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रियो ओलिम्पिक्स में टीम इंडिया

August 24, 2016


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रियो ओलिम्पिक्स में टीम इंडिया

रियो ओलिम्पिक्स में टीम इंडिया

रियो ओलिम्पिक्स 2016 में भारत का प्रदर्शन कभी खुशी कभी गम का रहा। आप कुछ जीते और कुछ हार गए। यहां बात दुनिया के सर्वश्रेष्ठ के मुकाबले अपने प्रदर्शन को बेहतर करने का अवसर भी था। ओलिम्पिक के स्तर पर प्रतिस्पर्धा में भाग लेने का मौका इस वजह से नहीं मिलता कि वह खिलाड़ी अपने देश में शीर्षस्थ है, बल्कि उसे न्यूनतम ओलिम्पिक मापदंडों पर आयोजित क्वालिफिकेशन ट्रायल्स के दौरान अपनी श्रेष्ठता साबित करनी होती है। यह किसी भी तरह से आसान नहीं होता। ओलिम्पिक के लिए क्वालिफाई करना और फिर उसमें अपने देश का प्रतिनिधित्व करना ही एक बहुत बड़ी उपलब्धि है।
ओलिम्पिक खेल सर्वोच्च है। यहां पर भाग लेने वाले प्रत्येक प्रतिस्पर्धी को अपनी व्यक्तिगत क्षमताओं, जैसे- गति, ताकत, आंतरिक बल, धैर्य, शारीरिक दक्षता और सबसे महत्वपूर्ण मानसिक ताकत- को बढ़ाना होगा। ताकि ओलिम्पिक खेलों के दौरान दबाव का सामना कर सके। ओलिम्पिक में सफलता का स्वाद चखने, एक मेडल को हासिल करने के लिए खिलाड़ी कई साल तक ट्रेनिंग लेता है। कड़ी मेहनत करता है। तब जाकर उसके हाथ में एक खिलाड़ी की सबसे बड़ी खेल आकांक्षा यानी ओलिम्पिक मेडल आता है।

किसी भी एक खिलाड़ी को मिलने वाला पदक उसकी व्यक्तिगत उपलब्धि से भी बढ़कर होता है। यह राष्ट्रीय सम्मान और प्रतिष्ठा बन जाता है। एक ओलिम्पियन खेलों में हमेशा से अपने देश का राजदूत रहता है। यहां सिर्फ उस ओलिम्पिक में खेलने वाले खिलाड़ी की भावनाएं जुड़ी नहीं होती, बल्कि उन हजारों, लाखों नागरिकों की भी भावनाएं जुड़ जाती है जिनके देश का प्रतिनिधित्व वह खिलाड़ी करता है।

ऐसे में जब एक खिलाड़ी पदक के लिए अपनी लड़ाई हार जाता है तो यह दर्द न केवल उस खिलाड़ी को बल्कि उसके देश के हर एक नागरिक को होता है। कई मामलों में, यह परिणाम गंभीर आलोचना का कारण बन जाता है। अक्सर खिलाड़ियों को नफरत की सीमा तक इन आलोचनाओं का सामना करना पड़ता है।

भारत का भी ओलिम्पिक्स में विफलताओं का अपना हिस्सा है। जिन खिलाड़ियों से पदक की उम्मीद थी, वह हार गए। उन्हें देश लौटने पर प्रतिकूल टिप्पणियों का सामना करना पड़ा। यह एक त्रासदी है।

इसके दो पहलू है। कई लोगों के लिए ओलिम्पिक खेलों में भाग लेना ही काफी होता है। जबकि कुछ के लिए क्वार्टर फाइनल या सेमी फाइनल तक पहुंचना भी उस खेल गतिविधि में एक बड़ी उपलब्धि होती है। इसके बाद भी कुछ ऐसे खिलाड़ी भी हैं, जिन्हें स्वर्ण पदक से नीचे कुछ भी मंजूर नहीं।

1.3 अरब लोगों के भारत देश में ज्यादातर खिलाड़ी शुरुआती दो श्रेणियों में आते हैं। ओलिम्पिक में प्रतिनिधित्व और क्वार्टर या सेमी फाइनल तक पहुंचने का मौका। काफी कम ऐसे हैं, जिनके लिए स्वर्ण पदक से नीचे कुछ भी मंजूर नहीं।

ओलिम्पिक गेम्स में पदक जीतना राष्ट्रभक्ति की भावना का महज प्रदर्शन नहीं है, बल्कि कड़ी मेहनत, इच्छाशक्ति, केंद्रित योजना, विस्तृत तैयारी, प्रदर्शन में सुधार के साथ ही पर्याप्त अंतरराष्ट्रीय अनुभव के अलावा किसी भी स्थिति में जीतने की इच्छा का नतीजा है। खेलों से जुड़े सभी लोगों में, सिर्फ खिलाड़ी नहीं… ओलिम्पिक स्तर की विशेषज्ञता जरूरी है, अन्यथा पदक नहीं आएंगे। नियम के बजाय अपवाद ही बने रहेंगे।

तो रियो में क्या हुआ?

रियो में निशानेबाजी और तीरंदाजी में पदक मिलने की उम्मीद सबसे ज्यादा थी। इसके बाद टेनिस और कुश्ती में भी पदक मिलने थे। निशानेबाजी को ही लीजिए। गगन नारंग, अभिनव बिंद्रा, जीतू राय, मानवजीत सिंह संधू, हिना सिद्धू, अपूर्वी चंडेला जैसे निशानेबाजों ने कई प्रतियोगिताओं में बेहतरीन प्रदर्शन किया था। इनमें विश्व चैम्पियनशिप भी शामिल है। इसी वजह से उनसे पदक की उम्मीद बढ़ गई थी। लेकिन वह अपने प्रदर्शन को ओलिम्पिक में नहीं दोहरा पाए।

हम इसके लिए खराब उपकरणों को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते और न ही कोच या प्रशिक्षण या आहार को। वे सभी सही समय पर रियो पहुंच गए थे ताकि स्थानीय माहौल से अभ्यस्त हो सके। ऐसे में विफलता का एक बड़ा कारण यही दिख रहा है कि वे ओलिम्पिक की चुनौतियों का सामना नहीं कर सके। लोगों की आकांक्षा और ओलिम्पिक स्तर के दबाव पर खरे नहीं उतर सके, जिससे उनका प्रदर्शन बिगड़ गया।

तीरंदाजी में भी कहानी जुदा नहीं है। दीपिका कुमारी, बोम्बायला देवी और लक्ष्मीरानी मांझी लंबे समय से विश्व स्तरीय मुकाबलों में बहुत अच्छा प्रदर्शन कर रही थीं। ओलिम्पिक से ठीक पहले दीपिका कुमारी ने रिकर्व कैटेगरी में वर्ल्ड रिकॉर्ड की बराबरी की थी। टीम ने अगस्त 2015 में कोपेनहेगन में आयोजित वर्ल्ड चैम्पियनशिप में रजत पदक जीता था।

तो वे रियो में पदक की दौड़ में पीछे क्यों रह गए? टीम के साथ-साथ व्यक्तिगत श्रेणियों में भी वह अपनी ही उम्मीदों पर खरी नहीं उतर सकीं। यहां भी उपकरण, मौसम, कोच या किसी और को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। यह सिर्फ मीडिया और भारत में मुकाबले देख रहे लाखों लोगों का दबाव और अत्यधिक उम्मीदें ही थी, जिन्होंने कहीं न कहीं प्रदर्शन को प्रभावित किया।
वर्ल्ड चैम्पियनशिप्स समेत अन्य प्रतियोगिताओं को उतनी तवज्जो मीडिया नहीं देता, जितना ओलिम्पिक को मिलती है। इसी वजह से वे वहां अच्छा प्रदर्शन कर जाते हैं और ओलिम्पिक में नाकाम हो गए।

टेनिस में, पुरुषों के युगल के साथ-साथ मिश्रित युगल मुकाबलों में भारत को पदक की उम्मीद थी। पुरुषों के युगल मुकाबलों के लिए अनुभवी लिएंडर पेस और रोहन बोपन्ना साथ थे। वहीं सानिया मिर्जा मिश्रित युगल में बोपन्ना के साथ खेल रही थीं।

लेकिन भारत को अपना पदक ओलिम्पिक शुरू होने से पहले ही हार गया था। बोपन्ना ने सार्वजनिक तौर पर कह दिया था कि उनकी लिएंडर पेस के साथ खेलने की कोई इच्छा नहीं है। हमारा देश पदक इन खिलाड़ियों के अहंकार की वजह से हारा, प्रतिस्पर्धा की वजह से नहीं। यदि खेलते तो निश्चित तौर पर पदक की दौड़ में होते। सानिया और बोपन्ना ने हालांकि उस दिन अच्छी जोड़ी से शिकस्त खाई।

मुक्केबाजी में एक-दो कांस्य पदक तो मिलने चाहिए थे। शिवा थापा, मनोज कुमार और विकास कृष्णन से उम्मीदें थी, लेकिन एक भी खरा नहीं उतरा। 64 किग्रा श्रेणी में मनोज कुमार का मुकाबला अपने से युवा उज्बेक मुक्केबाज से था। मनोज कुमार की पहुंच भी ज्यादा थी। लेकिन वे अपने प्रतिस्पर्धी को न तो दूर रख सके और न ही स्कोर कर सकी। मनोज कुमार फुटवर्क में पिछड़ गए और यहीं उज्बेक मुक्केबाज ने उन्हें शिकस्त दी।

ऐसा नहीं है कि इन फाइटर्स ने अपनी ओर से श्रेष्ठ कोशिश नहीं की, बल्कि उनकी श्रेष्ठ कोशिश ही नाकाफी साबित हुई। तीनों ही तकनीक, गति और फुटवर्क के मामले में पिछड़ते नजर आए। भारत को अपने खिलाड़ियों की ट्रेनिंग को और मजबूती देनी होगी, बजाय कि खिलाड़ियों से उम्मीदें बांधकर उन्हें उसके पहाड़ के नीचे कुचलने के।

कुश्ती की अपनी कहानी है। नरसिंह यादव और सुशील कुमार में अलग ही विवाद छिड़ा था कि ओलिम्पिक में कौन जाएगा। बहुत ही बदसूरत चेहरा सामना आया, जो कभी भी आगे नहीं होना चाहिए। लेकिन योगेश्वर दत्त तो फिट भी थे और पदक के लिए दहाड़ रहे थे। उनके आसपास बनी हाइप ने उन्हें स्वर्ण पदक का गंभीर दावेदार समझ लिया था। लेकिन वे पहले ही दौर में हार गए। मंगोलियाई पहलवान ने उन्हें उठने का मौका तक नहीं दिया। पदक की बहुत उम्मीद की थी उनसे। यहां भी, योगेश्वर दत्त ही नहीं चूके, बल्कि हम पदक से चूक गए जो बहुत मायने रखता था।

विफलता के मुख्य कारण

सरकार को देश में खेल प्रशासन की समीक्षा करने की आवश्यकता है। उसे हर खेल के हिसाब से उचित बुनियादी ढांचा भी देना चाहिए। ओलिम्पिक स्तर पर हमारे खराब प्रदर्शन की मुख्य वजह हैः

•खेल संस्कृति की कमी। विभिन्न खेलों की प्रशासनिक संस्थाएं भी कम उम्र में प्रतिभाओं की पहचान करने और उन्हें निखारने में नाकाम ही रही हैं। उनकी नजर भविष्य के ओलिम्पिक चैम्पियनों पर रहती ही नहीं है।
•जो खिलाड़ी उच्च स्तर पर प्रदर्शन नहीं कर पाते, उन्हें रोजगार के पर्याप्त अवसर उपलब्ध नहीं है। इस वजह से खेलों को कोई गंभीरता से नहीं लेता।
•खेलों का बुनियादी ढांचा भी बहुत अच्छा नहीं है। ओलिम्पिक के मापदंडों से काफी पीछे। जो उपलब्ध है वह भारत में खेलों की संस्कृति को जायज ठहराने के लिए काफी नहीं है।
•खेल प्रशासन संस्थाओं की अकर्मण्यता
•प्रतिबद्ध प्रशिक्षकों की कमी, जिन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर की प्रशिक्षण तकनीक की जानकारी हो
•विश्वस्तरीय सुविधाओं को सहयोग करने के लिए पर्याप्त फंड की कमी, उचित आहार और प्रशिक्षण सामग्री उपलब्ध करानी होगी
• योग्य स्पोर्ट्स मेडिसिन डॉक्टर्स की कमी, फिजियोथेरेपिस्ट और स्पोर्ट्स फिजियोलॉजिस्ट की कमी
• कम उम्र में अंतरराष्ट्रीय स्तर का एक्पोजर नहीं मिल पाना

ओलिम्पिक सपने को हकीकत में बदलने का रास्ता

यदि हमें आत्मविश्वास के साथ टोक्यो 2020 में पदक जीतना है तो सरकार को तत्काल और निर्णायक कदम उठाने होंगे। पीवी सिंधु और साक्षी मलिक ने निश्चित तौर पर भारत का मान बढ़ाया। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि उन पर ओलिम्पिक पदक का दबाव नहीं था। इसी तरह से अंडरडॉग साबित हुई दीपा कर्माकर, जिन्होंने ओलिम्पिक खेलों की आर्टिस्टिक जिमनास्टिक प्रतियोगिता में भाग लेने वाली पहली महिला खिलाड़ी होने का गौरव हासिल किया। साथ ही ग्रीष्मकालीन खेलों में भारत की उछाल को भी ताकत दी।
हमें हमारी सफलता का रास्ता बनाना होगा। सभी संबंधित पक्षों को साथ आना होगा और ऊपर बताई कमियों को दूर करने पर ध्यान देना होगा। क्या सरकार इसके लिए तैयार है?