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भारत में जाति व्यवस्था और इसका मूल सिद्धांत

June 15, 2017


cast-system-in-india-hindiभारत में एक जटिल जाति व्यवस्था ने जीवन को काफी हद तक प्रभावित किया है। जाति मे (जैसा कि भारत में कहा जाता है) एक वंशानुगत समूह होता है जो अपने सामाजिक स्थिति को परिभाषित करते हैं। आजादी के इतने सालों के बाद भी, यहाँ जाति पर आधारित सीमांकन आज भी होता है; हालांकि समय के अनुसार, यह सब बदल रहा है। शहरी इलाकों में यह सब अलग नहीं है लेकिन यह स्पष्ट है कि ग्रामीण क्षेत्रों में विभिन्न जातियों में अंतर स्पष्ट हो जाता है। कभी-कभी जाति-आधारित अंतर एक हिंसक मोड़ ले लेता है और जातियों के आधार पर अलग-अलग समूहों के बीच हिंसक झड़पों का कारण भी बनता है। इसके अलावा विरोधी सामाजिक तत्व अपने निहित स्वार्थ को बढ़ावा देने के लिए जाति व्यवस्था का उपयोग करते हैं।

भारत में जाति व्यवस्था की उत्पत्ति

इससे पहले भारत में हर एक व्यक्ति की जाति अपने व्यवसाय से परिभाषित की जाती थी और व्यक्ति की मृत्यु तक उसे उसी व्यवसाय में रहना होता था। उच्च जाति के लोगों को किसी अन्य जाति के लोगों से आपस में मिलने और शादी करने की अनुमति नहीं मिलती थी। इस प्रकार भारत में जातियां वास्तव में समाज को अलग कर रही थीं।

आम तौर पर जाति व्यवस्था हिंदू धर्म से जुड़ी होती है। ऋग वेद (प्रारंभिक हिंदू पाठ) के अनुसार चार वर्ग थे जिन्हें ‘वर्ण’ कहा जाता था। वर्णों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र होते थे। अधिकांश इतिहासकार आज भी मानते हैं कि आज की जाति व्यवस्था इन वर्णों पर आधारित है।

इसके अलावा यहाँ पाँचवीं श्रेणी भी मौजूद थी जो शूद्रों से भी कमजोर मानी जाती थीं और वह “अछूत” या दलित होते थे। ये वे व्यक्ति थे जो मलमूत्र या मृत पशुओं को निकालने का कार्य करते थे। इसीलिए उन्हें मंदिरों में प्रवेश करने और एक ही जल स्रोत से पानी पीने आदि की अनुमति नहीं होती थी। छुआ-छूत भेद-भाव का सबसे सामान्य रूप है जो कि भारत में जाति व्यवस्था पर आधारित है।

लेकिन कब और कितनी जातियां भारत में उत्पन्न हुई हैं, यह स्पष्ट नहीं है। जाति व्यवस्था की उत्पत्ति के संबंध में कई सिद्धांत आगे रखे गए हैं लेकिन अब तक इस संबंध में कोई ठोस सबूत नहीं मिला है।

भारत में जाति व्यवस्था की उत्पत्ति से संबंधित सिद्धांत:

  • पारंपरिक सिद्धांत: इस सिद्धांत के अनुसार ब्रम्हांड के निर्माता ब्रम्हां जी ने जाति व्यवस्था का निर्माण किया था। ब्रह्मा के जी के विभिन्न अंगों से जैसे उनके मुख से ब्राह्मणों का, हाथ से क्षत्रिय, वैश्य पेट से और इसी तरह अन्य विभिन्न जातियों का जन्म हुआ। विभिन्न जातियों के लोग अपने मूल स्रोत के अनुसार कार्य करते हैं। प्राचीन भारत में विभिन्न उपजातियां इन जातियों से पैदा हुईं और इसने मनु के वर्णन के अनुसार प्राचीनकाल-संबंधी व्याख्या प्राप्त की है। इस सिद्धांत की आलोचना की गई है क्योंकि यह एक अलौकिक सिद्धांत है और इसके आधार अस्तित्व सिर्फ दिव्य (कल्पनीय) हैं।
  • राजनीतिक सिद्धांत: इस सिद्धांत के अनुसार ब्राह्मण समाज पर शासन करने के अलावा उन्हें पूर्ण नियंत्रण में रखना चाहते थे। इसलिए उनके राजनीतिक हित ने भारत में एक जाति व्यवस्था बनाई। जिसमें एक फ्रांसीसी विद्धान निबे दुबास ने मूल रूप से इस सिद्धांत को आगे बढ़ाया, जो भारतीय विचारकों डॉ. घुर्ये जैसे लोगों से भी समर्थित थे।
  • धार्मिक सिद्धांत: यह माना जाता है कि विभिन्न धार्मिक परंपराओं ने भारत में जाति व्यवस्था को जन्म दिया था। राजा और ब्राह्मण जैसे धर्म से जुड़े लोग उच्च पदों पर आसीन थे लेकिन अलग-अलग लोग शासक के यहां प्रशासन के लिए अलग-अलग कार्य करते थे जो बाद में जाति व्यवस्था का आधार बन गए थे। इसके साथ साथ, भोजन की आदतों पर प्रतिबंध लगाया जो जाति व्यवस्था के विकास के लिए प्रेरित हुआ। इससे पहले दूसरों के साथ भोजन करने पर कोई प्रतिबंध नहीं था क्योंकि लोगों का मानना ​​था कि उनका मूल एक पूर्वज से था। लेकिन जब उन्होंने अलग-अलग देवताओं की पूजा शुरू की तो उनकी भोजन की आदतों में बदलाव आया। इसने भारत में जाति व्यवस्था की नींव रखी।
  • व्यावसायिक सिद्धांत: नेस्फील्ड ने मूल रूप से व्यावसायिक नाम का सिद्धांत दिया, जिसके अनुसार भारत में जाति किसी व्यक्ति के व्यवसाय के अनुसार विकसित हुई थी। जिसमें श्रेष्ठ और निम्नतर जाति की अवधारणा भी इस के साथ आयी क्योंकि कुछ व्यक्ति बेहतर नौकरियां कर रहे थे और कुछ कमजोर प्रकार की नौकरियों में थे। जो लोग पुरोहितों का कार्य कर रहे थे, वे श्रेष्ठ थे और वे ऐसे थे जो विशेष कार्य करते थे। ब्राह्मणों में समूहीकृत समय के साथ उच्च जातियों को इसी तरह से अन्य समूहों को भी भारत में विभिन्न जातियों के लिए अग्रणी बनाया गया।
  • विकासवादी सिद्धांत: जाति व्यवस्था सिर्फ अन्य सामाजिक संस्था की तरह है जो विकास की प्रक्रिया के माध्यम से विकसित हुई है।
  • कई सिद्धांत या कई लोगों का सिद्धांत: प्रोफेसर हट्टन ने इस सिद्धांत को स्थापित किया। जाति व्यवस्था आर्यों से पहले से ही भारत में थी लेकिन आर्यों ने हर किसी पर यह लागू करके जाति व्यवस्था को स्पष्ट कर दिया था। भारत में, अजनबियों के संपर्क में आने या छूने का डर था क्योंकि छूने से अच्छा या बुरा हो सकता है। इसलिए लोगों ने खुद को दूसरों के पास आने से रोकना शुरू कर दिया और इसने खाने की आदतों पर प्रतिबंध लगा दिया।

यह माना जाता है कि भारत में जाति व्यवस्था एक व्यक्ति के सिद्धांत या कारक का परिणाम नहीं है बल्कि यह कई कारकों का परिणाम है।

भारत में जाति व्यवस्था का महत्व और इसके बदलते परिदृश्य

हालांकि समय के साथ कई चीजें बदल गई हैं और जाति व्यवस्था भी बदल चुकी है लेकिन फिर भी यह विवाह और धार्मिक पूजा जैसी जीवन की प्रमुख घटनाओं में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। भारत में कई स्थन आज भी हैं जहाँ शूद्रों को मंदिर में प्रवेश करने और पूजा करने की अनुमति नहीं दी जाती है। जबकि क्षत्रिय और वैश्य जाति इस संबंध में पूर्ण अधिकारों का आनंद उठाते हैं।

जाति व्यवस्था समस्याग्रस्त हो जाती है जब इसका उपयोग समाज की रैंकिंग के लिए किया जाता है और साथ ही जब यह प्राकृतिक और मानव निर्मित संसाधनों की असमान पहुँच की अगुआई करता है।

शहरी मध्यवर्गीय परिवारों में जाति व्यवस्था महत्वपूर्ण नहीं है लेकिन यह विवाह के दौरान एक भूमिका निभाती है। यहाँ तक ​​कि इसमें और भी समायोजन किए जाते हैं।

आजादी के साथ-साथ स्वतंत्रता के बाद भी भारत में जाति-आधारित असमानताओं को खत्म करने के लिए कई आंदोलन और सरकारी कार्रवाइयां भी हुईं। निम्न जातियों के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित करने के लिए, गांधीजी ने निम्न जाति के लोगों के लिए ‘हरिजन’ शब्द (भगवान के लोगों) का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था। लेकिन यह शब्द सार्वभौमिक रूप से स्वीकार नहीं किया गया था। उन्होंने एक ही उद्देश्य के लिए एक अलग समूह बनाने की बजाय निम्न जाति के लोगों को सुधारने के लिए प्रोत्साहित भी किया। ब्रिटिश सरकार भी 400 समूहों की एक सूची के साथ आई थी जिन्हें अछूत के रूप में माना जाता था। बाद में इन समूहों को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के रूप में जाना जाता था। 1970 के दशक में अछूतों को दलित कहा जाने लगा।

19वीं सदी के मध्य में ज्योतिराव फुले ने निम्न जाति के लोगों की स्थिति का उत्थान करने के लिए दलितों के लिये आंदोलन शुरू किया। निम्न जाति के लोगों का समर्थन करने के लिए डॉ.बी.आर. अम्बेडकर का योगदान बहुत महत्वपूर्ण था। उन्होंने 1920 और 1930 के बीच एक महत्वपूर्ण दलित आंदोलन शुरू किया। उन्होंने भारत में दलितों की स्थिति सुधारने के लिए स्वतंत्र भारत में आरक्षण की एक प्रणाली भी बनाई। और उनके नेतृत्व में छह लाख दलितों ने बौद्ध धर्म को भी  अपनाया था।

लेकिन आधुनिक भारत में अलग-अलग लोगों के बीच संबंध पूरी तरह से सुगम नहीं हो पाये हैं। जैसा कि अलग-अलग जाति के बावजूद हर कोई एक जगह पर भोजन कर सकता है, पर्यटन स्थल पर जा सकता है लेकिन फिर भी लोग अंतर्जाति विवाह के खिलाफ हैं। व्यवसाय क्षेत्र में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ है क्योंकि अब यह जाति तक सीमित नहीं है।

हालांकि समय के साथ कई परिर्वतन होते हैं लेकिन फिर भी भारत को आज भी इस मुद्दे पर कार्य करने की आवश्यकता है ताकि जाति पर आधारित हमारी  असमानता को समाज से हमेशा के लिये उखाड़ फेका जा सके।