बिहार चुनाव- आखिरी दौर में कांग्रेस की परीक्षा
बिहार में आखिरी दौर का मतदान गुरुवार, ५ नवंबर को होगा। इसमें कांग्रेस की परीक्षा होगी। न सिर्फ उसकी अकेली की, बल्कि महागठबंधन के लिए भी यह अग्निपरीक्षा से कम नहीं है। कांग्रेसकी प्रतिष्ठा ज्यादा दांव पर है, जितना शायद अब तक सामने नहीं आया। अब तक पूरा ध्यान लालू और नीतीश पर ही रहा है ऐसे में कांग्रेस की समस्या और भी बढ़ जाती है।
आखिरी दौर में सीमांचल क्षेत्र में मतदान होगा। यहां का बड़ा तबका ईबीसी, ओबीसी और मुस्लिम समुदाय का है। यह माना जाता है कि चुनाव के बाकी चरणों के मुकाबले इस चरण में महागठबंधन का पलड़ा भारी रहेगा। २०१४ के लोकसभा चुनावों में पार्टी की बहुत बुरी हार के बाद कांग्रेस राष्ट्रीय राजनीति में प्रासंगिक बने रहने के लिए संघर्ष कर रही है। उसकी ताकत घटती जा रही है। उसके पास ऐसा कोई नेतृत्व नजर नहीं आ रहा है, जो उसे २१वीं सदी की चुनौतियों का सामना करने लायक स्थिति में लाकर खड़ा करे।
कांग्रेस की समस्या यह है कि वह अपनी ही विरासत के बोझ तले दबी हुई है। एक तो उसकी पहचान गांधी परिवार से जुड़ी हुई है। इंदिरा गांधी के निधन के बाद, पार्टी ने दूसरी लाइन का नेतृत्व खड़ा करने के बजाय पार्टी परिवार पर ही निर्भर रही। इस दौरान उसने आने वाले वर्षों के लिए कोर नहीं बनाया। पीवी नरसिम्हा राव को प्रधानमंत्री बनाकर संक्षेप में प्रयोग जरूर किया।
२०१४ के चुनावों में पूरी तरह धराशायी होने के बाद कांग्रेस को एक बार फिर नई शुरुआत करने का मौका मिला है। इस दौरान वह एक युवा और गैर–गांधी नेता के हाथ में पार्टी का नेतृत्व सौंपकर युवा नेताओं का एक कोर ग्रुप बना सकती है। यह राज्यों में पार्टी को पुनर्जीवित करने का प्रयास होगा। जिसमें कई साल लगेंगे। लेकिन कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं को बिल्कुल भी भरोसा नहीं है। वह नेतृत्व के खिलाफ रुख नहीं अपना सकते। इसी वजह से देश को एक और गांधी को स्वीकार्यता पाने को संघर्ष करते देखना होगा। इस पृष्ठभूमि में कांग्रेस को उम्मीद है कि लालू–नीतीश के साथ गठबंधन बनाकर सरकार बना लेंगे। इससे कुछ हद तक राज्य में तो पार्टी की प्रासंगिकता बनी रहेगी।
2010 में, कांग्रेस को 2009 के आम चुनावों में मजबूत जीत के बाद खुद पर पूरा भरोसा था। इसी वजह से उसने अपने दम पर 243 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे। लेकनि पूरी तरह नाकाम रहे। सिर्फ चार सीटों पर जीत मिली थी। बिहार में वह अपने आपको फिर मजबूत कर सकती थी, लेकिन 2014 के आम चुनावों ने उसके अरमानों पर पानी फेर दिया।
तो नीतीश कुमार ने डूबती पार्टी से हाथ क्यों मिलाया और उसे 41 सीटें क्यों दी। वह भी अपनी पार्टी की कीमत पर जिस पर जीत की संभावना भी बहुत थी?
नीतीश कुमार ने खुलकर स्वीकार किया कि उन्होंने बीजेपी को हराने के लिए ही अपने कट्टर दुश्मन रहे लालू और डूबती पार्टी कांग्रेस से हाथ मिलाया है। सवाल यह है कि क्या कांग्रेस पर आखिरी और महत्वपूर्ण दौर में कुछ ज्यादा ही भरोसा तो नहीं किया गया है। खासकर कांग्रेस को सीमांचल की 24 में से 12 सीटें दी गई हैं।
यदि पहले के चार दौरों में मुकाबला करीबी था, तो पांचवां दौर निर्णायक साबित होगा। लेकिन क्या जिस पार्टी ने 2010 में सिर्फ चार सीटें जीती थी, वह क्या इस बार चमत्कार कर पाएगी। जबकि इस पार्टी ने 2010 के बाद अपने हालात बदलने के लिए कुछ खास जतन नहीं किए हैं।
उत्तरप्रदेश के पंचायत चुनाव परिणामों ने कांग्रेस के हालात को और भी बदतर बना दिया है। पार्टी को राहुल के निर्वाचन क्षेत्र अमेठी में भी हार का सामना करना पड़ा है। ज्यादातर राज्यों में जमीनी स्तर पर काम कर रहे लोग कांग्रेस छोड़ रहे हैं तो नीतीश कुमार ने कांग्रेस को ऐसे क्षण महत्व क्यों दिया, जब यह चुनाव उनके करियर के लिए करो या मरो का सवाल पैदा कर रहे हैं? हमें निश्चित तौर पर इसका जवाब 8 नवंबर को मिलेगा।
आखिरी दौर में मतदान का प्रतिशत महागठबंधन के अवसर बना भी सकता है और बिगाड़ भी सकता है
सीमांचल की आबादी के समीकरणों पर बहुत कुछ लिखा गया है। हकीकत तो यह है कि इसका फायदा महागठबंधन को मिल सकता है। क्षेत्र में ईबीसी, ओबीसी और मुस्लिमों की संख्या अच्छी–खासी है। दादरी हत्या, बीफ विवाद और उसके बाद फरीदाबाद में दो दलित बच्चों की जिंदा जलाकर हत्या की गई। इससे इस क्षेत्र पर गहरा असर पड़ा है। इसका संबंधित समुदायों पर असर हुआ है। उनमें डर का माहौल है। इसका महागठबंधन को निर्णायक फायदा हो सकता है।
मुस्लिम वोटरों के संदर्भ में, एआईएमआईएम भी चुनाव में उतरा है। यह डर है कि मुस्लिम वोटर बंट जाएंगे और महागठबंधन को नुकसान होगा। इसका सीधे–सीधे एनडीए को लाभ होगा। लेकिन अब तक जो फीडबैक मिला है, वह संकेत देता है कि पार्टी का असर और प्रभाव इस इलाके में बेहद कम है। महागठबंधन की संभावनाओं पर इस पार्टी का असर बिल्कुल नहीं होगा। सभी मुस्लिम मतदाता महागठबंधन के पक्षमें खड़े दिख रहे हैं। खासकर हालिया विवादों के बाद तो हालात ऐसे ही बन रहे हैं।
जब बिहार में अभियान शुरू हुआ था,तब लग रहा था कि बीजेपी को सत्ता विरोधी फेक्टर के आधार पर मजबूती मिलेगी। ऐसा लग रहा था कि उसके पक्ष में एक लहर है। टीम अमित शाह ने हवा को सही तरीके से पढ़ा और सहीकदम उठाए। लेकिन जैसे ही नरेंद्र मोदी की शोरगुल वाली रैलियों से अभियान शुरू हुआ, तब से बीजेपी को उसका फायदा उठाने में नाकाम ही रही है। शुरुआती अवसर पार्टी ने गंवाए ही हैं। राज्य के बाहर की घटनाओं का भी असर चुनाव पर हुआ है। इसका नतीजा पांचवें दौर में ही खास तौर पर दिखने को मिलेगा।
हालांकि, उपरोक्त मुद्दों पर बहुत ज्यादा ही ध्यान दिया गया है। जबकि सबसे बड़ा फेक्टर यह है कि मतदान का प्रतिशत महागठबंधन के अवसरों को बना भी सकता है और बिगाड़ भीसकता है। आंकड़े खुद ही अपनी कहानी बयां करते हैं। पिछले चरण में नौ जिलों में मतदान हुआ था। संख्या के लिहाज से दूसरा सबसे ज्यादा। पहले दौर में 10 जिलों में मतदान हुआ था। इस दौर में 57 सीटों पर वोट डले, जो सभी चरणों में सबसे ज्यादा था। कुल मतदाता थे 1.55 करोड़। राज्य के कुल वोटरों के 23.18 प्रतिशत। पांचों चरणों में सबसे ज्यादा।
इस वजह से, वोट प्रतिशत में किसी भी तरह की बढ़ोतरी शुरुआती दो दौरों में हुए करीबी मुकाबलों का लाभ पानी कर देगी। पूरा चुनाव ही महागठबंधन के पक्ष में चला जाएगा।
यह ध्यान देना जरूरी है कि पारंपरिक रूप से ईबीसी और मुस्लिम वोटर बड़ी संख्या में वोट डालने आए हैं। वे ब्लॉक्स में वोट डालते हैं। खासकर मुस्लिम वोटर्स। राज्य के बाहर की हालिया घटनाओं और महागठबंधन के हारने की संभावनाओं कीहकीकत के बीच जरूरी हैकि बड़ी संख्या में वोटर घर से निकलकर वोट डालने पहुंचे। यदि ऐसा हुआ तो एनडीए के लिए आखिरी दौर का मतदान दु:स्वप्न साबित हो सकता है।
फोटो कैप्शन: क्या कांग्रेस को इन चुनावों में ज्यादा महत्व दिया गया है?