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धारा 377 रद्द: समलैंगिकता अब अपराध नहीं

September 7, 2018
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धारा 377 रद्द: समलैंगिकता अब अपराध नहीं

“इतिहास एलजीबीटी समुदाय द्वारा सहे गए कष्टों के लिए क्षमा प्रार्थी है”

-न्यायाधीश इंदु मल्होत्रा

6 सितंबर 2018 की सुबह, हमारे देशवासियों के लिए शायद सबसे चमकदार सुबह के रूप में आई। लेकिन विडंबना यह है कि कुछ ही साल पहले इस समुदाय को “मामूली अल्पसंख्यक” कहा जाता था। सुप्रीम कोर्ट द्वारा, एक ऐतिहासिक और बहुप्रतीक्षित निर्णय में धारा 377 के प्रावधान को रद्द करने का फैसला, 6 सितबंर को दोपहर से पहले ही सुना दिया गया था।

वे लोग, जो इस वर्षों पुराने कानून के खिलाफ लड़ रहे थे, ने नम आँखों और शोर-शराबे  के साथ कानून का स्वागत किया। इस खुशी के जश्न में शामिल होने के लिए एलजीबीटीक्यूआईए + समुदाय और सीआईएस-विषमलैंगिक लोग समान रूप से एक साथ आए। समलैंगिकता अब गैर-कानूनी नहीं है।

धारा 377 के विरुद्ध विवाद

भारत के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के नेतृत्व में पांच न्यायाधीशों की खंडपीठ ने 6 सितंबर को सर्वसम्मति से यह निर्णय दिया। सुप्रीम कोर्ट ने 17 जुलाई को सभी पक्षों की बहस को सुनकर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। उन लोगों के लिए जो नहीं जानते हैं, कि भारतीय दंड संहिता की धारा 377 वर्ष 1861 में प्रस्तावित की गई थी। वास्तव में, यह समलैंगिकता सहित यौन गतिविधियों को “प्रकृति के नियमों के विरुद्ध” अपराधी बनाती हैं।

वर्ष 2001 में धारा 377 को कानून के तहत अपराध होने पर विवाद शुरू हुआ, जब एक गैर-सरकारी संगठन नाज फाउंडेशन ने, जो मुख्य रूप से एचआईवी / एड्स पर काम करता है, ने धारा 377 के खिलाफ दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिका दायर की। आठ साल बाद, उसी अदालत ने धारा 377 को व्यक्तियों के मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के रुप में मानते हुए इसे निरर्थक बताया। इस ऐतिहासिक निर्णय का, हालांकि कई लोगों ने स्वागत किया, लेकिन दुर्भाग्यवश केवल कुछ समय के लिए ही। 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली कोर्ट के फैसले को, यह कहते हुए कि भारत में, एलजीबीटीक्यूआईए + समुदाय एक “मामूली अल्पसंख्यक” था, रद्द कर दिया।

इसलिए, धारा 377 प्रभावशाली रुप में वापस आई, लेकिन विरोध और चर्चा की लहर पहले ही शुरू हो चुकी थी। हाल के वर्षों में, आंदोलन ने अधिक प्रभावी रुप ले लिया।

असंवैधानिक घोषित करना

जब समलैंगिकता को एक बार फिर 2009 में असंवैधानिक घोषित किया गया था, तो सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि यह न्यायपालिका का काम नहीं था, बल्कि यदि सरकार चाहे तो आइपीसी की धारा 377 को खत्म करने पर पुनर्विचार कर सकती है। हालांकि, अभी 2018 में, पीठ ने कहा कि यदि मौलिक अधिकारों का हनन हुआ तो हम सरकारी रुख का इंतजार नहीं करेंगे।”

स्वाभाविक रूप से, 6 सितंबर 2018 का दिन, कई लोगों के लिए आशाएं लेकर आया। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए, धारा 377 पर निर्णय देना सबसे बड़े परीक्षणों में से एक के रूप में था। मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ का नेतृत्व किया, जैसी कि उम्मीद थी धारा 377 के प्रावधानों को रद्द कर दिया गया, जिन्होंने पहले वयस्कों के बीच समलैंगिक सम्बन्धों को अपराधिक बना दिया था। लंबे समय के इंतजार के बाद, न्यायाधीश पुराने कानून के अस्वीकृति शब्द को मंजूरी देने के लिए चौकन्ने थे, जिनका उपयोग पिछले 157 वर्षों में निर्दोष नागरिकों को दबाने के लिए किया गया था।

चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने कहा, “कोई भी अपने व्यक्तित्व से भाग नहीं सकता … हर बादल में इंद्रधनुष खोजें।” उन्होंने आगे कहा कि “आत्म अभिव्यक्ति को अस्वीकार करना मृत्यु के समान हैं”। न्याय खंडपीठ ने कानून को तर्कहीन, अरक्षणीय और एकपक्षीय कहा है।

आगे का रास्ता

संयुक्त राष्ट्र ने एक बयान में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत किया और इसे “पूर्ण मौलिक अधिकारों के लिए पहला कदम” बताया, जो कि काफी हद तक है भी। जबकि लंबे संघर्ष के बाद देश के नागरिकों को वैधानिक स्वीकृति दे दी गई है, लेकिन हमारे जैसे समाज में, सामाजिक स्वीकृति अभी भी अधूरी ही है जिसे हमें एक साथ पूरी तरह से प्राप्त करना है।

न्यायाधीशों ने कहा कि धारा 377 को रद्द करना, नागरिकों को उनकी गरिमा को वापस करने, व्यक्तिगत अधिकारों और गोपनीयता का सम्मान करने का अधिकार प्रदान करने का एक कदम था। हालांकि, अभी भी कई लोग हैं जो समलैंगिक समुदाय पर बात करने पर असहज हो जाते हैं, भेदभाव अभी भी दिखाई देता है। एक प्रमुख और लंबी लड़ाई जीत ली गई है। अन्य प्रतिक्षारत हैं।

ख़ुदपसंदी की शुभकामनाएं!

 

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धारा 377 रद्द: समलैगिकता अब अपराध नहीं।
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सुप्रीम कोर्ट द्वारा उठाए गए ऐतिहासिक कदम में, धारा 377 के पुराने प्रावधानों को रद्द कर दिया गया हैं। आईए देखते हैं कि 150+ सालों के संघर्ष का अंततः कैसा परिणाम आया है।
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