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बाल न्याय अधिनियम को सुदृढ़ बनाना

January 9, 2018
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बाल न्याय अधिनियम को सुदृढ़ बनाना

निर्भया कांड

वर्ष 2012 में भारत की राजधानी दिल्ली की एक बस में, एक 23 वर्षीय लड़की पर हमला हुआ था और कई लोगों ने मिलकर उसका बड़ी बेरहमी के साथ बलात्कार किया था, जिसके कारण भारत की बाल (किशोर) न्याय प्रणाली को इस सामूहिक बलात्कार की घटनापर काफी ध्यान आकर्षित करना पड़ा था। मीडिया ने इस लड़की को निर्भया नाम दिया था और इस घटना के बाद पूरे देश के लोगों ने बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन किया था। यह हत्याकांड बड़े पैमाने पर अपनी ओर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया का ध्यान आकर्षित करने में सफल हुआ था और यह कांड देश में महिलाओं के सुरक्षा मुद्दों का एक मुख्य बिंदु बना गया था।

इस मामले पर बाद में होने वाले विरोध प्रदर्शनों में भारत की कानून प्रक्रियाओं की समीक्षा की गई थी, जिसमें बलात्कार जैसे अपराधों की जाँच और मुकदमा शामिल था। इस मामले में शामिल छह अभियुक्तों में से पाँच को फाँसी की सजा सुनाई गई थी और छठे को, दिल्ली पुलिस द्वारा दायर आरोप पत्र में नाबालिक व सबसे क्रूर अपराधी बताया गया था। उस अभियुक्त द्वारा प्रदान किए गए पहचान पत्र (आईडी) जैसे दस्तावेजों के अनुसार, अपराध के समय उसकी उम्र 17 साल 6 महीने थी। विभिन्न समूहों द्वारा उसे एक वयस्क के रूप में पेश किए जाने और अन्य लोगों के समान ही दंड दिए जाने की माँग की गई लेकिन, इस अभियुक्त पर बाल न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2000 के तहत मुकदमा चलाया गया था। उसे सुधार की सुविधाओं के साथ तीन साल के कारावास की सजा सुनाई गई थी। फिर भी जनता में बहुत आक्रोश था, क्योंकि जनता के हिसाब से उसके इस क्रूरता पूर्ण अपराध के लिए, यह सजा काफी कम थी। इस घटना ने बाल न्याय अधिनियम की समीक्षा की और उसे संशोधित करने के लिए फिर से बाध्य कर दिया था।

हाल में हुई घटनाओं के कारण इस अधिनियम में भी कई तरह के संशोधन किए थे, जिसमें आतंकवादियों द्वारा देश में घुसपैठ जैसे कारनामों को अंजाम देने के लिए और इसके गंभीर परिणामों से बचने के लिए इस अधिनियम का दुरुपयोग किया जाता था। संशोधन से पहले, इस अधिनियम के अनुसार 18 वर्ष से कम आयु के लोगों को किसी भी अपराध के लिए अधिकतम तीन साल के कारावास की ही सजा दी जा सकती थी।

बाल न्याय अधिनियम में प्रस्तावित परिवर्तन

23 अप्रैल 2015 को, केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने बाल न्याय अधिनियम में होने वाले कई संशोधनों को मंजूरी दे दी है। इस अधिनियम में एक बड़ा बदलाव होने के कारण अनुच्छेद-7 को हटा दिया गया है। बाल न्याय बोर्ड के आकलन के आधार पर प्रस्तावित संशोधन के अनुसार, 21 वर्ष से ऊपर की आयु वाले व्यक्ति को ही एक जघन्य अपराध की श्रेणी में रखा जा सकता है, जबकि प्रतिवादी अर्थात् उस छठे व्यक्ति की आयु 16 से 18 वर्ष के बीच में थी। बाल न्याय बोर्ड द्वारा यह संशोधन 16 से 18 वर्ष की उम्र के बीच के अपराधियों (जघन्य अपराधों) के लिए प्रारंभिक जाँच की अवधि को बढ़ाने का रास्ता भी बनाता है। माता-पिता द्वारा अपने बच्चों को आत्म समर्पण करने के लिए, प्रस्तावित पुनर्विचार की अवधि में भी वृद्धि हुई है और घरेलू एवं देश की दत्तक (गोद लेने) नीतियों में भी कई बदलाव हुए हैं।

लोक-सम्मत राय

निर्भया कांड के बाद जनता की राय, बाल अपराधियों द्वारा की जाने वाली हत्या, बलात्कार और चरम हिंसा जैसे जघन्य अपराधों के लिए वयस्कों की तरह संशोधन करने के पक्ष में रही है। निर्भया के माता-पिता ने संशोधनों को स्वीकार करके केंद्रीय मंत्रिमंडल के इस कदम का स्वागत किया है। समाचार पत्रों के अनुसार लड़की के पिता ने कहा, “एक नाबालिंग को भी उसके अपराध के अनुसार सजा दी जानी चाहिए।”

संशोधन के खिलाफ आलोचनाएं

अधिनियम के संशोधन में जनता की राय के बावजूद भी कुछ आलोचनाएं शामिल हैं। अधिवक्ताओं ने अधिनियम के अपने पिछले प्रपत्र में यह दावा किया है कि यह उदारता नहीं बल्कि एक सुधार है, जो कानून हासिल करना चाहता है। ऐसी परिस्थितियों में बच्चों को आसानी से प्रभावित किया जा सकता है और बच्चे ऐसे अपराध की परिस्थितियों से निपटने में असमर्थ होते हैं, इसलिए उनके साथ सौदा करते हैं। भारत जैसे देश में बड़े पैमाने पर गरीबी, सामाजिक परिस्थितियाँ, मानव तस्करी, दुरुपयोग और शोषण होने के कारण बहुत से बच्चे आपराधिक गतिविधियों में फँस जाते हैं। इन बच्चों पर अपराधिक कदाचार के आरोप लगाए जाने के बजाय, समाज और न्याय प्रणाली को सुरक्षा की आवश्यकता पर जोर देना चाहिए है।

एक अन्य प्रमुख तर्क यह है कि 16 से 18 वर्ष के वयस्क यौवनमय कार्य करने लगते हैं, लेकिन 15 वर्ष 11 माह के बाल अपराधी के खिलाफ कोई सुरक्षा नियम नहीं है। पहली बार जब वह इस तरह के रास्ते का अनुगमन करते हैं, तो उन्हे कानून की सीमाओं का पता नहीं होता है। आलोचकों का मानना है कि बाल अपराधों के प्रति हाल ही में किया गया संशोधन, नैतिक फैसले की बजाय एक प्रति क्रिया है।

हालांकि दूसरों का मानना है कि 16 से 18 वर्ष की किशोरावस्था वाले बच्चे ऐसे गंभीर अपराधों को समझने में काफी सक्षम होते हैं और इसलिए उन्हें इस तरह के जघन्य अपराधों के मामलों में कम से कम एक वयस्क की तरह ही सजा देनी चाहिए। इससे ऐसे अपराधों का प्रयास करने वाले भावी बाल अपराधियों को सीख मिलेगी।

अन्य देशों की कानूनी प्रणाली

दुनिया के कई देशों में बाल अपराधियों (12 वर्ष के युवा) के लिए आपराधिक न्यायालयों में वयस्कों की तरह ही मुकदमा चलाया जाता है। इस तरह के विभेदीकरण के दौरान अक्सर अपराध की प्रकृति और पूर्व अभिलेखों को ध्यान में रखा जाता है।

उदाहरण के लिए अमेरिका के कई राज्यों में 10 वर्ष से अधिक उम्र के अपराधियों को एक वयस्क की भाँति सजा की अनुमति दी जाती है, जबकि अन्य राज्य किसी भी उम्र के बच्चों को हत्या जैसे मामले में वयस्क की तरह सजा देने की कोशिश करते हैं। इंग्लैंड और वेल्स में, यदि कोई लड़का वयस्क के साथ अपराध करता है, तो उस लड़के को एक वयस्क की तरह ही सजा दी जाती है। कभी-कभी एक किशोर अपराधी को हत्या, यौन उत्पीड़न और अन्य गंभीर अपराधों के मामलों में एक वयस्क की भाँति ही सजा दी जाती है।

जापान जैसे अन्य देशों में, 20 वर्ष से कम आयु के व्यक्ति को भी एक अपराधी माना जाता है। वर्ष 2008 तक, बाल अपराधियों के लिए कांगो (डीआरसी), ईरान, नाइजीरिया, पाकिस्तान, सऊदी अरब, सूडान और यमन सहित कई देशों में मौत की सजा सजा दी जाती थी, लेकिन वर्ष 2008 के बाद से पाकिस्तान और ईरान ने इस सजा को निरस्त कर दिया है।

संसदीय समिति की सिफारिशों को खत्म करके केंद्रीय मंत्रिमंडल ने बाल न्याय अधिनियम के संशोधन में मंजूरी दे दी है और भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के तहत 16 से 18 वर्ष की उम्र के बच्चों द्वारा किए गए अपराधों (जघन्य अपराधों के मामले में) के लिए सजा का प्रावधान बनाया गया है। मौजूदा बजट सत्र में अनुमोदन के लिए संसद में संशोधन किया जाएगा।