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बाबरी मस्जिद विवाद – जरूरत है आपको जानने की

October 6, 2018
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बाबरी मस्जिद विवाद

“दूसरे देशों में मैं एक पर्यटक के रूप में जाता हूं, लेकिन भारत में मैं एक तीर्थयात्री हूं।”

– मार्टिन लूथर किंग जूनियर

हाँ, काफी लंबे समय से भारतीय सरजमीं पर कई धर्मों को बेहतर सामंजस्यता के साथ एक साथ मिलकर रहते हुए देखा गया है। यह वही विविधता थी जो भारत को पूरी दुनिया से अलग बनाती है। हालांकि, हाल ही के वर्षों में भारत शांतिपूर्ण, धार्मिक भूमि के अलावा कुछ विवादास्पद मामलों के लिए भी जाना जा रहा है। सांप्रदायिक और धार्मिक हिंसा धीरे-धीरे देश का कड़वा सच बनती जा रही है जिसका सामना देश को प्रतिदिन करना पड़ रहा है। अयोध्या में बाबरी मस्जिद को लेकर चल रहा विवाद असहिष्णुता की एक और कहानी बयां करता है, जो देश को धीरे-धीरे अपने आप में समान बनाती हैं।

बाबरी मस्जिद को लेकर लंबे समय से चल रहा विवाद अदालत में काफी समय से घसीटा जा रहा है और ऐसा लगता है कि इस विवाद का कोई अंत नहीं है। सितंबर 2018 के एक फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने 1994 के फैसले के मुद्दे को फिर से खोलने की याचिका को खारिज कर दिया था जिसमें कहा गया था कि इस्लाम में इबादत के लिए मस्जिद जाना जरूरी नहीं है। यह मुद्दा एक बार फिर से, उसी खंडपीठ के एक न्यायाधीश जस्टिस नजीर की असहमति से सुर्खियों में आया है, जिसमें उन्होंने इस फैसले के खिलाफ बोला है।

तो, क्या है बाबरी मस्जिद पर विवाद को लेकर पूरा मामला? और इतने सालों बाद भी आखिर कोई न्यायसंगत फैसला क्यों नहीं लिया जा रहा है?

एक संक्षिप्त इतिहास

अयोध्या में बाबरी मस्जिद को लेकर चल रहे विवाद और झगड़े की शुरुआती लहर पहली बार लगभग 1857 में ही शुरू हुई थी। जब मस्जिद के पूर्वी हिस्से को “राम चबूतरे” के निर्माण के लिए प्रयोग किया गया था। बाबरी मस्जिद के एक मुअज्जिन ने मजिस्ट्रेट के सम्मुख एक याचिका दायर की थी, जो कि भूमि अधिग्रहण के खिलाफ थी, इसके बाद ब्रिटिश सरकार ने तारों की एक बाड़ खड़ी की। मुस्लिमों और हिदुओं को अलग-अलग प्रार्थनाओं की इजाजत दी।

बाबरी मस्जिद को लेकर विवादों का यह सिलसिला लगातार अधिक विवादों के साथ तूल पकड़ता रहा। 1949 में इस विवाद में एक बार फिर खतरनाक मोड तो तब आया। जब कुछ अज्ञात हिंदुओं द्वारा, भगवान राम की मूर्ति को मस्जिद के अंदर स्थापित कर दिया गया। जिसके बाद काफी बवाल खड़ा हो गया, हिंदू-मुस्लिम दोनों समुदायों ने इस विवाद को लेकर मामला दर्ज करवाया और दोनों समुदायों में तनाव काफी बढ़ गया। अधिकारियों द्वारा बाबरी मस्जिद के दरवाजे को बंद करके, इसे एक विवादित स्थल घोषित कर दिया गया।

आने वाले वर्षों में भारतीय न्यायपालिका के सम्मुख कई मुकदमें और याचिकाएं दायर की गईं- जिसमें इनके मुख्य दावे – रामजन्मभूमि न्यास (1950), निर्मोही अखाड़ा (1959), और सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड (1961) थे।  हालांकि, मस्जिद के दरवाजे लगभग 40 वर्षों तक बंद रहे, अंत में फैजाबाद जिला न्यायाधीश द्वारा अदालत के आदेश के बाद 1986 में इसके दरवाजे खोल दिए गए थे।

सितंबर 2010 में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक निर्णय लेते हुए 2.77 एकड़ भूमि, जो “बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि” के नाम से जानी जाती है, को तीन समूहों – निर्मोही अखाड़ा संस्था, सुन्नी सेंट्रल बक्फ बोर्ड और रामलला विराजमान के बीच विभाजित कर दिया। हालांकि, निर्णय कुछ भी रहा हो लेकिन विवाद का अंत हो गया था। तब से, फैसले से असंतुष्ट सभी पक्ष, पुनर्याचिका के लिए काम कर रहे हैं।

बाबरी मस्जिद का विध्वंस

1984 में, विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी), एक दक्षिणपंथी हिंदू राष्ट्रवादी संगठन, ने भगवान राम के कथित जन्मस्थल पर एक मंदिर की स्थापना के लिए एक पूर्ण आंदोलन शुरू किया। बीजेपी के सदस्य लाल कृष्ण आडवाणी को इस आंदोलन का प्रमुख बनाया गया।

हालांकि मस्जिद के स्थान पर राम मंदिर बनाने की मांग, जिससे यह आंदोलन शुरू हुआ था, बढ़ती चली गई। सितंबर 1990 में, प्रसिद्ध राम रथ यात्रा – एक राजनीतिक और धार्मिक रैली शुरू की गई जिसका लक्ष्य विश्व हिंदू परिषद और उसके सहयोगियों के लिए समर्थन और आग्रह करना था -जो  बाबरी मस्जिद के स्थान पर राम मंदिर बनाने का अनुरोध कर रहे थे। यह यात्रा हिंदू राष्ट्रवादी सहयोगियों के साथ भारतीय जनता पार्टी द्वारा आयोजित की गई थी। उस समय आडवाणी, जो भाजपा के अध्यक्ष थे, ने यात्रा का नेतृत्व किया। इसे शुरूआत में पूरे देश में 10,000 किलोमीटर लंबा आंदोलन माना जाता था। हालांकि उत्तर प्रदेश में कई कर सेवकों के साथ आडवाणी को बिहार में गिरफ्तार कर लिया गया। हजारों कार्यकर्ता मस्जिद से नीचे उतरकर अयोध्या पहुंचने में कामयाब रहे। हालांकि वे विध्वंस करने में असफल रहे, लेकिन क्षेत्र में हुई सांप्रदायिक हिंसा के परिणामस्वरूप कई लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा।

6 दिसंबर 1992 को, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस), बीजेपी और वीएचपी के सदस्यों की भारी संख्या में भीड़ विवादित स्थल पर कथित रूप से प्रार्थना के लिए एकत्र हुई। हालांकि जैसे ही दिन बीतता गया, रैली उत्तेजित होने लगी, नारे और उथल-पुथल के साथ भीड़ ने शीघ्र ही अपना नियंत्रण खो दिया। ऐसा कहा जाता है कि एक अज्ञात कर सेवक ने एक भगवा ध्वज को मस्जिद के गुंबद के शीर्ष पर जाकर लगा दिया। इसके तुरंत बाद, भीड़ ने अपना नियंत्रण खो दिया। इसके बाद, उन्मत्त भीड़ द्वारा मस्जिद को भयानक तरीके से तहस-नहस कर दिया गया।

जिस वजह से लगभग 500 वर्षों के समृद्ध इतिहास के साथ एक मस्जिद का नामो निशां मिट गया जो हमारे देश की धर्मनिरपेक्ष शांति के रूप में हमेशा के लिए सबसे खराब हमलों में से एक के रूप में जाना जाता है।

इसके बाद

इस मस्जिद के विध्वंस के तुरंत बाद, संवेदनशील मामले की जांच के लिए भारत सरकार द्वारा लिबरहान आयोग की स्थापना की गई। एक सेवानिवृत्त उच्च न्यायालय के न्यायाधीश एम एस लिबरहान द्वारा संचालित एकल-पुरुष आयोग ने आखिरकार 2009 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को इसकी रिपोर्ट सौंपी। इस रिपोर्ट में आयोग को बीजेपी से कई बड़े नाम मिले जिन्होंने बाबरी मस्जिद के विध्वंस में योगदान दिया था और दोषी थे।

1992 में, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के नेतृत्व में बीजेपी पार्टी का शासन था, जिन्होंने इस घटना के कुछ ही समय बाद इस्तीफा दे दिया था। रिपोर्ट से सामने आई घटनाओं के खुलासे के लिए मुख्यमंत्री की कठोर रूप से निंदा की गई। इसके परिणामस्वरूप, आरोपियों के खिलाफ एक के बाद एक मामले अदालत में पेश किए गए और इस मामले की जाँच को सीबीआई को सौंप दिया गया।

सुप्रीम कोर्ट दशकों पुराने बाबरी मस्जिद मामले पर अपना अंतिम फैसला सुनाने जा रही है, जिसकी वजह से देश की स्थिति अक्सर तनावपूर्ण दिखाई देती है। सितंबर 2018 के फैसले के बाद, आगरा शहर में इस मामले पर चर्चा के लिए एक मुस्लिम समुदाय की बैठक का आयोजन किया गया। बैठक के प्रमुखों ने आश्वासन दिया कि वे सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को स्वीकार करेंगे, हालांकि ऐसा नहीं हुआ है।

न्याय क्या हुआ?

2010 में उच्च न्यायालय के फैसले से जुड़ा एक दिलचस्प कारक था – कि मस्जिद के केंद्रीय गुंबद पर भगवान राम की जो मूर्ति है उसे हिंदुओं द्वारा रखा गया है। एक निर्णय के अनुसार, विवादित भूमि का 2/3 हिस्सा हिंदू संगठनों को दिया गया था, जो कि अधिकांश लोगों की सहमति पर आधारित था। यह फैसला स्वाभाविक रूप से क्षेत्र में शांति लाने में असफल रहा और राम मंदिर की मांग जारी रही, न्यायिक प्रणाली ने संबंधित दोनों पक्षों को अदालत के बाहर इस विवाद को सुलझाने की सलाह दी और यहां तक कि ऐसा करने में उनकी मदद के लिए भी कहा।

लेकिन सवाल यह बना हुआ है, कि आखिर न्याय क्या किया गया? एक निराशाजनक जवाब “नहीं” है। हां, पारिभाषिक रूप से हमारे देश की न्यायिक प्रणाली ने इस मुद्दे पर कई निर्णय दिए हैं, जिसमें उनका मानना था कि भूमि का बंटवारा ही इसका एकमात्र तरीका है। हालांकि, कोई भी दिसंबर 1982 की भयावह घटनाओं को आसानी से नहीं भूल सकता। इसे केवल निरर्थक घृणा कहा जा सकता है, जिसमें एक ऐतिहासिक स्मारक को चकनाचूर कर दिया गया था। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट, जो कि उस स्थान पर एक मस्जिद होने से पहले एक मंदिर के मौजूद होने का संकेत देती है, इसकी पुष्टि के लिए एक से अधिक बार सवाल उठाए जा चुके हैं।

यहां तक कि अगर हम दिए गए निष्कर्षों को एक तरफ रख दें और मान ले कि हाँ, बाबरी मस्जिद से पहले उस स्थान पर एक मंदिर था, तो क्या वो सच बदल जा सकता है? नहीं। परिस्थितियां चाहें जैसी भी रही हों, मस्जिद को नष्ट करने से किसी भी धर्म को कोई गौरव प्राप्त नहीं हुआ बल्कि आघात लगा है। हालांकि आपकी राजनीति इस मुद्दे को और अधिक डरावना बनाती है।

यदि हम वास्तव में शांतिप्रिय, धर्मनिरपेक्ष देश में रहते हैं, तो अभी भी समय है कि हम इस तरह के मुद्दों से निपटने के लिए अपने विचारों को सकारात्मक बनाना शुरू करें।

 

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बाबरी मस्जिद विवाद- जरूरत है सब जानने की
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हाँ, काफी लंबे समय से भारतीय सरजमीं पर कई धर्मों को बेहतर सामंजस्यता के साथ एक साथ मिलकर रहते हुए देखा गया है। यह वही विविधता थी जो भारत को पूरी दुनिया से अलग बनाती है। हालांकि, हाल ही के वर्षों में भारत शांतिपूर्ण, धार्मिक भूमि के अलावा कुछ विवादास्पद मामलों के लिए भी जाना जा रहा है। सांप्रदायिक और धार्मिक हिंसा धीरे-धीरे देश का कड़वा सच बनती जा रही है जिसका सामना देश को प्रतिदिन करना पड़ रहा है। अयोध्या में बाबरी मस्जिद को लेकर चल रहा विवाद असहिष्णुता की एक और कहानी बयां करता है, जो देश को धीरे-धीरे अपने आप में समान बनाती हैं।
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