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भारत में फुटपाथ (सड़कों) पर रहने वाले बच्चे – कैसा होता है उनका जीवन?

July 10, 2018
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भारत में फुटपाथ पर रहने वाले बच्चे

हममें से अधिकांश लोग बहुत ही शौभाग्यशाली होते हैं, क्योंकि जब हम कार्यालयों, कॉलेजों और स्कूलों से घर लौटते हैं तो हमारा परिवार हमारा इंतजार बेसब्री से कर रहा होता है, जिससे हमारी दिन भर की थकान भी दूर हो जाती है। लेकिन सभी लोग इतने भाग्यशाली नहीं होते। भारत में कई ऐसे बच्चे हैं जो परिवार और घर के प्यार-दुलार से वंचित रहते हैं। हम प्रत्येक त्यौहार को बड़े धूमधाम के साथ मनाते हैं लेकिन हमें यह देखकर आश्चर्य होता है कि फुटपाथ पर रहने वाले बच्चे अपने जीवन को कैसे व्यतीत करते हैं और कैसे वे अपना त्यौहर मनाते हैं। वे बस स्टेशन, रेलवे स्टेशन, बाजार, फुटपाथ, सड़कों आदि के पास अपना पूरा जीवन व्यतीत कर देते हैं। हालांकि, फुटपाथ पर रहने वाले बच्चों का पूरी तरह से संरचित डेटा और संख्या उपलब्ध नहीं है, लेकिन अनुमान है कि भारत में 4,00,000 से अधिक बच्चे फुटपाथ पर रहकर अपना जीवन व्यतीत कर देते हैं। 1 करोड़ 80 लाख बच्चे सड़कों पर काम करते हैं और 5-20% बच्चों का उनके परिवार के साथ कोई संबंध नहीं होता है। इसके अलावा भारत दुनिया में फुटपाथ पर रहने वाले बच्चों की सबसे बड़ी आबादी वाला देश है।

यूनिसेफ द्वारा सड़कों पर रहने वाले बच्चों की परिभाषा, “कोई भी लड़की या लड़का जिसके लिए सड़क (शब्द के व्यापक अर्थ में, खाली घरों, बंजर भूमि सहित, आदि) उसकी आदत निवास और या आजीविका का स्रोत बन गया है; जो जिम्मेदार वयस्कों द्वारा संरक्षण, प्रबंध या जिम्मेदारी का अपर्याप्त कारण है”

यूनिसेफ के अनुसार फुटपाथ पर रहने वाले बच्चों में भारत के बच्चों का सबसे कमजोर समूह है।

मार्क डब्ल्यू ल्यूस्क ने फुटपाथ पर रहने वाले बच्चों पर एक शोध किया और इन्हें चार श्रेणियों में वर्णित किया:

  • सड़क पर काम करने के बाद रात में अपने परिवार में लौटने वाले बच्चे।
  • घटते परिवारिक संबंधों के साथ सड़क पर काम कर रहे बच्चे।
  • बच्चे, जो सड़क पर अपने परिवार के साथ काम करते हैं और रहते हैं।
  • बच्चे, जो सड़क पर काम करते हैं लेकिन उनके परिवार के साथ उनका कोई संबंध नहीं होता है।

भारत में फुटपाथ पर रहने वाले ज्यादातर बच्चे लड़के हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि लड़कियां बेघर नहीं हैं। बेघर लड़कियां सभी लड़कों की तुलना में वेश्यावृत्ति के मामले में और भी बुरी स्थिति के अधीन हैं। यूनिसेफ के अनुसार, लगभग 72% फुटपाथ पर रहने वाले बच्चों की आयु 6 से 12 वर्ष है और 13% बच्चों की उम्र 6 साल से कम है।

बच्चे अपना घर क्यों छोड़ देते हैं?

फुटपाथी बच्चों पर लगभग सभी अध्ययन और सर्वेक्षण बताते हैं कि फुटपाथी बच्चों की समस्या एक शहरी समस्या है और सीधे गरीबी, पारिवारिक विघटन, शहरीकरण, संसाधनों की अपर्याप्तता और बढ़ती आबादी से जुड़ा हुआ है। लेकिन परिवारिक हिंसा इसका एक प्रमुख कारक है जो इन बच्चों को अपने घरों को छोड़ने और फुटपाथ को अपना असली घर बनाने के लिए मजबूर करता है। भारतीय अध्ययन के अनुसार 1990 में सुब्रमण्यन (सुब्रमण्यम) और सोंदी ने दिखाया कि हालांकि गरीबी इसका मुख्य कारण है, लेकिन पारिवारिक कलह सबसे बड़ी समस्या है।

इससे बाल मजदूरी की समस्या शुरू हुई। बेघर बच्चे कारखानों में खतरनाक कार्य कर रहे हैं, वे अवैध रूप से होटल, कैंटीन, रेस्तरां, निर्माण स्थलों में कार्यरत हैं। परिवार के बिना उनका शोषण मालिकों द्वारा किया जाता है जो उनका दुरुपयोग करते हैं और मजदूरी का पर्याप्त भुगतान भी नहीं करते हैं। फुटपाथी बच्चों की एक और सबसे आम नौकरी यातायात सिग्नल पर कचरा उठाना, अखबारों और फूलों की बिक्री का है। वे चोरी, ड्रग-पेडलिंग, जबरन वसूली और डकैती में भी लगे हुए हैं।

इन बच्चों में तंबाकू चबाने, ड्रग और धूम्रपान करने की आदत विकसित होती है। इसके अलावा शिक्षा की कमी, खराब स्वास्थ्य, गाली-गलौज, मानसिक आघात, यौन शोषण इसका प्रमुख कारण हैं।

सभी समस्याओं में सबसे बड़ी बात यह है कि भारत में फुटपाथी बच्चों को आधिकारिक तौर पर कोई मान्यता नहीं मिली है और उनके पास उनकी उम्र और निवास का प्रमाण भी नहीं होता है। यहाँ तक कि मुफ्त शिक्षा देने वाले विद्यालय भी प्रवेश देने से पहले ऐसे महत्वपूर्ण परिपत्रों की माँग करते हैं।

एक बेघर जीवन जीने वाली बालिका की स्थिति भी दयनीय होती है। वे दलालों का शिकार बन जाती हैं और फिर वेश्यावृत्ति में डाल दी जाती हैं। 2007 में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने बताया कि भारत में 30 लाख से अधिक सेक्स वर्कर्स (दलाल) हैं और 35.47% युवा 18 वर्ष की आयु से पहले इस दुनिया में प्रवेश करते हैं।

फुटपाथी बच्चों का पुनर्वास कैसे किया जा सकता है?

एनजीओ और कुछ संगठन भारत में सड़क के बच्चों के पुनर्वास के लिए काम करते हैं। रेलवे और चेतना, दिल्ली में स्थित एक गैर सरकारी संगठन इन बच्चों के कल्याण के लिए काम करने के लिए झांसी से हाथ मिला लिया है। झांसी में लगभग 50 सड़क के बच्चे झांसी रेलवे स्टेशन पर रहते थे और 2,500 बच्चे इसके आस-पास घूम रहे थे। रेलवे इन बच्चों की निगरानी के लिए प्रत्येक रेलवे स्टेशन पर एक समिति बनाने के लिए सहमत हो गई हैं। वे इन सड़क के बच्चों के लिए शरण प्रदान करने के लिए काम करेंगे।

गुजरात के राजकोट शहर में ‘पुजित रुपानी ट्रस्ट’ ने फुटपाथ पर रहने वाले बच्चों को दीवाली के लिए दियों और अन्य ऐसी चीजों को बिक्री के लिए देकर शानदार काम किया है। इसे बेचकर जो धन इन बच्चों ने एकत्रित किया इससे इनका जीवन रोशन होने में मदद मिलेगी। जो बच्चे इस खुशी से वंचित रहते हैं, उनके लिए इस त्यौहार में यह कदम मुस्कुराहट का एक कारण होगा।

कई गैर सरकारी संगठन दिवाली पर सड़क के बच्चों को मिठाई और पटाखे देते हैं।

इस समस्या को दूर करने के लिए सड़क के बच्चों का पुनर्वास करना जरूरी है और ऐसी पहल बहुत अच्छी होती है क्योंकि ये जमीनी स्तर पर काम करती हैं। भारत को इस तरह की पहल और अभियानों के साथ आगे बढ़ना चाहिए ताकि भारत के हर बच्चे को घर और खुशी मिल सके। इसके अलावा, माता-पिता को सिर्फ जन्म देने के बजाय अपने बच्चों की बेहतर जिंदगी और उनकी परवरिश की दिशा में काम करना चाहिए।