Home / / ओलिम्पिक्स की व्यक्तिगत वॉल्ट इवेंट फाइनलिस्ट दीपा कर्माकर

ओलिम्पिक्स की व्यक्तिगत वॉल्ट इवेंट फाइनलिस्ट दीपा कर्माकर

August 17, 2016


Rate this post
दीपा कर्माकर से भारत क्या सीख सकता है

दीपा कर्माकर से भारत क्या सीख सकता है

दीपा कर्माकर ने रियो ओलिम्पिक्स 2016 में आर्टिस्टिक जिमनास्टिक के व्यक्तिगत वॉल्ट इवेंट के फाइनल में जगह बनाकर इतिहास रच दिया। भले ही उन्हें उनके जादुई ‘प्रोडुनोवा’ वॉल्ट के दम पर पदक न मिला हो और चौथे स्थान से संतोष करना पड़ा हो, उनकी उपलब्धि किसी भी मायने में कम नहीं है। उन्हें जो भी तारीफ और सम्मान मिल रहा है, वह उसकी सच्ची हकदार है।

एक ऐसे देश में, जो ओलिम्पिक पदक पाने के लिए संघर्ष कर रहा हो, त्रिपुरा के अगरतला की रहने वाली दीपा की सफलता अपने आप में खास है। इस समय वह एक विश्व का केंद्र बनी हुई है। एक ऐसी प्रेरक कहानी जो निश्चित ही किसी न किसी दिन रजत पट भी नजर आ जाएगी।

यदि दीपा कर्माकर की उपलब्धि की कोई कहानी है तो देश के लिए एक सबक भी है। हमने कितनी ही बार सभी स्तरों पर खिलाड़ियों को शिकायतें करते सुना है। यह कहते सुना है कि पर्याप्त प्रशिक्षण सुविधाएं, अंतरराष्ट्रीय स्तर का कोच, क्वालिटी का आहार और उचित ट्रेनिंग इक्विपमेंट नहीं है, इस वजह से भारत विश्वस्तरीय खिलाड़ी नहीं पैदा कर पा रहा है।

वैसे, यह किसी न किसी हद तक सही भी है। लेकिन दीपा से पूछिए, यह भी सच है कि उसने ओलिम्पिक स्तर पर रियो में चौथा स्थान हासिल किया। वह भी ऊपर बताई ‘अनिवार्य जरूरतों’ के बिना।
तो त्रिपुरा के एक छोटे से शहर की इस लड़की के इस स्तर तक बिना किसी ‘विश्व स्तरीय’ सुविधाओं के पहुंचने की वजह क्या है?

इसका जवाब उसके समर्पण, प्रेरणा, केंद्र-बिंदु, कडी मेहनत और लक्ष्य के प्रति सच्ची प्रतिबद्धता में निहित है। इसी वजह से उन्होंने वह उपलब्धि हासिल कर ली, जो ज्यादातर को लगता है कि असंभव है। और, वह खुशकिस्मत है कि उसे एक ऐसा कोच मिला जो खुद इस तरह की प्रतिबद्धता पर जीता है।

दीपा कर्माकर और उसके समर्पित कोच बिश्वेश्वर नंदी की कहानी जिमनास्टिक की अन्य प्रतिभाशाली खिलाड़ी नादिया कोमानेकी और कोच बेला करोल्यी से काफी हद तक मिलती-जुलती है।
नादिया ने कम्युनिस्ट रोमानिया में बड़े होते हुए और सभी चुनौतियों का सामना किया और प्रतिस्पर्धी जिमनास्टिक की कला को सीखा। इसमें उनकी प्रोटेक्टिव और कभी-कभी ज्यादा ही उम्मीदें रखने वाले कोच बेला ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

नादियान ने 1976 में मॉन्ट्रियल ओलिम्पिक फाइनल्स में परफेक्ट ‘10’ स्कोर हासिल कर दुनिया को चकित कर दिया था। उस समय तक परफेक्ट ‘10’ का स्कोर हासिल करना इतना आसान नहीं था। उन्होंने
सभी स्पर्धाओं में यह उपलब्धि दोहराई और रिकॉर्ड बुक्स में अपना नाम हमेशा के लिए दर्ज कर लिया।

हो सकता है कि दीपा कर्माकर उस सफलता को छू न सके, लेकिन भारत जैसे देश में उनकी उपलब्धि और उसका महत्व कम नहीं है।

दीपा का पैर फ्लेट यानी समतल है। जिमनास्टिक जैसे खेल में इसे शारीरिक खामी ही माना जाएगा। लेकिन उनके कोच बिश्वेश्वर नंदी ने उसकी प्रतिभा को जाना और निखारा। साथ ही दीपा की प्रतिबद्धता को देखते हुए उन्होंने उसे प्रतिस्पर्धी जिमनास्ट बनाने का प्रण लिया। लेकिन यदि इस युवा लड़की दीपा की इच्छाशक्ति और व्यक्तित्व हेलन केलर जैसी नहीं होती तो वह ऐसा कुछ करने का कभी नहीं सोचती जो इस देश में करने की किसी ने कल्पना भी नहीं की थी।

उनके कोच ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कभी न तो भाग लिया और न ही कभी अंतरराष्ट्रीय स्तर की प्रशिक्षण सुविधाओं का इस्तेमाल किया। हकीकत तो यह है कि उनके पास सिर्फ जूझने और प्रतिस्पर्धा करने की एक इच्छाशक्ति थी, जिसने कोच और उनकी शिष्या को इस मुकाम तक पहुंचाया। इसी की बदौलत दीपा ने रियो 2016 में कमाल कर दिखाया।

वह भले ही 0.15 अंक की वजह से पदक से वंचित रह गई हो, लेकिन उनका चौथे स्थान पर रहना भी उनकी प्रतिबद्धता को दिखाता है। उसने यह बता दिया कि सीमित संसाधनों के बाद भी उपलब्धि हासिल की जा सकती है। दीपा ने अपनी उपलब्धि से यह अच्छे-से बता भी दिया है कि सुविधाओं से ज्यादा जरूरी समर्पण और प्रतिबद्धता है। निश्चित तौर पर वह लाखों भारतीयों को अपने सपने को जीने के लिए प्रेरित करेंगी।

भारत के जिमनास्टिक कोचों के भी फोन बजने लगेंगे और बच्चों के माता-पिता उन्हें फोन कर कोचिंग क्लास के बारे में जानकारी हासिल करने लगेंगे। निश्चित तौर पर दीपा ने अलख तो जगाई है। सरकारी सहयोग के साथ जिमनास्टिक भी देश में नई पहचान हासिल कर सकता है। दीपा जैसे कई चैम्पियन पैदा हो सकते हैं।

भारत में जिमनास्टिक को कभी भी एक प्रतिस्पर्धी खेल की तरह नहीं लिया गया। काफी कम बच्चों को उनके माता-पिता जिमनास्टिक में भेजने का फैसला करते हैं। जब दीपा ने रियो में क्वालिफाई करने के लिए प्रोडुनोवा या ‘डेथ वॉल्ट’ किया तब स्टेडियम खाली थे। किसी की भी रुचि नहीं थी। न ही हौंसला बढ़ाने के लिए वहां ज्यादा भीड़ थी। लेकिन जब फाइनल्स में जब वह डेडली प्रोडुनोवा करने की तैयारी में थी, तब पूरा देश सांसे रोककर टीवी सेट्स से चिपका हुआ था। दीपा कर्माकर की वजह से ही भारत में प्रोडुनोवा जैसा शब्द भी जान-पहचान हासिल कर गया।

लेकिन क्या होता यदि…

यदि डेडली प्रोडुनोवा करते वक्त कोई गलती हो जाती और दीपा को गंभीर चोट लग जाती तो क्या होता? आखिर एक दिन पहले ही फ्रेंच जिमनास्ट समीर ऐट ने गलती की थी। उसने कहा कि वॉल्ट को लेकर उसने गलती की और पैर में कई फ्रेक्चर हो गए। यदि ऐसा होता तो दीपा को भुला दिया जाता। खारिज कर दिया जाता और प्रोडुनोवा की कोशिश करने के लिए अति-महत्वाकांक्षी तक कह दिया जाता।
अब तक दीपा भारत लौट चुकी होती। देश अन्य ब्रेकिंग न्यूज पर चला गया होता। क्या किसी को ओडिशा की बाल प्रतिभा और मैराथन धावक बुधिया सिंह याद है? आज कहां है वो?

लेकिन दीपा ने ऐसा नहीं होने दिया। अब अच्छी खबर यह है कि उन्हें भारत का सबसे प्रतिष्ठित खेल पुरस्कार खेल रत्न से सम्मानित किया जा सकता है। यह सरकार की ओर से अच्छी शुरुआत होगी। लेकिन यदि भारत को दीपा की सफलता को भुनाना है तो खेलों से जुड़े बुनियादी ढांचे में काफी कुछ करने की जरूरत है।

दीपा के लिए, अभी कई मील का सफर करना है… उनकी नजर अब कॉमनवेल्थ और एशियन गेम्स पर होगी। रियो ओलिम्पिक्स अभी खत्म नहीं हुआ है लेकिन दीपा की नजर अभी से टोक्यो 2020 के ओलिम्पिक्स पर है। दीपा की कहानी और प्रतिबद्धता, समर्पण पूरे देश के लिए सबक है। दीपा को आखिर लंबा सफर तय करना है।