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बिहार चुनावः चौथे दौर में बीजेपी बनेगी या बिखर जाएगी

October 30, 2015


बिहार के विधानसभा चुनावों में चौथे दौर का मतदान रविवार, 1 नवंबर को सात जिलों की 55 सीटों पर होगा। लेकिन यहां सवाल सिर्फ 55 उम्मीदवारों का नहीं है। बीजेपी के लिए यह सबसे महत्वपूर्ण दौर है क्योंकि इन सात जिलों से उसे बहुत उम्मीदें हैं। चौथे दौर में पश्चिमी चंपारन, पूर्वी चंपारन, श्योहर, सीतामढ़ी, मुजफ्फरनगर, गोपालगंज और सीवान जिलों में मतदान होगा।

पांचवां और अंतिम दौर का मतदान 5 नवंबर को होगा। वह महागठबंधन के पक्ष में ही होने के आसार है। इस वजह से रविवार को बीजेपी के लिए करो या मरो की स्थिति बन रही है।

तो क्या बीजेपी की रणनीति अब तक कारगर रही है? बिहार की जटिल राजनीतिक परिस्थितियों को देखते हुए हवा की लहर को पढ़ पाना आसान नहीं है। दोनों गठबंधनों के नेताओं के बयानों को देखें तो लगता है कि दोनों ही गठबंधनों का पलड़ा भारी हो सकता है। कोई भी पक्ष यह स्वीकार करने को तैयार नहीं है कि करीबी नतीजे रह सकते हैं। जिसकी वजह से त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति बन सकती है। लेकिन उस स्थिति में कोई विकल्प भी नहीं होगा।

बीजेपी ने अपने अभियान की शुरुआत बिहार में इस विश्वास के साथ की थी कि लोग ‘विकास’ चाहते हैं और इसी वजह से सरकार बदलना चाहते हैं। इसी आधार पर अमित शाह की टीम ने पूरी ताकत के साथ इस सकारात्मक भावना का लाभ उठाने के लिए अभियान शुरू किया था। और ‘विकास’ उसका केंद्रीय एजेंडा था।

यदि पार्टी हाईकमान को वाकई में विश्वास है कि लोग ‘बदलाव’ चाहते हैं और इसके जरिए ‘विकास’ तो बीजेपी को अपनी ‘विकास’ की रणनीति पर कायम रहना चाहिए। महागठबंधन की आरोप लगाने की रणनीति की चिंता नहीं करनी चाहिए। हालांकि, पहले दौर का मतदान करीब आते ही दादरी, बीफ, जाति और अन्य दक्षिणपंथी नेताओं के हिंदुत्व एजेंडे पर आधारित बयानों ने ‘विकास’ एजेंडा को पीछे धकेल दिया। और अब बीजेपी खुद को अपने ही बुने मकड़जाल में घिरी पा रही है। यदि प्रधानमंत्री समय और निर्णायक तौर पर दखल देते तो यह मुद्दा इतना बढ़ता ही नहीं। बीजेपी को भी फायदा होता लेकिन ऐसा नहीं हुआ और महागठबंधन को इसका लाभ हुआ। वह कुछ हद तक इस पहल का मनोवैज्ञानिक लाभ पाने में भी कामयाब रहा।

2014 के आम चुनावों के बाद बीजेपी ने जितने भी राज्यों में चुनाव जीते, उनमें मुख्य थीम ‘विकास’ के पथ पर लौटने की ‘उम्मीद’ थी। यह भरोसा लोगों को दिया गया कि सिर्फ नरेंद्र मोदी ही उन्हें विकास के रास्ते पर आगे लेकर जा सकते हैं। उसके बाद से काफी बदलाव आया है। बीजेपी के लिए दिल्ली के नतीजे एक चेतावनी थे। यह बताने के लिए कि औपचारिक रूप से मोदी लहर खत्म हो गई है।

बिहार ने पार्टी और प्रधानमंत्री की प्रतिष्ठा को चुनावी ट्रम्प कार्ड के तौर पर फिर ताजगी जगाने का मौका दिया है। अमित शाह की टीम ने शुरुआत भी धमाकेदार अंदाज में की थी। ऐसा लग रहा था कि काम अच्छा हो रहा है। पार्टी के नेताओं के बयानों को देखकर लगता है कि बीजेपी बिहार में अगली सरकार बना ही लेगी। अब, यदि यह सच है तो बीजेपी को अन्य मुद्दों पर ध्यान क्यों लगाना पड़ा, जिनमें विपक्ष पर हमले ज्यादा थे और ‘विकास’ के अपने एजेंडे पर जोर कम था। प्रधानमंत्री समेत अन्य पार्टियों के हालिया बयानों को देखखर लगता है कि नीतीश और लालू पर गैरजरूरी ढंग से ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है और विकास पर कम। इससे साफ है कि चुनाव अभियान में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है।

29 अक्टूबर को रक्सौल में अपने भाषण में पहली बार अमित शाह ने विवादित टिप्पणी की। उन्होंने कहा कि यदि बीजेपी बिहार में हारी तो पाकिस्तान में आतिशबाजी होगी। यदि बीजेपी की स्थिति मजबूत है तो विवाद बढ़ाने के लिए पाकिस्तान का जिक्र करने की क्या आवश्यकता थी?

देशभर में बुद्धिजीवी पुरस्कार लौटा रहे हैं और इससे बीजेपी को लेकर धारणा से जुड़ी परेशानी बढ़ती जा रही है। भले ही इसका नाटकीय असर बचे हुए दो दौर के मतदान पर दिखाई न दे, जोखिम वाले तबकों में यह धारणा घर कर सकती है कि यदि एनडीए ने अगली सरकार बनाई तो बिहार में ‘विकास’ के एजेंडे पर हिंदुत्व का एजेंडा हावी हो जाएगा।

बीजेपी के पास 2010 के विधानसभा चुनावों और 2014 के आम चुनावों के बेहतरीन नतीजों का लाभ है। यदि बीजेपी इन चुनावों में हारती है तो उसका अहम कारण महागठबंधन की जीत नहीं बल्कि बीजेपी की खुद हार होगी।

क्या जेडी(यू) के भीतर ही सत्ताविरोधी छवि बन रही है?

बिना किसी संदेह के, नीतीश कुमार बिहार में मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए पहली पसंद बने हुए हैं और उन्हें जमीनी स्तर पर काफी समर्थन मिल रहा है। वह भी जातिगत दायरों से ऊपर उठकर लोग उन्हें पसंद कर रहे हैं। अब तक हुए सभी जनमत सर्वेक्षणों में नीतीश कुमार साफ तौर पर पहली पसंद बनकर उभरे हैं। उनके सामने कोई चुनौती ही नहीं है। हालांकि, एक स्तर पर सत्ताविरोधी भावना उनके खिलाफ काम कर रही है। बिहार के कुछ इलाकों में कुछ तबके के लोगों में यह ज्यादा ही हावी है।

जहां नीतीश कुमार को व्यापक तौर पर ज्यादा पसंद किया जा रहा है, वहीं कुछ इलाकों में विकास पहुंचने की रफ्तार काफी धीमी रही है और बहुत ज्यादा बदलाव नहीं आया है। राघौपुर शहर को ही लीजिए, यह पटना से 30 किमी दूर नदी के किनारे ही बसा है। यहां के स्थानीय रहवासी ज्यादातर यादव हैं, जो आरजेडी के समर्थक हैं। यहां से ही लालू का बेटा लड़ रहा है। यहीं पर लालू ने ‘अगड़ों और पिछड़ों’ की लड़ाई बताकर विवादित बयान दिया था।

लोगों को राज्य सरकार की अनदेखी का सामना करना पड़ा है। नदी के एक किनारे से दूसरे तक पहुंचना एक बड़ी समस्या है। टूटाफूटा पुल है, जो मानसून के दौरान इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। कई बरसों से सरकार से एक स्थायी पुल की मांग की जा रही है। लेकिन पूरी नहीं हुई। हालांकि, चुनावों से कुछ ही महीने पहले नीतीश कुमार ने पुल को मंजूरी दी है। लेकिन यह कब बनकर तैयार होगा, कोई नहीं जानता।

इस तरह के उदाहरण समूचे बिहार में है। इसी वजह से लालू और नीतीश को कुछ रैलियों में लोगों के गुस्से का सामना करना पड़ा। वह सरकारी उपेक्षा के खिलाफ आंदोलन कर रहे थे। यहां सिर्फ जातिगत जोड़घटाव महागठबंधन को फायदा नहीं पहुंचाने वाले। लोग विकास चाहते हैं। कुछ हद तक सत्ताविरोधी लहर महागठबंधन के अगली सरकार बनाने के अवसरों को नुकसान पहुंचा रही है।