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भारतीय सिनेमा में लिंग और लैंगिकता का (बुरा) प्रस्तुतिकरण

July 30, 2018
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भारतीय सिनेमा में लिंग और लैंगिकता का (गलत) प्रस्तुतिकरण

भारतीय परिवार जैसे परिवारों में उन्नति करना किसी के लिए भी बहुत मुश्किल होता है, यहाँ तक कि यदि आप कुछ करने का इरादा रखते हैं तो कह दिया जाता है कि पहले बड़े हो जाओ। हमारी संस्कृति में, लोग अक्सर हमारे अन्दर की कमियों को परखने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। शायद इसी कारण से 21 वीं शदीं में होने के बावजूद, हम अभी तक यह नहीं कह सकते कि हम अच्छे ‘सहयोगी’ रहे हैं।

एलजीबीटीक्यू + समुदाय को अब तक हमने रूढ़िवादों के संचय के रूप में प्रतिनिधित्व किया गया है (यदि संभव हुआ) किया है, जो हमने वर्षो से एकत्र कर रखी हैं। भारतीय सिनेमा में यदि एक व्यक्ति को चुस्त (विशेष रूप से गुलाबी) कपड़े पहने और हाथो को घुमाते हुए दिखाया जाए तो उसे आप एक समलैंगिक व्यक्ति मान लेते हैं। एक ट्रांसवुमन व्यक्ति एक क्रॉस-ड्रेसिंग (जेंडर से विपरीत कपड़े) से ज्यादा कुछ नहीं है और समलैंगिक व्यक्ति शायद उपेक्षित हो गए हैं। वे अपने सेक्स के विपरीत कपड़े पहन कर कैसे  सेक्सुअलटी को मुक्त करने की साहस करते हैं?

रान्डु पेनकुट्टीकल (1978), जिसे अक्सर समलैंगिक संबंध दिखाने के लिए पहली भारतीय फिल्म के रूप में जाना जाता है। इस मलयाली फिल्म में एक लड़की अपने से जूनियर लड़की के प्यार में पड़ जाती है, दूसरी लड़की उसके इरादे को शीशे की तरह स्पष्ट करती है। हालांकि, आपऑनलाइन इस फिल्म की खोज कर सकते हैं और आपको केवल दो ‘करीबी’ दोस्त की फिल्म के बारे में विवरण मिलेंगे। ऐसा क्या है जो अतिसंवेदनशीलता की कमी हमें इतना भयभीत कर देती है? अतिसंवेदनशीलता और उत्कृष्टता अत्यधिक मर्दानगी का सटीक उदहारण है। पहले के दशक के चाहे मिथुन या अमिताभ बच्चन हों या आज के टाइगर श्रॉफ, ऐसा लगता है कि पुरुषों का प्रतिनिधित्व करने के लिए माचो-मैन शक्ति के प्रदर्शन से ज्यादा कोई अन्य संभावनाएं नहीं है। या तो वह, साधारण तरीके से स्त्री पुरुष पात्रों के चरित्र को एक मजाकिया तरीके से करने का सहारा लेते थे, या फिर अपने किरदार का खुद ही चयन करते थे।

क्या आप बता सकते हैं कि आपने बिना मजाक के उद्देश्य से आखिरी बार महिलाओं के कपड़े पहने हुए पुरुषों के चरित्र को कब देखा है? 1981 में बनी फिल्म लावारिस के गीत ‘मेरे अंगने में’ हो या कपिल शर्मा का शो, इसके परिणाम एक सभ्य व्यक्ति  पर अपनी छाप बना रहा हैं जो इससे बाहर निकलने के लिए मार्ग  तलाश कर रहे हैं। जब बॉलीवुड ने आखिरकार समलैंगिक (क्वियर) पात्रों को पेश करने का फैसला किया, तो दोस्ताना और स्टूडेंट आफ द ईयर के साथ हमने इन चीजों को कहीं पर भी खत्म होते नहीं देखा है? इन पात्रों को आप दोस्ताना से समीर (अभिषेक बच्चन) या स्टूडेंट आफ द इयर में ऋषि कपूर द्वारा प्रधानाचार्य डीन की निभाई गई भूमिका को नापसंद नहीं कर सकते हैं। हालांकि, इसको दिखाना कितना सही है? समलैंगिक पुरुषों से जुड़े सभी रूढ़िवादों के साथ चलने वाले समीर को हर समय गुलाबी कपड़े पहने हुए एक लड़के के रूप में दिखाया गया था। ऋषि कपूर को एक महिला पुरुष के रूप में दिखाया गया था, जो अपने मसखरेपन से (‘कॉमिकली’) एक सीधे सादे आदमी की शादी तोड़ने की कोशिश करता है। हम क्यों नहीं एक सरल, अधिक यथार्थवादी और सीमित चीजो को प्रदर्शित करके एलजीबीटीक्यू + समुदाय के लोगों की दर्शा सकते है ? और कितने साल लगेंगे हमें यह एहसास होने में कि सेक्सुअलिटी और लिंग एक साथ आगे तो बढ़ सकते है, लेकिन यह दोनों एक ही चीजें नहीं है? आपको विषमता के सबूत के रूप में, पुरुषों के चरित्र में क्रूरता, हिंसा को गले लगाने और ‘संरक्षक’ की भूमिका निभाने की आवश्यकता नहीं है। न ही आपको सभी समलैंगिक पात्रों को दर्शाने के लिए  हमेशा पिंक कलर और चमक-दमक वाले कपड़े पहनाने की जरूरत है (जैसे-कपूर एंड संस फिल्म में फवाद खान ने राहुल की भूमिका निभाई थी) और न ही सभी समलैंगिक पात्र पुरुष बनना चाहते हैं। और न ट्रांसजेंडर लोग (उससे संबंधित लोग)? एक साधारण शुरुआत करने वाले के लिए प्रमुख निर्देश है,  ट्रांसजेंडर, क्रॉसड्रेसिंग, इंटरसेक्स और किन्नरों के बीच अंतर जानना।

हमारे मनोरंजन उद्योग को आवश्यकता है कि समलैंगिक (क्वियर) पात्रों को एक फूहड़ और कामुक्ता के स्रोत के रूप में चित्रित करने की विचारधारा को दूर करे और शायद इस ‘अकल्पनीय’ संभावना पर विचार करें कि हम सब इंसान हैं। तभी हम सेक्सुअलिटी और लिंग जैसी कठोर सामाजिक ठप्पों से उबरकर सांस ले पाएंगे और उससे आगे बढ़ पाएंगे।

 

 

 

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भारतीय सिनेमा में लिंग और लैंगिकता का (गलत) प्रस्तुतिकरण
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पुराने माचो हीरो और सीधी सादी नायिकाओं का युग खत्म हो चुका है। इस समय बॉलीवुड ने सामाजिक मानदंडों को मिटाकर सही तरीके से लिंग और सेक्सुअलिटी का वर्णन करना शुरू किया है।
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