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प्राचीन काल से दलित साहित्य

August 3, 2018
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प्राचीन काल से दलित साहित्य

अक्सर यह देखा जाता है कि एक युग के साहित्य को सत्ताधारी लोगों के अपरिहार्य प्रभुत्व द्वारा चिह्नित किया जाता है। वहीं दूसरे शब्दों में कहें तो, साहित्य में उन लोगों के प्रति शून्यता देखने को मिलती है जो कम भाग्यशाली रहे हैं। यही कारण है कि 16 वीं शताब्दी और 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध के बीच एक लम्बे समय के लिए अमेरिकी साहित्य में अश्वेत लेखक लगभग गायब ही हो गए थे। जब वे दुबारा अस्तित्व में आये तो यह एक प्रतिरोध का अधिनियम था जिसमें उनकी आवाजों को न दबाने का प्रयास किया गया था।

हम कह सकते हैं कि उत्पीड़न, अभिव्यक्ति को फीका कर देता है। तब इस परिदृश्य में उत्पीड़न की सीमा की कल्पना करें। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक रंग-विशेष का व्यक्ति होने के नाते, पहले से ही एक स्तर पर लोगों को उत्पीड़ित किया गया है और फिर एक पिछड़ी जाति के व्यक्ति होने के नाते, आपको देश के भीतर भी यह सब कुछ देखने को मिल रहा है। यह निष्प्रभता का वह स्तर है जिसका सामना हमारे इतिहास के अधिकांश दलित लेखकों को करना पड़ा है। शायद यही कारण है कि दलित साहित्य 20 वीं शताब्दी में पहली बार प्रकाश में आया था।

दलित प्रतिनिधित्व

यह कहना कि हमारे साहित्य से दलित लेखक गायब थे, इसका यह मतलब नहीं है कि दलित पात्र भी नहीं थे। रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा रचित गीतांजलि (1913) में बताया गया है कि कैसे ‘अस्पृश्य’ को हमारे देश में अपमानित किया गया है। प्रेमचंद द्वारा रचित सद्गति (1931) एक निचली जाति के चरित्र, उसकी दुर्दशा और दुखों के चारों ओर घूमती है। दलित जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रसिद्ध लेखों के ऐसे कई अन्य अनगिनत उदाहरण हैं। हालांकि, इनमें से अधिकतर लेखक उच्च जाति के थे। यह वह जगह है जहां सहानुभूति और हमदर्दी की बहस का खेल खेला जाता है। हां, दलित पात्रों का प्रतिनिधित्व किया गया था, लेकिन उच्च जाति के लेखकों द्वारा। कई दलित कार्यकर्ता तर्क देते हैं कि वास्तव में, केवल समुदाय विशेष से संबंधित व्यक्ति ही उस समुदाय के लोगों के जीवन को चित्रित कर सकता है। रामणिका गुप्ता के शब्दों में, “केवल राख ही जलने का अनुभव जानती है”। तो, क्या गैर-दलित व्यक्ति द्वारा दलितों के बारे में लिखा गया साहित्य दलित साहित्य के रूप में माना जाता  है? और यदि माना जाता है तो यह कितना  प्रामाणिक है?

चिल्ड्रेन ऑफ गॉड (1976) एक गैर-दलित, उच्च जातिय महिला शांता रामेश्वर राव का एक उपन्यास है। कहानी लक्ष्मी द्वारा वर्णित है, जो कि एक अस्पृश्य महिला है जिसके बेटे को जिंदा जला दिया जाता है जब वह एक हिंदू मंदिर में प्रवेश करने की कोशिश करता है। विश्लेषण करने पर, लक्ष्मी के दुखों का चित्रण कई लोगों के लिए दिखावा है, हालांकि उनके प्रयासों में ईमानदारी है। भले ही इस तरह का लेखन दलित साहित्य के रूप में गिना जाता है, लेकिन 20 वीं शताब्दी में कुछ समय बाद देश दलित लेखकों के एक बड़े विद्रोह का गवाह रहा।

दलित साहित्य की उत्पत्ति

11 वीं शताब्दी के एक हरिजन संत मदारा चेन्नायाह, सबसे पहले ज्ञात दलित लेखकों में से एक हैं। उन्हें अक्सर “वाचना कविता के जनक” के रूप में जाना जाता है, जो कन्नड़ में तुकबंदी के साथ लेखन का एक रूप है। गुरु रविदास (15 वीं -16 वीं शताब्दी), चोखामेला (14 वीं शताब्दी) आदि संतों के युग में दलित भक्ति के कवि भी थे, हालांकि 6 वीं से 13 वीं शताब्दी तक कई तमिल सिद्धों का उल्लेख नहीं किया गया। हालांकि, बाद में, मुख्य रूप से 19वीं शताब्दी में साहित्य प्रतिरोध का साधन बन गया।

19वीं शताब्दी में शक्तिशाली समतावादी विचारकों के आगमन के साथ दलित साहित्य में स्वयं ही धीरे-धीरे एक अलग, प्रतिष्ठित शैली में परिवर्तिन होने लगा। उदाहरण के लिए, नारायण गुरु जिनका जन्म 1854 में केरल में हुआ था और ये एक सामाजिक कार्यकर्ता थे। इन्होंने अपने पूरे जीवनकाल में, मलायालम, तमिल और यहां तक कि संस्कृत में भी कई खण्ड लिखे हैं, जिनमें से कई लेखों में दलित लोगों के उत्पीड़न के बारे में बताया गया है। इसके अलावा ज्योतिराव फुले एक और नाम है जिन्हें दलित सक्रियता और दलित साहित्य दोनों के लिए याद किया जाता है। ज्योतिराव फुले का जन्म 1827 में महाराष्ट्र में हुआ था। यह सबसे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने इस तरह के परिवेश में रहते हुए जाति पर आधारित उत्पीड़न को महसूस किया था। इन्होंने 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में कई कृतियों का निर्माण किया है, जिनमें जाति उत्पीड़न की मुख्य समस्याओं को प्रकाशित किया गया है। बी.आर. अम्बेडकर जिन्हें अक्सर हमारे संविधान के पिता के रूप में माना जाता था। इन्होंने अपने जीवनकाल में कई उल्लेखनीय कृतियों को लिखा है जिनमें से ‘जाति प्रथा का विनाश’ (1936) अत्यधिक प्रसिद्ध कृति है। जैसा कि हम आज जानते हैं, कि आधुनिक दलित साहित्य, एक शैली के रूप में 20 वीं शताब्दी के अंत में आया था।

आधुनिक दलित साहित्य

“दलित साहित्य” शब्द के उपयोग की शुरुआत वर्ष 1958 में महाराष्ट्र दलित साहित्य संघ की पहली बैठक में हुई थी। कई लेखक दलित साहित्य का उद्भव 1960 और 1970 के दशक को बताते हैं। हालांकि, दलित पत्रिका साहित्य का आगमन 1920 दशक में उल्लेखनीय है। यह लगभग उसी समय हुआ था जब बी.आर. अम्बेडकर ने हिंदू मंदिरों के अंदर दलित लोगों के प्रवेश को अनुमति दिलाने के लिए अपनी स्वयं की क्रांति की शुरुआत की थी।

एक पूर्ण दलित प्रतिनिधित्व सबसे पहले मराठी साहित्य में उभरा था। जिसमें 1963 में बाबूराव बागुल ने एक प्रतिष्ठित जेव्हा मी जात चोरली (जब मैंने अपनी जाति को छुपाया था) नामक कृति लिखी थी। यह 20 वीं शताब्दी के शुरुआती आधुनिक दलित साहित्य की कृतियों में से एक थी। नामदेव लक्ष्मण ढसाल एक अन्य मराठी कार्यकर्ता थे, जो बाबूराव बागुल की कृतियों से काफी प्रभावित थे। उन्होंने 1970 के दशक की शुरूआत में ही दलित साहित्यिक की दुनिया को कई रत्न दिए। यह नामदेव ढसाल, जे.वी. पवार और अरुण कांबले ही थे जिन्होंने 1972 में दलित पैंथर्स संगठन की स्थापना की थी। यह संगठन दलित क्रांति में प्रमुख परिवर्तन लाने वाले संगठनों में से एक माना जाता है। इस संगठन ने ज्योतिबा फुले, अम्बेडकर इत्यादि के साथ-साथ ब्लैक पैंथर्स आंदोलन (एक संगठन जो अफ्रीकी-अमेरिकी अधिकारों के लिए लड़ा था) की विचारधाराओं का भी समर्थन किया। दलित पैंथर्स ने मराठी साहित्य में क्रांतिकारी बदलाव किया है। देश के दूसरे कोने में (तमिलनाडु) बामा जैस लेखक-कार्यकर्ता परिवर्तन की लहर बना रहे थे। बामा एक दलित नारीवादी थीं जिन्होंने ‘करुक्कू’ (1992) नामक एक आत्मकथा लिखी थी। इस पुस्तक ने उनके राज्य की दलित ईसाई महिलाओं के जीवन में खुशी और दुखों की खोज की थी। उत्तर प्रदेश में रहने वाले लेखक, ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा ‘जूठन’ (1997), एक महत्वपूर्ण साहित्य रचना है जिसमें जाति पर आधारित भेदभाव के बारे में बताया गया है।

सबसे पहला अखिल भारतीय अम्बेडकर साहित्य सम्मेलन 1993 में, महाराष्ट्र में आयोजित किया गया था। इस सम्मेलन का उद्देश्य दलित साहित्य में उन्नति और परिवर्तन करना था। इस युग के कुछ अन्य उल्लेखनीय दलित लेखक शांताबाई कांबले, उर्मिला पवार, लक्ष्मण माने आदि हैं।

आज का दिन

दलित साहित्य और दलित सक्रियता आधुनिक दुनिया में दृढ़ता से एकीकृत हो गई है। हर चीज में, साहित्य एक सबसे शक्तिशाली हथियार है। साहित्य की दुनिया में बहुत से दलित लेखकों का उद्भव हुआ है, जिनका स्थान उनके शक्तिशाली लेखन के माध्यम से बदल  गया है। उदाहरण के लिए पी. शिवकामी आज के सबसे प्रमुख दलित लेखकों में से एक हैं। उनकी पुस्तक ‘इन द ग्रिप ऑफ चेंज’ लेखन का एक बहुत ही शक्तिशाली साहित्यक रचना है, जिसे बहुत से लोग सबसे बेहतरीन रचना में से एक मानते हैं। एक अन्य दलित महिला लेखिका विजला चिरापड़ जो केरल की रहने वाली हैं और अभी तक तीन संग्रह प्रकाशित कर चुकी हैं। उनके लेखन में आम तौर पर महिलाओं के जीवन की समस्याओं के बारे में बताया गया है। एक दलित लेखक के साथ-साथ नाटककार देव कुमार का जन्म 1972 में हुआ था। इन्होंने भी 1992 में एक थियेटर ग्रुप (अपना थियेटर) की स्थापना और दलित चेतना को उत्तेजित करने वाले कई नाटकों का निर्माण किया है। मीना कंदसामी हमारे देश की सबसे प्रसिद्ध नारीवादी लेखिकाओं में से एक हैं। उनके लेखन तमिलनाडु पर आधारित, विरोधी जाति आंदोलन की गहराई से संबधित हैं।

चूंकि दलित लेखकों ने धीरे-धीरे साहित्यिक दुनिया में अपना उचित स्थान बना लिया है, इसलिए यह स्पष्ट रूप से एक परिवर्तन काल है, साहित्यिक क्षेत्र पर दलित पात्रों का प्रभुत्व तो था लेकिन उनके पास बहुत मजबूत आवाज नहीं थी (उदाहरण के लिए, भगवान के बच्चों से लक्ष्मी) आधुनिक दिन के पात्रों को साहसपूर्वक लिखा जाता है। युवा, दलित लेखक अपनी मौजूदगी को महसूस करते हुए, बदलाव के लिए अपनी कहानी के बारे में बता रहे है।

 

 

 

 

Summary
Article Name
सदियों से दलित साहित्य
Description
उद्भव से लेकर आज तक दलित साहित्य का इतिहास और इसकी यात्रा।
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