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भारत बंद – समस्या का समाधान या खुद एक समस्या

September 27, 2018
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भारत बंद – समस्या का समाधान या खुद एक समस्या

राजनीति कभी भी एक टिकाऊ खेल नहीं रही है और राजनेता कभी भी हार न मानने वाले खिलाड़ी। अगर एक साल किसी एक पार्टी के हाथ में सत्ता है तो आप नहीं जान सकते कि अगले साल किसके हाथ में होगी। कभी “अग्रणी” पार्टी तो कभी “विपक्षी” पार्टी की भूमिका निभाने का यह खेल साल दर साल ऐसे ही चलता रहता है। यह हमारे लोकतंत्र का सार है, ना?

हर दूसरे साल की तरह 2018 भी देश के राजनीतिक दृश्य के लिए शांत नहीं रहा। और क्यों नहीं? हम एक विशालकाय राष्ट्र हैं, सबसे बड़ा लोकतंत्र हैं और एक उभरती हुई अर्थव्यवस्था हैं। इसी में एक बड़ा खेल है एक गजब की चाल है जिसको अक्सर चला जाता है और वह है भारत बंद। एक बहुत ही पुरानी चाल, जो सितंबर 2018 में एक बार फिर देखने को मिली, जब पेट्रोल की बढ़ती कीमतों पर विरोध जताने के लिए विपक्ष ने भारत बंद का आह्वान किया।

यह विपक्ष या सत्तारूढ़ दल पर कोई तंज नहीं है बस केवल एक सवाल है। क्या भारत बंद वास्तव में हमारी समस्याओं का समाधान हैं? और अगर हैं, तो क्या ये हमारे संपन्न लोकतंत्र का सबसे अच्छा समाधान हैं?

भारत का भाग्य के साथ “बंद”

“बंद” हिन्दी का एक शब्द है जिसका अर्थ होता है रोकना या बाधित कर देना। सामान्य हड़तालों की तरह यह भी विरोध जताने का एक तरीका है लेकिन अक्सर इसके पीछे एक राजनीतिक मंशा या महत्व होता है। सामान्य हड़तालों की तरह इसमें भी श्रम-बल और बड़े समुदायों सहित जनता से भाग लेने के लिए अपील की जाती है। फिर आम जनता से प्राप्त समर्थन और भीड़ को देखते हुए यह नतीजा निकाला जाता है कि बंद कामयाब रहा या नहीं।

भारत में बंद का मिलाजुला (विरोध-दिलचस्पी) असर देखने को मिला है, कुछ लोग इसे सही ठहराते हैं तो कुछ गलत। विरोध या दिलचस्पी का मामला कुछ यूँ है कि जब एक पार्टी सत्ता में होती है तो इस बंद की निंदा करती है फिर वही पार्टी जब विपक्ष में आ जाती है तो इसको एक हथियार के रूप में उपयोग करती है। राजनेताओं को अच्छी तरह से पता है कि यह नागरिक अवहेलना के लिए लोगों को प्रेरित करने का एक मजबूत हथियार है। इसी वजह से लोकतांत्रिक भारत का इतिहास कई बार बंदी का गवाह रहा है।

भाजपा सरकार में पेट्रोल की बढ़ती कीमतों पर विरोध जताने लिए कांग्रेस ने सितंबर 2018 में बंद का ऐलान किया। हालांकि, कुछ साल पहले से ही देश में ऐसी स्थिति देखी गई है। सन् 2010 और फिर 2012 में भाजपा के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) पार्टी ने ईंधन के बढ़ते दामों के विरोध में भारत बंद का ऐलान किया था। भारतीय राजनीति में बंद एक सामान्य बात है।

आम आदमी की शक्ति ही किसी भी लोकतंत्र की सार होती है। स्वाभाविक रूप से किसी भी अनुचित कार्य को कुछ प्रतिरोध के साथ पूरा किया जाना चाहिए। अगर एक स्वस्थ लोकतंत्र विरोध और असंतोष पर पनपता है तो फिर हम “बंद” की विश्वसनीयता पर सवाल क्यों उठाते हैं? क्या वे सरकार को यह बताने के एक प्रभावशाली तरीका नहीं हैं कि यह  सत्ता में तो जरूर हो सकती है लेकिन अभी भी यह काम लोगों के लिए ही करती है? आइये इसपर विस्तारपूर्वक चर्चा करते हैं।

आर्थिक हानि – हम जानते हैं इस देश व्यापी बंदी के दौरान सभी व्यवसायों के लोगों से इसमें भाग लेने के लिए कहा जाता है। जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है कि बंद की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि आप कितने लोगों को एकत्र करने में कामयाब हो पाते हैं। स्वाभाविक रूप से, श्रम बल (मजदूर वर्ग) इसमें बढ़चढ़ कर हिस्सा लेता है जिससे अर्थव्यवस्था में और ज्यादा बाधाएं उत्पन्न हो जाती हैं। सन् 2010 में जब विपक्ष ने तत्कालीन यूपीए सरकार के खिलाफ भारत बंद का ऐलान किया था तब उद्योग ने अनुमानित 13,000 करोड़ रुपये के नुकसान की सूचना दी थी। ध्यान दीजिए कि यहाँ पर हम केवल एक दिन के नुकसान की बात कर रहे हैं।

नागरिकों के सामने समस्याएं –  वैसे तो कहा जाता है कि बंद आम आदमी के अधिकारों के लिए होता है लेकिन आमतौर पर इन्हीं लोगों को राजनीतिक आदोलनों से सबसे ज्यादा परेशान होना पड़ता है। सार्वजनिक परिवहन, सड़कें आदि घंटों तक बाधित रहती हैं। किसी भी तरह के कारोबार, स्थानीय मेडिकल स्टोर और किराने की दुकानें आदि मुख्य रूप से बंद रहती हैं। इसके अलावा, कहीं आना जाना (छोटी दूरियों में) तक दूभर हो जाता है। सितंबर 2018 में पेट्रोल की बढ़ती कीमतों पर होने वाले बंद की वजह से एक बच्ची की मौत हो गई थी। पिता के अनुसार, उनकी दो साल की बेटी की अस्पताल ले जाते समय बीच रास्ते में ही मौत हो गई थी क्योंकि बंद होने के कारण रोड पर जाम लगा हुआ था इसलिए वे समय पर अस्पताल न पहुँच सके।

निष्कर्ष

कई लोगों का दावा है कि लड़की की मौत बंद की वजह से नहीं बल्कि माता-पिता द्वारा अस्पताल ले जाने में करने वाली देरी की वजह से हुई थी। इस मामले में भले ही यह सच है लेकिन क्या विरोध करने का वास्तव में यह सबसे अच्छा तरीका है? इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि बंद हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में काफी गंभीर समस्याएं उत्पन्न करते हैं। उद्योग होने वाले नुकसान और नागरिक बड़ी असुविधाओं और समस्याओं के बारे में शिकायत करते हैं। तो फिर आखिरकार इसका फायदा किसको मिलता है? हां मानते हैं कि अपना असंतोष व्यक्त करना जरूरी है और इस असंतोष को इतना मजबूत होना चाहिए कि सरकार इनको नजरअंदाज न कर सके। लेकिन असंतोष व्यक्त करने के और भी कई बेहतर तरीके हैं। ज्यादातर बंद का नतीजा किसी न किसी प्रकार की हिंसा ही होता है।

अगर हम इसे गंभीरता से लें तो, हम विरोध करने के दूसरे तरीकों की तलाश नहीं कर सकते क्या? वे तरीके जो आम आदमी को अपाहिज न बनाते हों? शायद, हम कर सकते हैं।

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लोकतांत्रिक भारत का इतिहास लंबे समय से बंद का गवाह रहा है। हालांकि, किसी को भी थोड़ा ठहरकर यह सोचना चाहिए कि, क्या हमारे पास विरोध करने का यह सबसे अच्छा तरीका है? और इससे भी अहम बात यह है कि क्या बंद किसी समस्या का समाधान हैं या पूरी तरह से हटकर खुद एक समस्या हैं।
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