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सिंधु जल संधि उरी हमलों के बाद भारत का सबसे बड़ा हथियार

May 24, 2017


Indus-Water-Treaty-hindiउरी हमलों और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की शर्मनाक और शोंचनीय अस्वीकृति के बाद, भारत ने पाकिस्तान पर दबाव बढ़ाने का फैसला लिया है। भारत सरकार ने एक नया आक्रामक रुख अपनाते हुए सिंधु जल संधि को खत्म करने का फैसला लिया है। संयुक्त राष्ट्र महासभा (यूएनजीए) के एक सत्र में अपने हालिया संबोधन के दौरान पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने भारत के दो प्रमुख राजनीतिक दलों (भाजपा और काग्रेंस) से पूरी तरह से उरी हमलों से इनकार कर दिया है।

उन्होंने सवाल किया है कि कैसे भारत के पड़ोसी देश पूरी तरह से यह तर्क दे सकते हैं कि इस चौंकाने वाले आतंकी हमले का उनके अपने क्षेत्र पाकिस्तान में इसका स्रोत था। एक बड़ा सवाल यह है, कि इस तथ्य पर विचार करने पर यह पहले ही साबित हो चुका है कि आतंकवादी पाकिस्तान से आए थे।

अफगानिस्तान भारत के पक्ष में

यूएनजीए के सत्र में, पाकिस्तान पर दबाव बनाने में अफगानिस्तान भारत के पक्ष में आ गया है। अफगानिस्तान के उपराष्ट्रपति सरवर दानेश ने बिलकुल स्पष्ट रूप से कहा है कि पाकिस्तान को हक़ीकी नेटवर्क और तालिबान जैसे आतंकवादी संगठनों को प्रशिक्षण, पैसा और उपकरण उपलब्ध कराने के मामले में दोषी ठहराया जाना चाहिए, इन आतंकवादी संगठनों ने कई वर्षों से अफगानिस्तान में तबाही मचा रखी है।

सिंधु जल संधि क्या है?

सिंधु जल संधि 19 सितंबर 1960 को भारतीय प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान द्वारा हस्ताक्षरित एक संधि है। कराची में विश्व बैंक के आदेश पर इस संधि पर हस्ताक्षर किए गए थे। विश्व बैंक ने दो देशों के बीच उत्तरी भारत में बहने वाली छह नदियों को विभाजित किया था। इस मामले में पाकिस्तान निचला तटवर्ती राज्य हो सकता है, लेकिन इसके पास सिंधु, चिनाब, और झेलम पर विशेष अधिकार प्राप्त हैं।

इसी बीच भारत, पंजाब राज्य से शुरू होने वाली पूर्वी नदियों बीस, सतलज और रावी पर नियंत्रण रखता है। इन नदियों से पाकिस्तान के पूरे क्षेत्र के 20% यानी 110,000 वर्ग किलोमीटर में सिंचाई होती है और इन नदियों का जल पाकिस्तान की 60% जनसंख्या के लिये आवश्यक है।

ये नदियाँ सिंध प्रांत और पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के पूर्वी भाग में सिंचाई के लिये जिम्मेदार हैं, इन क्षेत्रों में पाकिस्तान की ज्यादातर खाद्यान फसलें उगाई जाती हैं।

ये नदियाँ पंजाब के दक्षिणी हिस्सों में स्थित आतंकवादी संगठनों जैसे जैश-ए-मोहम्मद (जेईएम) और लश्कर-ए-तैयबा (एलईटी) के लिये बहुत महत्वपूर्ण हैं। 1965, 1971 और 1999 के युद्धों के बावजूद भी इस संधि में कोई कमजोरी नहीं आयी थी।

1947 में पंजाब के विभाजन के बाद यह आवश्यक हो गया। इसका अर्थ यह था कि सिंधु घाटी की सिंचाई व्यवस्था के स्रोत भारत में होने के बावजूद इसका प्रवाह पाकिस्तान की तरफ होता था। स्वतंत्रता के बाद, पाकिस्तान में कुछ समस्याएं थीं कि क्या होगा अगर भारत ने नदियों को अपने क्षेत्र में बहने से रोक दिया? इसके बाद एक समझौते में निर्णय लिया गया कि नदियों को व्यवस्थित रूप से बहने की अनुमति दी जाएगी। इसने दोनों देशों को इस समझौते को पारस्परिक रूप से स्वीकार्य करने के लिए पर्याप्त समय दिया गया।

हालांकि, पाकिस्तान अभी भी संतुष्ट नहीं था, शायद उसे यह डर था कि कहीं भारत बलूचिस्तान, जम्मू और कश्मीर के साथ उसी तरह व्यवहार करेगा। संयोग से, पाकिस्तान ने अपने क्षेत्र में इन राज्यों की सत्ता संभालने के लिए बल का इस्तेमाल किया था, हालांकि यह संबंधित राज्यों के अधिकारियों से सहमत था कि ऐसी कोई भी अनहोनी नहीं होगी।

पाकिस्तान ने सहायता के लिये आमेरिका से भी पूछा। उन्होंने टेनेसी घाटी प्राधिकरण के पूर्व अध्यक्ष डेविड लिलेन्थल और अमेरिकी परमाणु ऊर्जा आयोग को एक पत्रकार के रूप में इस मुद्दे को निपटाने के लिए भेजा। लिलेन्थल ने सुझाव दिया कि घाटी क्षेत्र के विकास के लिए दोनों देशों को एक साथ आना चाहिए, ताकि दोनों देश अधिक फसलें उगा सकें। उन्होंने यह भी आशंका जताई कि समझौता न होने की दशा में युद्ध भी हो सकता है, इसलिए उन्होंने सलाह दी कि विश्व बैंक को इन दोनों देशों के स्वीकार्य समाधान में मदद हेतु मध्यस्थता करने के लिए कहा जा सकता है।

भारत और पाकिस्तान दोनों देशों ने इस पर सहमति व्यक्त की और कुछ विचार विमर्श के बाद, 1954 में एक मसौदा समझौता तैयार किया गया। हालांकि पाकिस्तान ने, कई बेहतर शर्तों पर हामी भरी और फिर इन शर्तों को स्वीकार करने से इनकार कर दिया। इसमें विश्व बैंक की भूमिका एक बिचौलिये की थी लेकिन वह एक न्यायाधीश बन गया था। इससे पहले, विश्व बैंक ने भारत को अपनी पूरी तरह से तकनीकी भूमिका का आश्वासन दिया था, जब देश ने अपनी भागीदारी पर आपत्ति जताई थी। आखिरकार, 1995 में एक समझौता हुआ जो ज्यादातर 1954 के समझौते के समान था।

संधि के अनुसार, भारत को पाकिस्तान के नियंत्रण में नदियों के इस्तेमाल के लिये गैर- उपभोग के कार्यों जैसे पीने के पानी की अनुमति दी गई थी। तटवर्ती राज्य होने के कारण, पाकिस्तान को 80% नदियों का पानी मिला, जो पानी की एक बड़ी मात्रा है।

आखिरी संधि के अनुसार, पाकिस्तान को अनुदान और आसान ऋण प्रदान किया गया था ताकि यह वैकल्पिक सिस्टम बना सके। यहाँ तक ​​कि भारत को कुछ राशि उसी में प्रदान करना चाहिए था।

अब, किसी को कुछ सवाल पूछने की जरूरत है किः भारत ने ऐसी अपमानजनक शर्तों पर सहमति क्यों व्यक्त की? अपने देश में अनिवार्य रूप से बहने वाली इन नदियों के बारे में यह विश्व बैंक की भागीदारी के लिये क्यों सहमत हुआ?

1949 में शीत युद्ध शुरू हुआ, और जल्द ही पाकिस्तान अमेरिका और ब्रिटेन के नेतृत्व में पश्चिमी गुट का मित्र बन गया। भारत को भी विकास के लिये बहुत अधिक धन की आवश्यकता थी और पूर्ववर्ती देश इसके सबसे बड़े दानकर्ता थे। यह विश्व बैंक तक अधिक पहुँच चाहता था। वास्तव में उस समय भारत कुछ नहीं कर सकता था।

1970 में, पाकिस्तान द्वारा विवाद निपटान करने की माँग पर यह संधि लागू की गयी थी। सबसे पहले, 2007 में यह बग्लाहार मामले के लिये एक तटस्थ निपुणता चाहता था और तब इसने 2010 में किसान गंगा विवाद को उठाया, जिसका स्थाई कोर्ट ऑफ आर्बिट्रेशन (पीसीए) द्वारा निपटान किया गया था। अपने अंतिम और अंतरिम दोनों फैसलों में पीसीए ने, भारत को बड़ा क्षतिपूर्ण झटका दिया और पश्चिमी नदियों का कम से कम इस्तेमाल करने की अनुमति दी। इससे जम्मू और कश्मीर में पर्याप्त बिजली का उत्पादन करने और अन्य विकास संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये भारत की उम्मीदों पर काफी बुरा प्रभाव पड़ा।

संधि के अनुसार, भारत को कश्मीर में पश्चिमी नदियों पर किसी भी प्रकार की परियोजनाओं को शुरू करने के लिये सिंधु जल आयोग की अनुमति लेनी होगी। पाकिस्तान ने भारत द्वारा नदियों पर किये जाने वाले किसी भी बल्कि हर विकास परियोजना पर अनावश्यक आपत्तियों को बढ़ाकर इस कानून का पूर्ण उपयोग किया है।

हालांकि, अब विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता विकास स्वरुप ने अपनी निरंतरता पर इस बाध्य के रूप में पाकिस्तान की इन अनावश्यक आपत्तियों पर कई प्रश्न उठाये हैं, हालातों को देखते हुए इसे एक हानिकारक मोड़ आने की उम्मीद की जा सकती है।

स्वरूप ने क्या कहा?

स्वरूप ने सही कहा है और ऐसा कहा भी जा सकता है कि संधि में बहुत से मतभेद मौजूद हैं। उन्होंने एक संकेत देते हुए कहा कि ऐसी संधियों के लिये यह आवश्यक है कि दोनों पक्ष एक दूसरे पर भरोसा करने में सक्षम हों और एक दूसरे का सहयोग भी करते हों। उन्होंने कहा, कि ऐसे रिश्ते वास्तव में एकतरफा नहीं हो सकते हैं, ऐसा लगता है कि पाकिस्तानी मिट्टी से उपजने वाला आतंकवाद दोहराये जाने वाले यह कृत्य और इन सब के बाद उसका इन्कार उसके साथी बन गये हैं।

भारत के प्रति पाकिस्तान के आमतौर पर शत्रुतापूर्ण संबंधों के चलते कई विशेषज्ञ इस संधि की जाँच पड़ताल कर रहे हैं। संयोग से, आईडब्ल्यूटी के अनुसार, संधि आपसी भाईचारे पर आधारित होती है और इन संधियों में विश्वास के महत्व के बारे में स्वरुप के विचार काफी हद तक सही हैं।

विश्लेषकों की राय
प्रसिद्ध विश्लेषक, ब्रह्मा चेल्ने ने कहा है अगर पाकिस्तान सिंधु संधि को कायम और पश्चिमी नदियों में पानी की अधिकता बनाये रखना चाहता है, तो पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत अपने दूसरे कर्तव्य को भी पूरा करना होगा (अंतरराष्ट्रीय कानून के अनुसार) इस मामले में पाकिस्तान को अपनी नदियों के तट को साझा कर रहे पड़ोसी देश भारत पर हमला कर रहे संरक्षित आतंकवादियों को रोकना होगा। उन्होंने संधि के कानून पर वियना सम्मलेन के अनुच्छेद 62 का उल्लेख किया, यह अनुच्छेद हालात के मूलरूप रूप से बदलने पर संधि को भंग करने की अनुमति देता है। उनके इस कथन को पूर्व विदेश मंत्री यशवंत सिन्हा ने भी समर्थन दिया है।
हालांकि, कुछ विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि भारत इस मामले में बहुत आगे बढ़ने में सक्षम नहीं होगा, क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय ट्रिब्यूनल किसी भी तरह हस्तक्षेप करेगा और इस संधि को बहाल कर देगा। भारत को भी कश्मीर में इन नदियों को बंद करने में काफी मुश्किल होगी या उन्हें पीर पांचाल पर्वत से निकलने वाली किसी अन्य नदी के साथ जोड़ना होगा

भारत के लिए राजनयिक विजय

22 सितंबर, 2016 को भारत ने पाकिस्तान पर राजनयिक जीत हासिल की। यूएनजीए सत्र के दौरान, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने अपने भाषण के 80 प्रतिशत भाग में कश्मीर के मुद्दे पर बात की और उस दिन 50 देशों में से किसी भी देश ने पाकिस्तान को अपना समर्थन नहीं दिया। स्वरूप के अनुसार, संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने भी शरीफ द्वारा प्रदान किए गए दस्तावेज को अस्वीकार कर दिया, जिससे यह स्पष्ट हो गया कि संयुक्त राष्ट्र संघ कश्मीर मुद्दे पर कोई भी कदम नहीं उठाएगा। सचिव ने संकेत दिया कि भारत और पाकिस्तान को इस मुद्दे को पारस्परिक समझौते से हल करने की आवश्यकता है।

सार्क शिखर सम्मेलन में भारत
19 वाँ सार्क शिखर सम्मेलन 9 और 10 नवंबर को इस्लामाबाद के मुर्री में आयोजित होने की उम्मीद है। इस सम्मेलन में भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का भाग लेना अभी संदेह में है। कुछ लोगों का विचार है कि भारत पाकिस्तान को एक आतंकवाद प्रायोजक राष्ट्र घोषित कर सकता है, लेकिन स्वरूप ने कहा कि यह निर्णय कुछ आंतरिक कानूनी प्रक्रियाओं के बाद ही लिया जायेगा। उन्होंने भारत पाकिस्तान के बीच संबंधो को तोड़ने वाले सुझावों को भी नकार दिया है। भारत के विदेश सचिव ने 21 सितंबर को पाकिस्तान के उच्चायुक्त के सामने एक कार्यवाही रिर्पोट पेश की। स्वरूप ने कहा कि यदि देश में कोई राजनयिक संबंध नहीं हैं, तो राजनयिक रूप से विरोध करने का भी कोई मौका नहीं हो सकता है।

राजनीतिक पार्टियों की प्रतिक्रिया

कांग्रेस और भाजपा दोनों ने ही पाकिस्तान को कश्मीर के मुद्दे को छेड़ने और भारत के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप रोकने के लिए कहा है। कांग्रेस के प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा है कि उरी हमलों से इंकार करते हुए पाकिस्तान दुनिया भर में बिना कुछ महसूस किये स्वयं का मजाक बना रहा है। उन्होंने पाकिस्तान को दुनिया में आतंकवाद का सबसे बड़ा निर्यातक देश माना है।

उरी हमलों पर भारत की प्रतिक्रिया

18 सितंबर को जो हुआ, इसके बावजूद भारत को हथियारों और हिंसा से बदला लेने की उम्मीद नहीं थी। विभिन्न संगठनों से इस घिनौने हमलों का बदला लेने के लिये और लोगों की कड़ी प्रतिक्रियाओं के बाद सरकार ने यह रूख अपनाया है। आईडब्ल्यूटी भारत को बदला लेने के लिये एक सबसे अच्छी जगह है। जितना चेलानी चाहते हैं कि भारत संधि से पूरी तरह से पीछे हट जाए, इस मामले में उनके इस तरह के रूख के लिये या इसके विघटन के लिये यहाँ कोई प्रावधान नहीं हैं। इन सब के बावजूद निश्चित रूप से यह एक अच्छा विकल्प है कि भारत अब इसके बारे में सोच रहा है। यह भी उम्मीद है कि इस तरह की संभावना को देश के विभिन्न क्षेत्रों से भरपूर समर्थन मिलेगा।

आईडब्ल्यूटी को खत्म करने के संभावित अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव

यदि भारत वास्तव में आईडब्ल्यूटी को खत्म कर देता है, तो पाकिस्तान एक वास्तविक रेगिस्तान बन जाएगा। इस मामले में आमेरिका के हस्तक्षेप करने की संभावना है क्योंकि पाकिस्तान उसके लिये एक महत्वपूर्ण देश है। यह भी एक संभावना है कि भारत के साथ कम से कम संबंध रखने वाला देश, चीन भी पाकिस्तान का एक सहयोगी देश है इसलिये यह किसी भी निश्चित फैसले पर पहुँचने में एक बड़ा बाधक है। क्या भारत पीपीए के फैसले को अंतिम रूप में स्वीकार न करने में चीन की अगुवाई का पालन कर सकता है। कम से कम, जो कुछ हद तक विवादित मामलों को कम कर सकता है।

हालांकि, यदि संधि वास्तव में खत्म कर दी गई तो जम्मू और कश्मीर के नेताओं को बहुत खुशी होगी क्योंकि इन नेताओं ने हमेशा से इस संधि को हटाने के लिए कहा है। वे पूरी तरह से जानते हैं कि इस संधि से पूरे क्षेत्र को किस प्रकार नुकसान होता है। राज्य में 20,000 मेगावाट बिजली उत्पादन की क्षमता है लेकिन संधि प्रतिबंधों के कारण यह केवल 2500 मेगावाट बिजली का उत्पादन कर पाता है। भारत संधि से बाहर निकल सकता है और यह भी दिखा सकता है कि पाकिस्तान भारत विरोधी आतंकवादियों के लिये एक प्रजनन स्थल है और यह एक व्यवहारिक कारण है।