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यह समय है जाति आधारित आरक्षण को खत्म करने का

August 18, 2017


Is-it-time-for-Reservations-to-go-hindiमैं पिछले हफ्ते एक मार्केटिंग गुरु के पास गई जिन्होंने मुझे कुछ साधारण लेकिन बहुत गहरे तथ्य बताए। उन्होंने कहा “यदि सामग्री राजा है, तो संदर्भ भगवान है।” लगभग उसी समय मैंने एक ऐसे विषय पर लेख पढ़ा जिससे लगभग सभी लोग परिचित हैं, कैसे मेधावी छात्र अपनी पसंद के प्रतिष्ठित महाविद्यालयों में प्रवेश पाने में असफल रहे क्योंकि आरक्षित कोटा के कारण इन सीटों पर कम मेधावी छात्रों का प्रवेश हो गया था इसका कारण यह था कि इसमें प्रवेश लेने वाले अधिकांश छात्र किसी विशेष जाति में पैदा हुए थे या अल्पसंख्यक धर्म से संबंध रखते थे। आधुनिक भारत में कोटा या आरक्षण प्रणाली एक ऐसी चीज है जो है तो लेकिन इसका कोई संदर्भ (विशेष पहचान) नहीं है।

भारत में आरक्षण को कुछ विशेष जातियों के लिए लागू किया गया था जो अपने आप में बहुत ज्यादा जाति प्रणाली की तरह ही था। अब जाति व्यवस्था का अर्थ व्यावसायिक विभाजन हो गया है, जो इस तरह हो गया है जैसे बढ़ती उम्र के साथ चेहरे की सुंदरता खत्म हो जाती है। पिछड़ी जातियों का समाज की मुख्य धारा में आना प्रतिबंधित था और यह छुआछूत और सामाजिक बुराइयों की वजह बन गया इसने शत्रुता के एक दमकारी माहौल को जन्म दिया। इस बात को कोई भी नकार नहीं सकता है कि जाति, धर्म और पंथ के आधार पर सामाजिक भेदभाव मानव समाज के सबसे बुरे और अमानवीय व्यवहारों में से एक है। पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण प्रणाली को सबसे पहले भारत के औपनिवेशक शासकों द्वारा भारत सरकार के अधिनियम 1909 में दिया गया था। इस बात से कोई प्रभाव नहीं पड़ता है कि कितना अधिक भेदभाव किया जाता है। जब ब्रिटिशों को लगने लगा कि भारत में उनकी पकड़ ढीली हो रही है तब उन्होंने देश में एक सकारात्मक धार्मिक भेदभाव फैलाने का फैसला किया, बाद में आरक्षण को धर्म के आधार पर देखा जाने लगा। मुस्लिमों और सिखों, भारतीय ईसाई और एंग्लो इंडियंस तथा हिंदुओं और यूरोपीय सभी के उनके प्रतिनिधित्व का कोटा प्राप्त था। इस आरक्षण में दलितों का भी अपना हिस्सा होता होगा।

आरक्षण की आवश्यकता

1950 के दशक तक होने वाले हिंसक विभाजनों और बढ़ते सामाजिक बँटवारे के कारण आरक्षण प्रणाली को लागू करना बहुत जरूरी हो गया। पिछड़ी जातियों के लिए परंपरागत रूप से शिक्षा, नौकरी के अवसर और विकास की संभावनाओं को देखते हुए यह बहुत ही जरूरी हो गया था कि उनके कंधे से कंधा मिलाकर साथ दिया जाए और सकारात्मक कार्रवाई की जाए। 1954 से 1978 के बीच हमनें जाति और धर्म पर आधारित कई आरक्षण और कोटा प्रणालियों को देखा। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों के लिए शैक्षणिक संस्थानों में 20 प्रतिशत आरक्षण निर्धारित किया गया था। अब तक, यह तो समझने योग्य था लेकिन साथ में दो अन्य प्रणालियों, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों के लिए योग्यता के मानकों में छूट और सार्वजनिक सेवाओं और रोजगार के अवसरों में आरक्षण कोटा, को पेश किया गया था जो आने वाले वर्षों में बहुत ही ज्यादा कष्ट का कारण होंगी।

ध्यान को आकर्षित करने वाले सवाल

संदर्भ के कारक पर वापस आते हैं, अब हमारे देश को ब्रिटिश शासन से आजाद हुए सात दशकों से अधिक का समय हो चुका है। यह समय है जहाँ पर हमें एक कदम पीछे आकर वहाँ पर अपनी नजर डालनी होगी जहाँ से हमें आरक्षण मिला।

  • मंडल आयोग के बाद से लगभग 50 साल बीत चुके हैं। आयोग द्वारा की गई सिफारिशें (1931 की जनगणना के आधार पर) आधुनिक समय में शायद ही प्रासंगिक हो सकती हैं। इसकी सिफारिशों को स्वीकार और इन पर अमल किये जाने के करीब 25 साल बीत चुके हैं। राजनीतिक दलों के वोट बैंक को मजबूत और सुरक्षित रखने के लिए हमें जाति और धर्म के नाम पर बाँटा जा रहा है। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, ओबीसी और अल्पसंख्यक छात्रों की संख्या पर कोई विश्वसनीय लिखा पढ़ी (डेटा) उपलब्ध नहीं है जिनका मेरिट को चकमा देकर उच्च शिक्षण संस्थानों में प्रवेश लिया जाता है। क्या यह इसके लिए सही समय नहीं है?
  • वोट बैंक एक ऐसी चीज है जो पूरे देश में नियमित रूप से दलितों, अल्पसंख्यकों और ऊँची जातियों में फूट डलवाता है। इस समय हम किसी की ऊँची जाति को किस प्रकार परिभाषित करते हैं? क्या उसकी आर्थिक पृष्ठभूमि के आधार पर? क्योंकि अगर यह सच्चाई होती तो आरक्षण और कोटा प्रणाली को समाज के गरीब और कमजोर वर्ग के छात्रों और युवाओं को प्रोत्साहित करने के लिए लागू किया जाता इसके बजाय की वह किस धर्म जाति में पैदा हुए हैं।
  • कितनी दूर है और कितना पास है? भारतीय संविधान देश के राज्यों को अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों का उत्थान करने के लिए स्वयं के कानून बनाने की अनुमति देता है। तमिलनाडु राज्य में जाति आधारित आरक्षण और कोटे में सामान्य श्रेणी को 31 प्रतिशत की अनुमति दी गई है जो करीब 69 प्रतिशत पर है। ज्यादा क्या है, राज्य के करीब 87 प्रतिशत से अधिक लोगों को इस कोटे के तहत आवेदन करने के लिए पात्र माना जाता है। क्या यह अब और समझ में आता है?
  • एक तरफ तो हमनें जाति आधारित भेदभाव को खत्म करने में दशकों तक प्रयास किया है। आमतौर पर हम लोग इस बात को स्वीकार करते हैं कि बहुत से संस्थानों ने इस योग्यता को समाप्त कर दिया है। लेकिन क्या हम जाति-आधारित आरक्षण को बढ़ावा देने वाली प्रणाली को समाप्त करने की कोशिश कर रहे हैं? जाति आधारित मूल आरक्षण को केवल 10 साल के लिए लागू किया गया था (1978 में कहा गया था कि प्रत्योक 10 साल बाद पिछड़े वर्ग की स्थिति की समीक्षा की जाये, इसको कभी भी लागू नहीं किया गया) इसे केवल राजनीतिक हित के लिए और आगे तक विस्तारित कर दिया गया था। किसी बीमारी को ठीक करने के लिए उचित दवा की उचित समय तक आवश्यकता होती है, लेकिन यदि किसी को ठीक होने के बाद फिर से वही दवा लंबे समय तक दी जाये तो उसको फिर से बीमार होना पड़ सकता है। और यही आरक्षण और कोटा प्रणाली के साथ हो रहा है।
  • शायद यही ठीक समय है कि हम अपनी सामाजिक स्थिति पर गौर करें और समाज के पिछड़े वर्गों को फिर से सामाजिक और आर्थिक रूप से परिभाषित करें। एक ऐसा छात्र जो अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति या पिछड़े वर्ग में जन्म लेता है और उसके माता-पिता बहुत ही धनी हैं, क्या उसको भी दूसरों के जैसा आरक्षण या कोटे का लाभ मिलता चाहिए? आखिर क्या कारण है कि आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग चलाई गई बड़ी-बड़ी योजनाओं का लाभ नहीं ले पाते हैं।
  • हाल ही में होने वाले पटेल आदोलन ने यह सिद्ध कर दिया है कि जाति आधारित कोटा और आरक्षण प्रणाली ने काफी समय से अपनी प्रासंगिकता को आगे बढ़ा लिया है। आमतौर पर पटेल समुदाय बहुत ही धनी समुदाय है, इस समुदाय को न तो सामाजिक भेदभाव और न ही आर्थिक अभाव का सामना करना पड़ता है। इस प्रकार के अधिकार का क्या अर्थ है जो इस तरह के समुदाय के युवाओं को एक सकारात्मक कार्यवाई में शामिल होकर लड़ाई करने को प्रेरित करता है?
  • हिंदू धर्म में प्रचलित जाति आधारित प्रणाली की मार से बचने के लिए धर्म परिवर्तन एक बहु प्रचलित अभ्यास है। वे उम्मीदवार जो अनुसूचित जाति या आरक्षित जाति के हैं, धर्म परिवर्तन के माध्यम से दोहरा लाभ प्राप्त कर सकते हैं। इस तरह उनको न केवल अल्पसंख्यक कोटा के अंतर्गत आवेदन करने की अनुमति मिल जाती है बल्कि अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति / ओबीसी कोटे के तहत आवेदन करने की अनुमति भी मिल जाती है। इस मुद्दे को उच्च न्यायालय के स्तर पर बार-बार उठाया गया था लेकिन अभी तक कोई उचित प्रस्ताव प्राप्त नहीं हो पाया है।

क्या यह आरक्षण खत्म करने का समय है?

इससे पहले कि हम इस सवाल का जवाब सरल भाषा में हाँ या न में देने का प्रयास करें, हमें यह पता है कि इस समय भारत के पिछड़े वर्गों की स्थिति की समीक्षा करने की आवश्यकता है। क्या अभी तक आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों को सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों में रूप में स्थापित किया गया है? हमारे देश की अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, दलितों और अल्पसंख्यकों के उत्थान में कोटा प्रणाली ने किस प्रकार सहायता की है? क्या सकारात्मक कार्यवाई के उद्देश्यों को प्राप्त कर लिया गया है? जब तक हमारे पास व्यापक डेटा की उपलब्धता नहीं है, मेरिट की समीक्षा करने के उद्देश्य से प्राधिकरण नहीं है, आरक्षण में मिलने वाली आयु सीमा में छूट के नुकसान नहीं पता हैं और प्राप्त किये गए अंक या उपलब्धियों का विवरण नहीं हैं हम इस प्रकार के सवालों का जवाब देने में योग्य नहीं होंगे।

हालांकि, एक बात तो साफ है। भारत में प्रचलित कोटा और आरक्षण प्रणाली को एक संपूर्ण कायाकल्प की जरूरत है। अगर समानता का ही उद्देश्य है, तो हमारे पास जातियों और धर्मों के नाम पर आरक्षण और कमजोर मानकों के लिए कोई स्थान नहीं है। भारत की युवा पीढ़ी को समर्थन की जरूरत है। आइए आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के लोगों के लिए अधिक छात्रवृत्तियाँ और धन, रोजगार के अधिक अवसर और बुनियादी ढांचे को उत्पन्न करें। आइए उनको अपने पैरों पर खड़े होने और चलने (आत्मनिर्भर होने) के लिए मजबूत बनायें, उनको भविष्य की पीढ़ियों तक चलने और आगे बढ़ने के लिए बैसाखी का सहारा न दें।