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दहेज प्रथा से होने वाली मौतें

April 20, 2018
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दहेज प्रथा से होने वाली मौतें

दहेज प्रथा एक पारंपरिक अभिशाप है जिसे न तो हमें परंपरा के रूप में स्वीकार करने और न ही आने वाली पीढ़ी को सौंपने की जरूरत है। इसे रोकने का समय अब आ गया है। तो क्या हम इसमें बदलाव कर सकते हैं? हाँ, हम वास्तव में ऐसा कर सकते हैं। लेकिन इस समस्या से निजात पाने के लिए हमें इसके पीछे छिपे कारणों को समझने की जरूरत है कि क्यों और कैसे इसने हमारे समाज में स्थान पा लिया और पीढ़ी दर पीढ़ी यह एक परंपरा के रूप में उभर कर हमारे सामने आता गया। कई भाग में, इस लेख के माध्यम से हम इस कुप्रथा पर एक नजर डालेंगे और देखेंगे कि क्या हम इस पर एक परिप्रेक्ष्य प्राप्त कर सकते हैं? और हम संभवतः कैसे कोशिश कर सकते हैं और इसमें बदलाव कर सकते हैं ?

भारत में दहेज प्रथा की उत्पत्ति –यह कुप्रथा किसने और कैसे शुरू की?

दहेज एक प्राचीन प्रथा है लेकिन यह कब और कहाँ से शुरू हुई, इसका कोई प्रमाण नहीं है। इस कुप्रथा के साक्ष्य प्राचीन बेबीलोन, प्राचीन ग्रीस और रोमन युग से प्राप्त हुए हैं लेकिन बदलते समय के आधार पर आजकल विश्व के सभी भागों में इसका प्रचलन है। हालांकि, दक्षिण एशिया, मध्य पूर्वी अफ्रीका और उत्तरी अफ्रीका में यह व्यापक रूप से निरंतर प्रचलित रही है।

पुराने समय में दहेज का मतलब कन्या पक्ष द्वारा वर पक्ष को दी जाने वाली वित्तीय सहायता थी, जो दूल्हे की मृत्यु हो जाने पर या दूल्हे द्वारा घर छोड़कर भाग जाने पर दुल्हन को दी जाती थी। यह नकदी अथवा किसी अन्य रूप में होती थी, जो माता पिता के बाद बच्चों को सौंप दी जाती थी। कई वर्षों से, इसे विवाह के माध्यम से दूल्हे की आय के स्रोत और संपत्ति निर्माण के रूप में स्वीकार किया गया और धीरे-धीरे इसका प्रभाव ऐसा हुआ कि दुल्हन की संपत्ति को दूल्हे की संपत्ति में बदलने के लिए इस पर ध्यान केंद्रित किया जाने लगा।

तो यह प्रथा अब भी चारों ओर क्यों फैली हुई है?

उत्तर- इसका उत्तर स्पष्ट है- लालच। भारत तेजी से बदल रहा है और यह भौतिक विकल्पों की विविधता है कि हमने अपनी वर्तमान पीढ़ी से कई उम्मीदें लगा रखी हैं। मध्यम वर्ग सामाजिक ढाँचे को ऊपर उठाने के लिए प्रयासरत है और दूल्हे का करियर शुरू करने के लिए शादी आसान तरीका माना जाता है। यह जटिल समस्या इसी उम्मीद से शुरू होती है। यह न केवल दूल्हे के लिए आय का एक स्रोत है बल्कि उसके भाइयों, बहनों और निश्चित रूप से माता-पिता सहित पूरे परिवार की आय की उम्मीद बन गई है। हर व्यक्ति पाई-पाई (रूपये) के लिए परेशान है। यही कारण है कि दहेज संबंधी हिंसा के मामलों में अक्सर दूल्हे के परिवार द्वारा सक्रिय उकसाहट और भागीदारी शामिल होती है।

हमें तो बेटा ही चाहिए (हम केवल एक बेटा ही चाहते हैं!)

दहेज को एक वर की प्राथमिकता के कारण और निवारण दोनों के रूप में देखा जाता है। भारत में दहेज प्रथा अब भी क्यों विद्यमान है, इसके कारणों में से शायद एक कारण यह भी है कि भारत में लड़के के प्रति सभी आकर्षित हैं। आप लड़का और लड़की की तुलना करें तो आप पाएंगे कि समाज लड़की की तुलना में एक लड़के की ओर अधिक झुकाव रखता है।

तो इस स्पष्ट वरीयता का कारण क्या हो सकता है? एक लड़की के पिता को उसकी शादी करने के लिए अपने सम्पूर्ण जीवन की बचत को खर्च करना पड़ता है, जिसमें दोनों पक्षों के रिश्तेदारों के उपहार से लेकर शादी समारोह का खर्च और उसके बाद ताबूत की अंतिम कील की तरह दहेज भी शामिल है। यह इस भार की असली विचारधारा है कि अधिकांश माता-पिता एक लड़की को बिल्कुल नहीं पसंद करते हैं। यह ऐसा समाज है जहाँ पिता को अपनी लड़की को पढ़ा-लिखाकर केवल एक दिन होने वाले शादी समारोह में खोने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है, समाज को हर पिता से यही उम्मीद रहती है।

बेटे से वंश चलता है! (बेटा अगली पीढ़ी तक वंश का नाम पहुँचाता है!)

इसलिए यहाँ पर एक तर्क है। अगर वंश का नाम चलाने के लिए निश्चित रूप से बेटे की आवश्यकता होती है और उसकी कामना की जाती है, तो क्या लड़की के परिवार वालों को लड़की देने के बदले दूल्हे को दहेज की मांग करने के बजाय लड़की के परिवार की क्षतिपूर्ति नहीं करनी चाहिए? विचार कीजिए।

लेकिन, हम दोनों ओर से मुआवजे की बात क्यों सोच रहे हैं? क्या यह एक अद्भुत घटना नहीं है कि किसी पराए घर की लड़की परिवार में शामिल होती है और परिवार की तरक्की के लिए हर प्रकार की मदद करती है? क्या यह स्वयं में एक इनाम नहीं है? यह एक उलझन की बात प्रतीत होती है। अब समय है इसका सामना करने का और हमारी सोच को बदलने का। अगर हम अपने जीवन में एक ऐसा व्यक्ति बनना चाहते हैं जिसे एक महिला पसंद करे तो हम महिला का समर्थन कर सकते हैं लेकिन उसे मात्र आजादी प्रदान करने वाली एक वस्तु नहीं मान लेना चाहिए।

आप कहाँ पर रेखा खींचते हैं?

दहेज माँगना अथवा यों कहें कि किसी को भावनात्मक तथा शारीरिक कष्ट देना बहुत ही बुरी बात है। लालच तथा अनैतिकता के बीच एक पतली रेखा है। लोगों को जिस चीज की जरूरत है, वह चीज दुल्हन के परिवार से दहेज में माँगते हैं और दूल्हे का पूरा परिवार इसमें शरीक होता है, ऐसा करके तो लोग हद ही पार कर रहे हैं। सामाजिक बुराइयाँ न केवल मारपीट और भावनात्मक ब्लैकमेल की हदों को पार करके प्रत्यक्ष शारीरिक शोषण और यातना की ओर अग्रसर हो रही हैं बल्कि अब तो दुल्हनों की मौतों की संख्या भी बढ़ रही है। क्या यह समाज के निष्क्रिय विरोध से एक सक्रिय दिशा की ओर जागृत करने वाली पुकार नहीं है?

तो यह कितनी हानिकारक है?

आंकड़ों को देखें……. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो रिपोर्ट 2011 (गृह मामलों के न्यूनतम) के अनुसार, दहेज संबंधित मामलों में 35.8 की सजा दर के साथ 8,618 मौतें हो चुकी हैं। पति और रिश्तेदारों द्वारा की गई क्रूरता के कारण 20.2 की सजा दर के साथ 99,135 मौतें हो चुकी हैं।

2011 के आंकड़ों से पता चलता है कि प्रत्येक पांच मिनटों में एक मामला दर्ज किया गया, जिसमें पति और रिश्तेदारों की क्रूरता के मामले शामिल थे। प्रत्येक 61 मिनटों में एक दहेज संबंधी मौत दर्ज की गई। प्रत्येक 79 मिनटों में दहेज निषेध अधिनियम (डीपीए) के तहत एक मामला दर्ज किया गया। इसका अहसास कीजिए… यह सत्य बात है!

दहेज प्रथा से होने वाली मौतें

भारत में दहेज से होने वाली मौतें- विरोध करने और कलह को भांपने का समय

क्या गलत हो रहा है?

काफी गलत हो रहा है, आइए हम उन कुछ बिंदुओं पर एक नजर डालें, जिन पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है:

कानून

दहेज निषेध अधिनियम- 1961 में कई संशोधन किए गए हैं लेकिन इसके विवेचन और कार्यान्वयन में बहुत से क्षेत्र अपूर्ण हैं और इनमें तत्काल सुधार करने की आवश्यकता है। विकासशील सामाजिक और नैतिक मूल्यों को ध्यान में रखते हुए कानूनों को लगातार विकसित करने की आवश्यकता है। इस समय कानूनों में बदलाव समाज के लिए बहुत मूल्यवान सिद्ध हो सकता है।

पुलिस की भूमिका

दहेज मामलों में पुलिस की भूमिका एक प्रमुख मुद्दा है। पुलिस कर्मी भी ऐसे ही समाज से संबंधित होते हैं जहाँ यह समस्या भी मौजूद होती है। प्राचीन विचारधारा, शिक्षा की कमी, सामाजिक जागरूकता की कमी, परिवर्तन की अयोग्यता, कानून की समझ और इसके बारे में व्यक्तिपरक व्याख्या की कमी, लैंगिक भेदभाव और अधिकांश संसाधनों की कमी आदि कुछ ऐसे कारण हैं जो पुलिस को एक स्वतंत्र और निष्पक्ष तरीके से अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने से बाध्य करते हैं।

दहेज के मामले की शिकार हुई किसी भी लड़की के पिता-माता से पूछो कि उन्हें स्थानीय पुलिस थाने में यह मामला दर्ज कराने के लिए कितना संघर्ष करना पड़ा था। अक्सर यह देखा जाता है कि स्थानीय पुलिस स्वयं रिपोर्ट दर्ज करने से नजरें चुराती है या दूल्हे के परिवार के साथ समझौता करने के लिए पीड़िता के माता-पिता को प्रभावित करने की कोशिश करती है। पुलिस के साथ इस समस्या को अकेले प्रक्रियाओं के माध्यम से संबोधित नहीं किया जा सकता है। हमारे स्कूली पाठ्यक्रम पर फिर से ध्यान देने और इसे पुनः परिभाषित करने की अत्यंत आवश्यकता है। जब तक पुलिसकर्मी उन कर्मचारियों में शामिल नहीं  हो जाते, जो शिक्षा की एक संवेदनशील प्रणाली के माध्यम से होकर गुजरे हैं, तब तक पुलिस स्तर पर यह समस्या समाप्त होने वाली नहीं है।

न्यायिक प्रक्रिया का अत्यन्त धीमा होना

दहेज मामले को दर्ज कराना तथा इसे न्याय दिलवाने के लिए न्यायिक लड़ाई लड़ना एक डरावने स्वप्न जैसा है जिसे कोई भी सहना नहीं चाहता है। जिनकी बेटी को दहेज के लिए मार दिया गया हो या परेशान किया गया हो उनमें से कुछ आर्थिक रूप से कमजोर पृष्ठभूमि वाले अशिक्षित या अर्द्ध-साक्षर व्यक्तियों को न्यायिक प्रक्रिया की कोई समझ नहीं होती है।

न्यायिक प्रक्रिया की समझ के बिना आर्थिक रूप से कमजोर पृष्ठभूमि वाले सभी अशिक्षित या अर्ध-साक्षर व्यक्ति की कम से कम और जिनकी बेटी को अभी भी दहेज के लिए मार दिया गया हो या उत्पीड़ित किया गया हो। यदि दहेज प्रथा की बुराई को समाप्त करना है, तो सम्पूर्ण न्यायिक सुधार आवश्यक हैं। वैसे सुधार तो काफी पहले समय से ही किये जा रहे हैं परन्तु उम्मीद है कि मौजूदा सरकार में लोकतंत्र के इस महत्वपूर्ण स्तंभ को सुधारने की राजनीतिक इच्छा और भी प्रबल होगी।

रूढ़ियाँ और पद्धतियाँ

यह एक ऐसी सभ्यता है जो लगभग 5000 वर्षों से विकसित और प्रचलित हुई है, जिसने हमारे देश की शक्ति को सामाजिक, धार्मिक और नैतिक मूल्यों के आधार पर गुजरते समय में लोगों को एकता के सूत्र में पिरोए रखा है। परन्तु आज यह समस्या है कि बहुत से ऐसे रीति-रिवाज, अनुष्ठान और मान्यताएं जो हमारी शक्ति रही हैं, वही कई सामाजिक बुराइयों का मूल कारण भी रही हैं।

वैवाहिक रीति पर एक नजर : हमेशा से भारत में विवाह न केवल दो लोगों बल्कि दो परिवारों का मिलन माना जाता रहा है। जबकि हम सभी विवाह की अवधारणा का स्वागत करते हैं, परन्तु समारोहों में पारंपरिक अनुष्ठानों को बनाए रखने के लिए प्रयोग की जाने वाली लागत ने सामाजिक दबाव के रूप में केवल समस्याओं को बढ़ाया है।

क्या हमें अपनी शादी की घोषणा करने के लिए इतने सारे लोगों को खिलाने की जरूरत है? दुल्हन के परिवार पर (साथ ही दूल्हे के परिवार वाले शादी के बाद होने वाले कार्यों को भी) पर एक बड़ा वित्तीय बोझ लादने के अलावा इससे कौन सा उद्देश्य पूरा होता है?

जैसा कि हम समझते हैं कि विवाह एक जश्न मनाने वाली प्रकिया है और हमें जश्न में अपने परिवार को शामिल करना होगा। लेकिन क्या यह अतिरिक्त लागत लगाए बिना भी किया जा सकता है?

समस्या यह है कि हमें इन मुद्दों पर भाषण देना बहुत अच्छा लगता है, लेकिन जब हमारी अपनी शादी की बात आती है तो हम फिर से उन्हीं चीजों की योजना बनाते हैं, जैसे कौन से गहने खरीदने हैं? कितने लोग आएंगे? निकटतम रिश्तेदार, मित्र या सहकर्मी द्वारा आयोजित किए गए समारोह की तुलना में हम अपने समारोह को और भी अधिक आकर्षक कैसे बना सकते हैं? हम इसे कहाँ आयोजित करेंगे? हम अपने हनीमून के लिए कहाँ जाएंगे? क्या हम केवल इतनी ही योजनाएं बनाते हैं और कहते हैं अब आगे और कुछ नहीं? विचार कीजिए!

यदि धन उपलब्ध है, तो संयुक्त रूप से (दूल्हा और दुल्हन) पैसा निवेश करने की योजना क्यों नहीं बनाते हैं जो भविष्य में हनीमून की अवधि खत्म होने के बाद मदद करेगी, लेकिन ऐसा न करने पर दिन-प्रतिदिन अस्तित्व को बनाए रखने के लिए संघर्ष शुरू हो जाता है।

अरे! आइए हम जश्न मनाने का एक शानदार तरीका समझते हैं, यह सभी के लिए फायदे की होगी।

शिक्षा – खेल परिवर्तक

अंत में मैंने सबसे महत्वपूर्ण उपाय ‘शिक्षा’ की तरफ संकेत किया है, एकमात्र शिक्षा ही महत्वपूर्ण बदलाव ला सकती है। हमें तुरंत अपने शैक्षिक तंत्र की पुन: समीक्षा करने की जरूरत है और हमें दीर्घकालिक कार्यकाल में सामाजिक मुद्दों को संबोधित करने के लिए राष्ट्रीय कार्यक्रमों को क्रियान्वित करवाने की आवश्यकता है। उपर्युक्त प्रत्येक हितधारक एक ही समाज से संबंधित है परन्तु जब तक शिक्षा की एक उचित प्रणाली उपलब्ध नहीं होती है, जो सामान्य न्यूनतम मूल्यों को सिखाती है, जिसे हम सभी समाज में साझा कर सकते हैं, तब तक हम एक प्रगतिशील समाज का निर्माण करने और इसे बनाए रखने में सक्षम नहीं होंगे, जो बदलते समय को ध्यान में रखते हुए स्वस्थ तरीके से विकसित होता है।

शिक्षा को दो स्तरों पर उपलब्ध कराया जाना चाहिए। बच्चों को अपनी प्राथमिक शिक्षा अपने घरों में अपने माता-पिता से और स्कूल प्राप्त होती है। इसलिए जब तक हम इस जिम्मेदारी का एहसास पूरी तरह से न कर लें और घर पर सिखाई गई नैतिक शिक्षा पर ध्यान केंद्रित न कर लें तब तक हम उस समाज का निर्माण नहीं कर पाएंगे जो दहेज जैसी पारंपरिक सामाजिक बुराइयों को न स्वीकार करे। विद्यालय को न सिर्फ अच्छे छात्रों का निर्माण करके बल्कि छात्रों  को विकासशील नागरिकों में परिवर्तित करके अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी।

भारत में दहेज प्रथा के अनुपालन के लिए आप किसको दोषी ठहरा रहे हैं? यह हमारे ही घरों से प्रारंभ होती है। बहुत से माता-पिता अपने लड़के की शादी में दहेज की मांग करते हैं, लेकिन जब उनकी अपनी बेटी का विवाह होता है तो उन्हें भी इस नरक का शिकार होना पड़ता है। दहेज के हर मामले के पीछे कुछ हद तक सास या ननद की भी भूमिका होती है।

मनोवृत्तियाँ और धारणाएँ आसानी से नहीं बदलती है और शिक्षा तथा जागरूकता इन्हें परिवर्तित करने का एकमात्र तरीका हैं। समय के साथ-साथ ये प्रभावी होने लगते हैं। अब समय आ गया है जब हमें जागरुक होना है और इस अभिशाप को मिटाना है। अगर हम आज अपनी बेटियों को जागरुक नहीं करते हैं, तो इसका अगला शिकार हमारी बेटी भी हो सकती है। इसलिए इस पर विचार करना होगा !