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ग्लोबल वार्मिंग और भारत पर इसका प्रभाव

March 22, 2018
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ग्लोबल वार्मिंग और भारत पर इसका प्रभाव

मानव गतिविधियों के कारण ग्रीनहाउस गैसों में बढ़ोत्तरी हुई है, जो ग्लोबल वार्मिंग का कारण बनती हैं। ग्लोबल वार्मिंग प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से पर्यावरण और सामाजिक परिवर्तन के लिए उत्तरदायी होती है। पृथ्वी के वातावरण में लगातार हो रहे औसत तापमान में वृद्धि को ग्लोबल वार्मिंग कहा जाता है, जो वैश्विक जलवायु परिवर्तन का कारण बनती है। पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव से लगाकर दक्षिणी ध्रुव तक, अर्थात् प्रत्येक स्थान पर तापमान बढ़ रहा है और वास्तव में यह तापमान 1 डिग्री फारेनहाइट (0.8 डिग्री सेल्सियस) से भी अधिक है, जो विशेष रूप से ध्रुवीय क्षेत्रों में संवेदनशील हो गया है। ग्लोबल वार्मिंग का सबसे अधिक संबंधित परिणाम यह है कि गर्मी बढ़ने के कारण ग्लेशियर और समुद्री बर्फ पिघलने लगी है, जिससे वर्षा का प्रतिरूप भी अस्थिर हो रहा है। तितलियों और लोमड़ियों आदि जैसे जानवर और अल्पाइन जैसे कुछ पौधे भी उत्तर के ऊँचे और ठंडे स्थानों की तरफ पलायन कर रहे हैं।

दुनियाभर में बर्फ पिघल रही है। विशेष रूप से दो ध्रुवीय क्षेत्रों पहाड़ी ग्लेशियर, आर्कटिक सागर की बर्फ पिघल रही है और यह बर्फ चादर की तरह पश्चिम अंटार्कटिका और ग्रीनलैंड को ढक रही है। शोधकर्ताओं का कहना है कि इसकी वजह से अंटार्कटिका के इडली पेंगुइन की संख्या में काफी कमी आई है। विश्व स्तर पर, वर्षा (वर्षा और हिमपात) के औसत में वृद्धि हुई है और पिछली शताब्दी से समुद्र स्तर में तेजी से वृद्धि देखने को मिली है।

सूखा और तूफान में इजाफा

यदि सदी के अंत तक या इससे आगे ग्लोबल वार्मिंग जारी रहती है, तो उम्मीद की जाती है कि समुद्र का जलस्तर 7 से 23 इंच (18 से 59 सेंटीमीटर) तक बढ़ जाएगा। इसके अलावा यदि ध्रुवीय क्षेत्रों में बर्फ का पिघलना जारी रहता है, तो इससे भी समुद्र का जलस्तर 4 से 8 इंच (10 से 20 सेंटीमीटर) तक और बढ़ जाएगा। इससे बाढ़ और सूखे जैसी घटनाओं में भी इजाफा हो सकता है और हरिकेन जैसे अन्य तूफान और अधिक जोरदार और प्रभावशाली हो जाएंगे। इससे मच्छरों द्वारा फैलने वाली मलेरिया जैसी व्यापक बीमारियों में वृद्धि हो सकती है और ताजे पानी की उपलब्धता में काफी कमी आएगी।

अगर ग्लोबल वार्मिंग जारी रहती है, तो पारिस्थितिक तंत्र में एक बड़ा बदलाव देखने को मिलेगा। वह प्रजातियाँ, जो एक-दूसरे पर पूरी तरह आश्रित हैं जल्द ही पूरी तरह से समकालीन बनने से वंचित हो जाएंगी। उदाहरण के लिए, परागशील कीट के सक्रिय होने से पहले ही पौधों में कलियाँ खिलने लगेंगी। जो प्रजातियाँ उत्तर की ओर जाने में सक्षम नहीं होंगी, वह विलुप्त हो सकती हैं तथा उत्तर के क्षेत्रों में जाने वाली प्रजातियाँ अपने अस्तित्व को बनाए रखने में कामयाब हो सकती हैं।

भारत दक्षिण एशिया का एक बहुत बड़ा देश है, जो उत्तरी गोलार्ध में स्थित दुनिया का दूसरा सबसे अधिक आबादी वाला देश होने का अधिकार रखता है। भारतीय समुद्र-तट की रेखा बहुत लंबी है, जो हिंद महासागर, अरब सागर और बंगाल की खाड़ी को स्पर्श करती है। भारत के पड़ोसी देश नेपाल, चीन, भूटान, बर्मा, बांग्लादेश और पाकिस्तान हैं। एक विशाल देश होने की वजह से भारत में तापमान भी उच्च रहता है। भारत के मौसम की स्थिति का निर्धारण करने में थार के रेगिस्तान की चिल-चिलाहट भरी गर्मी और हिमालय की शीतल ठंड एक बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। हिमालय क्षेत्र महाद्वीपीय एशिया की ठंडी-ठंडी हवाओं को चलने से रोकने के कारण एक बाधा के रूप में कार्य करता है, जिसके कारण भारत में ग्लोबल वार्मिंग में वृद्धि हुई है। वहीं दूसरी तरफ थार का रेगिस्तान, गर्मी में मानसूनी हवाओं को आकर्षित करता है, जो भारत में मानसून के मौसम के लिए जिम्मेदार हैं। हालांकि, भारतीय उपमहाद्वीप को एक उष्णकटिबंधीय जलवायु का संग्रहकर्ता माना जाता है।

भारत और दक्षिण पूर्वी एशिया के अन्य देशों में 21 वीं शताब्दी के दौरान वैश्विक स्तर से ऊपर ग्लोबल वार्मिंग सहन करने की आशंका जताई जा रही है। भारत को तापमान के एक बहुत बड़े मौसमी बदलाव का सामना करना पड़ेगा। हाल के वर्षों में भारत में चलने वाली गर्म हवाओं में तेजी से वृद्धि होगी, जो गर्मी के दिनों और रात के समय में गर्म तापमान के साथ एक लंबी अवधि तक जारी रह सकती हैं। इन गर्म हवाओं के कारण, गर्मियों के मानसून में बहुत अधिक बदलाव होंगे, जो भारतीय कृषि क्षेत्र को भी काफी प्रभावित करेंगे।

भारतीय जलवायु पर ग्लोबल वार्मिंग का एक बहुत ही खतरनाक प्रभाव पड़ता है। भारत के आपदाग्रस्त देश होने के कारण, इसके अधिकांश राज्य भी काफी मुसीबत में हैं। वर्ष 2007-2008 में किए गए शोध के अनुसार, भारत सबसे अधिक भीषण आपदाओं का सामना करने के मामले में तीसरे स्थान पर है। ग्लेशियरों के पिघलने और समुद्र के स्तर में वृद्धि होने के कारण यह अनुमान लगाया गया है कि बाढ़, तूफान और आँधी जैसी घटनाओं में बढ़ोत्तरी होने के साथ-साथ भारतीय जलवायु गंभीर रूप से प्रभावित होगी। इससे भारतीय खाद्य सुरक्षा स्थिति को गंभीर सूखे की पुनरावृत्ति और खेती योग्य भूमि को, तबाह कर देने वाली विनाशकारी बाढ़ का सामना करना पड़ सकता है। तिब्बती पठार के बढ़ते तापमान के कारण हिमालय ग्लेशियर लगातार पिघल रहे हैं, जिसके परिणामस्वरूप गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र और अन्य प्रमुख नदियों के जल प्रवाह में कमी आई है। इसके परिणामस्वरूप, इन नदियों पर निर्भर असंख्य किसानों की आजीविका खतरे में है।

कृषि उत्पादन पर प्रभाव

यह अनुमान लगाया गया है कि यदि ग्लोबल वार्मिंग अधिक जलवायु आपदाओं के साथ लगातार जारी रहती है, तो भारतीय सकल घरेलू उत्पादन में लगभग 9 प्रतिशत की कमी हो जाएगी, क्योंकि इससे मुख्य फसलों के उत्पादन में 40 प्रतिशत तक कमी आ सकती है। यह भी अनुमान लगाया गया है कि भारत के तापमान में दो प्रतिशत वृद्धि होने से लाखों लोग अपने स्थान से वंचित हो जाएंगे।

बांग्लादेश के बाद, भारत दुनिया में सबसे ज्यादा बाढ़ से पीड़ित देश है, जिसकी करीब 40 लाख हेक्टेयर जमीन बाढ़ के खतरे की चपेट में है। भारत के सबसे अधिक बाढ़ से पीड़ित राज्य उत्तर प्रदेश, बिहार, असम, पश्चिम बंगाल, गुजरात, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब तथा जम्मू और कश्मीर हैं।

ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव कुछ इस कदर हो गया है कि शुरुआत में तेजी से बारिश होती है, जबकि कुछ समय बाद यह धीमी हो जाती है। परिणामस्वरूप, भारत को पिछली कुछ शताब्दियों में गंभीर सूखा का सामना करना पड़ा है। चूँकि भारत कृषि उत्पादकता के लिए स्थायी और अच्छे मानसून पर निर्भर है, लेकिन अच्छे मानसून की कमी के कारण फसलों के उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। सूखाग्रस्त राज्यों में मुख्य रूप से महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और ओडिशा शामिल हैं।

पिछले 30 सालों से ग्लोबल वार्मिंग के कारण हर साल 4 और 5 श्रेणी वाले तूफानों की औसत संख्या में वृद्धि हुई है। यह देखा गया है कि भारतीय तट चक्रवातों के प्रति अति-संवेदनशील है और अरब सागर की अपेक्षा, बंगाल की खाड़ी को अधिक चक्रवातों का सामना करना पड़ता है। सबसे ज्यादा अतिसंवेदनशील चक्रवाती राज्य पश्चिम बंगाल, ओडिशा, आंध्र प्रदेश और बंगाल की खाड़ी के साथ तमिलनाडु हैं, जो ज्यादातर प्रभावित होते हैं।

जैसा कि भारत का अरब सागर और बंगाल की खाड़ी के साथ लंबा समुद्र तट है, जो ग्लोबल वार्मिंग के लिए अतिसंवेदनशील है। समुद्र के प्राकृतिक चक्र पर किसी भी तरह का नकारात्मक प्रभाव, भारत के लोगों पर बहुत ही प्रतिकूल और गंभीर असर डालता है।

ग्लोबल वार्मिंग के कारण पहले से अधिक चक्रवातों में वृद्धि हुई है। इसके कारण बाढ़, समुद्र के स्तर में वृद्धि और लोग स्थान परिवर्तन कर रहे हैं तथा इसके फलस्वरूप समुद्र का पानी अम्लीय हो गया है, जिससे समुद्री भोजन में भी कमी आ गई है।

ग्लोबल वार्मिंग के कारण जलीय पारिस्थितिकी तंत्र जैसे मैंग्रोव, प्रवाल भित्तियाँ और घास के मैदान भी काफी प्रभावित हुए हैं। इसके कारण तटीय पर्यटन, एक्वाकल्चर और तटीय मूलभूत सुविधाओं की भी काफी क्षति हुई है।

ग्लोबल वार्मिंग के परिणामस्वरूप बाढ़, सूखा, तीव्र चक्रवातों के स्वरूपों में बदलाव आया है और निश्चित रूप से तापमान में वृद्धि ने भारत को बेहद और तीव्रता से प्रभावित किया है। प्राकृतिक आपदाओं के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था भी काफी प्रभावित हुई है और प्राकृतिक आपदाओं के कारण भारत के अधिकांश लोग खाद्यान्न और आश्रय जैसी अपनी बुनियादी जरूरतों से वंचित हो जाते हैं।