Home / Politics / कांग्रेस के हाथ से क्यों निकल गया मिजोरम?

कांग्रेस के हाथ से क्यों निकल गया मिजोरम?

December 15, 2018


कांग्रेस के हाथ से क्यों निकल गया मिजोरम?

16 दिसंबर को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आईएनसी) के अध्यक्ष राहुल गांधी की अध्यक्षता की पहली सालगिरह थी। और यह साल राहुल गाँधी के लिए कैसा रहा है! राहुल गाँधी को हर दूसरे दिन “पप्पू” कहने वाले मोदी के लिए, राहुल “2019 में गंभीर खतरे” के रूप में एक लंबा सफर तय कर चुके हैं।

11 दिसंबर को, पांचों राज्यों के विधानसभा चुनावों के लिए परिणाम घोषित किए गए थे और इन पांचों राज्यों में कांग्रेस एक शो-स्टीलर के रूप में उभरकर सामने आई है। कांग्रेस, भाजपा के तीन गढ़ों को हथियाने में कामयाब रही। हालांकि, कांग्रेस मिजोरम में पिछले 10 वर्षों से शासन कर रही थी, पर इस बार कांग्रेस मिजोरम में हार गई है। जिससे यह सवाल उठ रहा है कि ऐसा क्यों हुआ?

मिजोरम में क्यों नहीं चल पाया कांग्रेस का जादू? आइए जानते हैं?

राज्य विधानसभा चुनाव परिणाम, 2018

जब पूरा देश धैर्यपूर्वक राज्य विधायी परिणामों के पूर्वानुमान के लिए इंतजार कर रहा था, तो उस समय मिजोरम एक स्पष्ट परिणाम प्रस्तुत करने वाला पहला राज्य था। दोपहर के बाद, यह स्पष्ट हो गया था कि पहाड़ी राज्य ने एक बार फिर एक दशक पुरानी सरकार को “बाहर जाने” का दरवाजा दिखा दिया है।

मिजो नेशनल फ्रंट ने 26 सीटों की स्पष्ट बहुमत प्राप्त की और इसके साथ ही कांग्रेस को  सिर्फ 5 सीटें मिली। इसके अलावा, राज्य की स्थापना के बाद पहली बार, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) अपना खाता खोलने में कामयाब रही और इसे एक सीट मिली।

अंतिम परिणाम:

कुल सीटें: 40

पार्टी सीटें वोटों की संख्या वोट शेयर
मिजो नेशनल फ्रंट (एमएनएफ) 26 2,37,305 37.60%
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आईएनसी) 5 1,90,412 30.20%
निर्दलीय 8 1,44,925 22.90%
भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) 1 50,744 8.00%

मिजोरम के राजनीतिक संभाषण

2008 में, मिजोरम में कांग्रेस 40 में से 32 सीटें प्राप्त करके एक स्पष्ट बहुमत के साथ सत्ता में आई थी, मिजो नेशनल फ्रंट (एमएनएफ) केवल 3 पर ही सिमट कर रह गयी थी। 2013 में, न केवल कांग्रेस सत्ता में वापस लौटी बल्कि 40 में से 34 सीटें प्राप्त करके संख्या में बढ़ोत्तरी की। मिजो नेशनल फ्रंट 5 सीटों के साथ दूसरे स्थान पर रही थी।

1989 से, मिजोरम में हर दो कार्यकाल के बाद सत्तारूढ़ सरकार बदली जाती रही है। कांग्रेस सीएम ललथनहवला के साथ अपने पिछले दो विधानसभा चुनावों में बड़ी जीत के साथ तीसरी बार जीत की आश लगाए हुए थी। तो कांग्रेस फिर से सत्ता में नहीं आ रही थी, जो अप्रत्याशित परिदृश्य बिल्कुल भी नहीं था। हालांकि 34 में से कांग्रेस पार्टी को विधानसभा में 5 सीटें मिली, इत्तिफाक से ये सीटें उतनी ही थीं जितनी 2014 में मिजो नेशनल फ्रंट (एमएनएफ) को मिली थीं।

सवाल यह है कि क्या सीटें खोने का सारा आरोप सत्ता- विरोधी लहर पर जाता है? निश्चित रूप से नहीं।

मिजोरम में कांग्रेस का स्तर

मिजोरम के राजनीतिक माहौल में कांग्रेस का इस तरह से नीचे खिसकना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है। विरोधी सत्ता की बढ़ती लहर के अलावा, ललथनहवला की सरकार से निपटने के लिए कई मुद्दे थे। ऐसा करने में असमर्थता की वजह से जनता ने इसे नामंजूर कर दिया।

आंतरिक कलह और पक्षपात

मिजोरम में कांग्रेस के आंतरिक कलह ने धीरे-धीरे राज्य में पार्टी की पकड़ को कमजोर बना दिया था। इस साल सितंबर में, पार्टी के उपाध्यक्ष आर. लालजिरलियाना ने इस्तीफा सौंप दिया। वह राज्य गृह मंत्री थे, जो बिजली, ग्रामीण विकास जैसे अन्य महत्वपूर्ण हिस्सों को भी संभाले हुए थे। इसके तुरंत बाद, लालजिरलियाना ने एमएनएफ में शामिल होने के लिए पार्टी छोड़ दी।

अभी दो महीने पहले विधानसभा अध्यक्ष हिफेई पार्टी से बाहर हो गए थे। हिपेई नवंबर में भाजपा में शामिल हो गए, विधायी विधानसभा चुनावों के लिए केवल एक महीना ही शेष रह गया था। इस आंतरिक अशांति को जोड़ते हुए, कई पार्टी के सदस्य इस बात से नाखुश थे कि ललथनहवला के निजी मंडल निर्णय लेने में बढ़ते प्रभाव का आनंद ले रहे थे।

कमजोर पार्टी संरचना, पक्षपात पर असंतोष के साथ मिश्रित कुछ भी नहीं बल्कि कांग्रेस के लिए अपने ताबूत को खारिज कर दिया।

सरकार के काम से असंतोष

मिजोरम की साक्षरता दर भारत में दूसरी सबसे ज्यादा है। हालांकि, राज्य की आधारभूत स्थिति अभी भी विकाश के निशान के ऊपर नहीं है। नई भूमि उपयोग नीति या नई आर्थिक विकास नीति जैसी कांग्रेस की पहल महत्वपूर्ण दरार साबित हुई हैं, जिसके परिणामस्वरूप लोगों के बीच असंतोष है।

इसके अलावा, पार्टी मिजोरम शराब प्रोहिबिशन एंड कंट्रोल एक्ट द्वारा स्पष्ट रूप से राज्य में अल्कोहल के उपयोग और निषेध की स्थिति को समझने में विफल रही। ऐसे बहुत सारे मुद्दे हैं जिन्हें अन्य राजनीतिक पार्टियों ने भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।

विपक्ष की भूमिका

राज्य में कांग्रेस के प्रतिद्वंद्वियों ने अपने फायदे के लिए पार्टी के दोषपूर्ण कार्यों के मुद्दे उठाए हैं। मिजोरम शराब प्रोहिबिशन एंड कंट्रोल एक्ट, 2014 का एक प्रमुख उदाहरण है। यह अधिनियम वर्ष 2015 में कांग्रेस के शासन के तहत लागू हुआ, जिस समय राज्य में शराब की बिक्री की इजाजत थी। अभियान के दौरान और इससे पहले भी, प्रतिद्वंद्वियों ने इस कार्ड का इस्तेमाल किया, शराब के दुरुपयोग के खिलाफ दृढ़ता से जोर दिया और समस्या पर काम करने के वादे किए।

इस बार के चुनावों में, निर्दलीय उम्मीदवारों ने एक साथ सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी की तुलना में अधिक सीटें जीतीं। ज़ोरम पीपुल्स मूवमेंट – एक नए मजबूत गठबंधन के उदय के लिए श्रेय आसानी से दिया जा सकता है। राज्य में एक नई तरह की राजनीति लाने की उम्मीद करते हुए दो क्षेत्रीय दलों, अर्थात् ज़ोरम नेशनल पार्टी और मिजोरम पीपुल्स कॉन्फ्रेंस एक साथ हुए। और, परिणाम निराशाजनक नहीं थे।

गठबंधन के निर्दलीय उम्मीदवार आठ सीटों पर कब्जा करने में कामयाब रहे, जबकि कांग्रेस को पांच के साथ समझोता करना पड़ा।

अवलोकन

मिजोरम राज्य से ना केवल कांग्रेस बड़े अंतर से हारी है, बल्कि मुख्यमंत्री ललथनहवला भी उन दोनों निर्वाचन क्षेत्रों में हार गए, जहाँ से वह चुनाव लड़े थे। कांग्रेस की अलोकप्रियता इतनी प्रबल हो गई कि पांच बार चुने गए मुख्यमंत्री को विधायी विधानसभा से बाहर का रास्ता दिखाया गया।

मिजोरम उत्तर-पूर्व में अनिवार्य रूप से कांग्रेस का अंतिम गढ़ था। तो, जब मध्य और उत्तर भारत में यह एक बड़ी “वापसी” कर सकती है, तो यह हार निश्चित रूप से चिंताजनक है।  अगर पार्टी अभी भी सत्ता में वापस नहीं आती थी, लेकिन इसके बजाय, असेंबली में एक बड़ी सीट शेयर में गिर गई थी, तो चीजें बेहतर दिखतीं।

आने वाले 2019 के लोकसभा चुनावों में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस महत्वाकांक्षी रूप से भव्य वापसी की तैयारी कर रही है। तब सबसे महत्वपूर्ण यह है कि पार्टी उत्तर-पूर्वी राज्यों से अपनी खराब छवि को बेहतर बनाने के लिए कड़ी मेहनत करे।

Like us on Facebook

Recent Comments

Archives
Select from the Drop Down to view archives