। इस प्रकार,  दिल्ली की सभी बावलियों में से, यह एक मात्र ऐसी बावली है जहाँ सबसे आसानी से पहुँचा जा सकता है। यह स्मारक सुबह 7 बजे से शाम 6 बजे तक खुला रहता है और यहाँ आने के लिए किसी प्रकार के प्रवेश शुल्क की आवश्यकता नहीं होती है।

क्या बावली को ढूंढना मुश्किल है?

अगर आप बावली के बारे में पता लगाना चाहते हैं तो आपको उसके प्रति जिज्ञासु होने की जरूरत है, इसके साथ-साथ आप उन सदियों पुरानी संरचनाओं और आसपास की ऊंची-ऊंची इमारतों की भीड़ का शुक्रिया अदा कर सकते हैं, जो आपको इस बावली तक ले जाने में मददगार साबित होती हैं। यही कारण है कि अगर आप पहली बार इस स्थान पर आते हैं और इसे ढूंढने का प्रयास करते हैं तो आपको यह जानकर आश्चर्य होगा  कि बहुत से लोग नहीं जानते कि यह वास्तव में कहाँ स्थित है। हालाँकि, बहुत से लोग कई सालों तक इस बावली के आस-पास काम कर चुके हैं। बावली तक आसानी से पहुँचने के लिए आप बाराखंबा रोड मेट्रो स्टेशनों और जनपथ का सहारा ले सकते हैं। आप मध्य दिल्ली के किसी भी बड़े होटल से पैदल चलकर आसानी से बावली तक पहुँच सकते हैं।

क्या यह उग्रसेन की बावली है या फिर अग्रसेन की बावली है?

सरकारी तौर पर इस संरचना को अग्रसेन की बावली कहा जाता है, क्योंकि बावली के बाहर लगी पट्टिका – जो कि लाल बलुए पत्थर से बनी है – बाहर से आने वाले सभी आगंतुकों को इसके विषय में जानकारी प्रदान करती है। हालाँकि, पिछले कई वर्षों से ‘अग्रसेन की बावली’ को इस नाम के अलावा कई अन्य नामों से भी जाना जाता रहा है। भारत के राष्ट्रीय अभिलेखागार के नक्शे के अनुसार -1868 में, इस स्मारक का निर्माण ब्रिटिश सरकार द्वारा किया गया था – इस स्मारक को ‘ओजर सेन की बोवली’ के रूप में सूचीबद्ध किया गया है। इस बावली का नक्शा इसके ढाँचे के उत्तर-पश्चिमी दिशा की ओर एक और इसी के समान संरचना दिखाता है।  यह संरचना 1911 में दिल्ली में शुरू हुए शहरी विस्तार के बाद धीरे-धीरे गायब हो गई। यही वह समय था, जब ब्रिटिश सरकार ने ब्रिटिश भारत की राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली में स्थानांतरित कर दिया था।

उत्पत्ति और इतिहास

‘अग्रसेन की बावली’ की बनावट और वास्तु संबंधी विशेषताओं को देखकर ऐसा प्रतीत होता है, जैसे कि यह लोदी युग के दौरान या फिर तुगलक वंश के दौरान बनाई गई होगी। हालाँकि, आदर्श लेख यह कहते हैं कि महाराजा अग्रसेन (कुछ सम्राटों के अनुसार) के द्वारा ‘अग्रसेन की बावली’ का निर्माण करवाया गया था। ऐसा कहा जाता है कि महाराजा अग्रसेन महाभारत काल के दौरान अगरोहा शहर में रहते थे। जो वर्तमान समय में हरियाणा राज्य के एक प्राचीन शहर के नाम से जाना जाता है। अग्रसेन का जन्म संभवतः 3124 ईसा पूर्व हुआ था या भगवान कृष्ण के जन्म के समकालीन माना जाता है। बावली के पश्चिमी कोने में एक छोटी मस्जिद भी बनी है। असल में इस मस्जिद की छत नहीं है – कुछ पुरानी तस्वीरों और अभिलेखों में भी इस मस्जिद की संरचना को उसी तरह दिखाया गया है। इस मस्जिद के स्तंभों में कुछ ऐसे विशेष लक्षण और रंग रूप उभरे हुए हैं, जो कि बौद्ध काल की कुछ असाधारण संरचनाओं जैसे चैत्य में प्रयुक्त विभिन्न वास्तुकलाओं से मेल खाते हैं।

क्या यह प्रेतवाधित है?

‘अग्रसेन की बावली’ की भयावहता के बारे में कई कहानियां सुनने को मिलती हैं और ऐसा कहा जाता है कि यहाँ का काला पानी लोगों को आत्महत्या करने के लिए प्रेरित करता है। हालाँकि, ऐसी बातों की सच्चाई का पता लगाना बहुत मुश्किल है। वास्तव में इस बावली में पर्याप्त पानी नहीं है और जो थोड़ा बहुत पानी है वह काला नहीं है। तथापि, एक जमाने में इस सीढीनुमा कुएँ के सबसे छोटे हिस्से से सैकड़ों नहीं बल्कि हजारों की तादात में चमगादड़ों के घर थे। अगर आप आज भी ‘अग्रसेन की बावली’ में जाते हैं और सीढीयों से नीचे उतरते हुए सीढीनुमा कुएँ के भीतर प्रवेश करते हैं, तो आप बावली में रहने वाले चमगादड़ों द्वारा किया जाने वाला शोर सुन सकेगें। हालाँकि, 2007 में मीडिया द्वारा मिली एक सूचना के अनुसार इस बावली में आत्महत्या की एक घटना हुई थी। उस समय पानी की गहराई 4 से 5 फीट रही होगी। इन सभी कहानियों ने ‘अग्रसेन की बावली’ को अत्यन्त लोकप्रिय बना दिया है और इस बावली ने स्थानीय लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है।