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सबरीमाला मंदिर फैसला: एक कदम महिला सशक्तिकरण की ओर?

October 4, 2018
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सबरीमाला मंदिर फैसला

सितम्बर 2018 में भारतीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा एक के बाद एक फैसलों की वजह से यह महीना काफी ऐतिहासिक रहा। मुख्य न्यायाधीश, दीपक मिश्रा, जो 2 अक्टूबर को सेवानिवृत्त हो रहे हैं, ने अभी तक कई पीठों (बेंचों) का नेतृत्व किया है और बताने की ज़रुरत नहीं कि उन्होंने कुछ विवादास्पद मामलों पर महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है।

फैसले के नवीनतम प्रकरण में, सुप्रींम कोर्ट (सर्वोच्च न्यायालय) ने केरल के सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर से प्रतिबंध हटा दिया है। एक तरफ लोगों ने इसे समान अधिकारों के लिए एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर कहते हुए इस फैसले का स्वागत किया, वहीं दूसरी तरफ, अदालत के इस फैसले को भक्तों के धर्म और उनकी आस्था में हस्तक्षेप करने के रूप में  देखा जा रहा है।

सबरीमाला मुद्दे का इतिहास

सबरीमाला मंदिर में10 से 50 साल के उम्र के बीच की महिलाओं पर मंदिर में प्रवेश करने पर लगा प्रतिबंध सदियों पुराना था। 1990 के दशक तक यह मामला अदालत में नहीं पहुँचा था। 1990 में दायर एक याचिका के बाद, 1991 में केरल की सुप्रीम कोर्ट ने मंदिर के अंदर महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध को बरकरार रखा।

2006 में, सबरीमाला मंदिर काफी सुर्खियों में रहा, कन्नड़ अभिनेत्री-राजनेता ने दावा किया था कि उन्होंने 1987 में भगवान अयप्पा के चरणों को छू कर उनके दर्शन किए, जिसके बाद काफी विवाद खड़ा हो गया था।केरल सरकार की क्राइम ब्रांच द्वारा एक आधिकारिक जांच के लिए कहा गया था, लेकिन बाद में इसे टाल दिया गया था। 1991 के बाद, 15 साल बाद, यह मुद्दा 2006 में फिर से अदालत के दरवाजे पर पहुँचा। कुछ ही समय बाद, महिला वकील के एक समूह द्वारा जनहित याचिका (पीआईएल) दायर की गई थी, जिसमें भेदभाव का हवाला देते हुए मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध हटाने की मांग की गई। यह केरल की तत्कालीन सरकार एलडीएफ द्वारा भी समर्थित था।

2016 में, इंडिया यंग लायर्स एसोसिएशन द्वारा केरल हिंदू प्लेसेस ऑफ पब्लिक वर्शिप रूल्स (1965) के नियम को चुनौती दी गई कि, एक जनहित याचिका दायर की गई थी, जिसमें कहा गया कि”जिन महिलाओं को सार्वजनिक रूप से पूजा के स्थान पर प्रवेश करने की अनुमति नहीं दी जाती है वे सार्वजनिक रूप से पूजा के किसी भी स्थान पर पूजा करने की हकदार नहीं  होंगी”। ये नियम धार्मिक स्वतंत्रता के साथ-साथ गैर-भेदभाव और समानता के संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन कर रहे थे।

क्या है फैसला?

मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अगुवाई में पांच न्यायाधीशों के खंडपीठ के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने10 से 50 साल की उम्र की महिलाओं पर मंदिर में प्रवेश को लेकर लगे प्रतिबंध को हटा दिया गया है, जिसके लिए पहले उन्हें मंदिर परिसर में प्रवेश करने से मना किया गया था। 4: 1 बहुमत के फैसले में, इस प्रतिबंध को लिंग भेदभाव के एक अधिनियम के रूप में देखा गया था। मंदिर के पुजारी इस फैसले से नाखुश थे, लेकिन उन्होंने कहा कि वे कोर्ट के इस फैसले का पालन करेंगे।

इस ऐतिहासिक फैसले के आने के साथ, सुप्रीम कोर्ट ने एक और बयान में स्पष्ट किया कि “पुरानी परंपरा की निरंतरता के लिए जैविक कारणों पर विचार नहीं किया जाना चाहिए”। विडंबना यह है कि, सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर फैसले के बादअपना पक्ष सुनाते हुए जस्टिस इंदु मल्होत्रा ने कहा,विविधता और भेदभाव के बीच एक अंतर है, और इसलिए, अदालत को धार्मिक परंपराओं में दखल नहीं देना चाहिंए।

विचारों को समझना

सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के लिए कई दशकों से चल रही लड़ाई आखिरकार, सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद समाप्त हो गई। कई लोगों ने खुशी और गर्मजोशी से इस फैसले पर प्रतिक्रिया व्यक्त की और इसे महिलाओं के अधिकारों की जीत कहा है। हालांकि, कई अन्य लोग इस फैसले के दूसरे पक्ष में हैं आश्चर्यजनक रूप से, जस्टिस इंदु मल्होत्रा की तरह, महिलाओं सहित कई अन्य लोग इस फैसले का विरोध कर रहे हैं।

उदाहरण के लिए, ‘रेडी टू वेट’ अभियान से जुडी महिलाओं ने अपने बयान में कहा है कि सर्वोच्च न्यायलय ने अपने फैसले में भागवान अयप्पा के अधिकारों को नज़रंदाज़ किया हैI यह अभियान 2016 में शुरू किया गया था, इसमें महिलाओं ने घोषणा की कि वे धार्मिक अधिकारों को बनाए रखने के लिए 50 की उम्र तय होने के बाद मंदिर में जाने के लिए इंतजार करेंगी। सबरीमाला मुख्य रूप से भगवान अयप्पा का मंदिर है जिन्हें अनंत ब्रम्हचारी माना जाता है और इसके अनुसार मंदिर में10 से 50 साल के बीच की महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी थी।

निष्कर्ष

जैसे की इस मुद्दे पर बहस तूल पकड़ रही है, इसलिए प्रस्तुत किए गए तर्कों को देखना महत्वपूर्ण है। जो लोग इस फैसले का विरोध करते हैं, के मुताबिक, मंदिर में प्रवेश प्रतिबंध को हटाने के बाद पवित्र मन्दिर एक पर्यटन स्थल के रूप में बदल जाएगा जिससे इसकी पवित्रता तार-तार हो जाएगी। हालांकि, वही लोग मंदिर के ‘उदारवादी’ प्रथाओं पर गर्व महसूस करते हैं जो मंदिर में प्रवेश करने के लिए लोगों, या बल्कि किसी भी सामाजिक वर्ग, जाति या धर्म के पुरुषों को अनुमति देते हैं। अपने स्वयं के तर्क को देखते हुए, पारिभाषिक रूप से, यह ‘स्वतंत्रता’ भी अपने विश्वास के किसी प्रकार के क्षरण के लिए अग्रणी होनी चाहिए। हालांकि, यह कोई प्रकरण नहीं है।

इस मुद्दे पर व्यक्तिगत राय देते हुए, हर किसी को इस साधारण बात को ध्यान में रखना चाहिए। कई महिलाओं के विश्वास से पता चलता है कि फैसले के बावजूद भी 10 से 50 साल के बीच की आयु पूरी होने तक महिलाएं मंदिर के अंदर पूजा-अर्चना करने के लिए इंतजार करेंगी। हालाँकि सर्वोच्च न्यायलय ने उनकी आस्था के अधिकारों को नहीं  छिना है, उसने इसे सिर्फ महिलाओं के दूसरे अनुभाग को दे दिया है। यह शायद, समान रूप से धार्मिक है, लेकिन इसकी एक विरोधाभासी राय है। अपने धर्म का अभ्यास करने का अधिकार प्राप्त करना- क्या यह हमारी आस्था के लिए खतरा नहीं होगा? इस पर गंभीरता से विचार करना होगा।

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सबरीमाला मंदिर फैसला: एक कदम महिला सशक्तिकरण की ओर?
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फैसले के नवीनतम प्रकरण में, सर्वोच्च न्यायालय ने केरल के सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर से प्रतिबंध हटा दिया है।। एक तरफ लोगों ने इसे समान अधिकारों के लिए एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर कहते हुए इस फैसले का स्वागत किया, वहीं दूसरी तरफ, अदालत के इस फैसले को भक्तों के धर्म और उनकी आस्था में हस्तक्षेप करने के रूप में  देखा जा रहा है I सवाल यह है कि कौन सा पक्ष सही है?
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