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बिहार चुनावः क्या बीजेपी की ‘मोदी’ रणनीति सही रही?

October 18, 2015


बिहार चुनाव और बीजेपी की मोदी रणनीति

दो चरणों के मतदान के बाद, ऐसा लग रहा है कि बीजेपी की ‘मोदी’ रणनीति काम नहीं कर रही है। बीजेपी के बिहार अभियान की समस्या यह है कि चुनावों से कुछ महीने पहले उसे कुछ सकारात्मक संकेत मिले और उसे लगने लगा कि कुछ अवसर बन सकते हैं। उस वक्त, पार्टी को लगा कि नरेंद्र मोदी की केंद्र में हाईप्रोफाइल मौजूदगी बिहार के समुदायों में भी सकारात्मक असर पैदा करेगी। खासकर उन समुदायों में, जो नीतीशलालू खेमे को समर्थन देते आए हैं। और उसे लगा कि इसी मौके को वह बिहार में भूना सकते हैं।

पार्टी को लगा कि मोदी के सफल दौरे और उसके भारत में मीडिया प्रसारण का बिहार के वोटरों पर अच्छा असर पड़ेगा। इसी वजह से पार्टी ने मोदी को स्टार प्रचारक के तौर पर सामने पेश किया। इस उम्मीद के साथ कि वे लालूनीतीश खेमे को छिन्नभिन्न कर देंगे। चुनावों से पहले मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार की घोषणा करना जरूरी नहीं समझा क्योंकि इससे पहले भी पार्टी के लिए यह रणनीति कामयाब रही थी। उसे लगा कि चुनाव होने तक मुख्यमंत्री उम्मीदवार का नाम सुरक्षित रखना ही सुरक्षित होगा। बिहार के वोटरों को एक चेहरा चाहिए था, जैसा महागठबंधन ने नीतीश कुमार को अपना चेहरा बनाया था।

तो क्या बीजेपी की ‘मोदी’ रणनीति सही थी?

दो दौर की वोटिंग के बाद ऐसा लगता तो नहीं है। पार्टी की रणनीति कई मोर्चों पर गलत साबित हुई। ऐसा मानकर चले थे कि ‘मोदी’ करिश्मा काम कर रहा है और वोटर्स केंद्र और विदेशों में उठाए गए कदमों को देखेंगे और उनकी पार्टी को शासन का मौका देंगे। हो सकता है कि यह कारगर भी होता, लेकिन दादरी और आरक्षण के दो ‘दुर्भाग्यपूर्ण’ मसलों ने नुकसान पहुंचाया।

जेडी(यू)-आरजेडी खेमे के पारंपरिक समर्थकों मुस्लिमों, यादवों और कुर्मियों के साथ ही ओबीसी/ईबीसी समुदायों में एक धड़ा निश्चित तौर पर ऐसा था जो मोदी स्टोरी पर भरोसा करना चाहता था। मोदी को एक मौका देने को भी तैयार था। लेकिन तब दादरी हो गया। मुस्लिम समुदाय का रहासहा विश्वास भी मोदी खेमे से उठ गया। हरियाणा के मुख्यमंत्री एमएल खट्टर ने यह कहकर घाव पर नमक छिड़क दिया कि मुस्लिम इस देश में रह सकते हैं लेकिन उन्हें इसके लिए गोमांस खाना छोड़ना होगा।

इतना ही काफी नहीं था। संघ परिवार के मुखिया मोहन भागवत ने इसे और मल दिया जब उन्होंने यह कहा कि आरक्षण की समीक्षा की जरूरत है। महागठबंधन ने इन मौकों का भरपूर फायदा उठाया और ऐसा लग रहा है कि यह कारगर साबित हो रहा है। दादरी ने मुस्लिम वोट्स को बीजेपी से दूर किया, जबकि आरक्षण ने एससी/एसटी, ओबीसीईबीसी श्रेणियों को पारंपरिक आरजेडीजेडी(यू) खेमे में लौटाया। प्रधानमंत्री की लंबे समय तक चुप्पी का भी नुकसान हुआ। सिर्फ बिहार में ही नहीं बल्कि पूरे देश में।

मतदान के दूसरे चरण की वोटिंग के बाद बीजेपी को लग रहा है कि मोदी को अपना चेहरा बनाकर जिस कमाल की उम्मीद पार्टी को थी, वह शायद अब नहीं होगा। बीजेपी को उम्मीद है कि लोग जंगल राज का जवाब देंगे और जेडी(यू)-आरजेडी के पारंपरिक वोटरों को वह अपने खेमे में लाने में कामयाब रहेगी। लेकिन लग नहीं रहा कि ऐसा हो रहा है।

इसका मतलब यह नहीं है कि बीजेपी के मौके खत्म हो गए हैं। वह अभी भी दौड़ में है। लेकिन शुरुआती फायदे जो उसे मिलने की उम्मीद थी, वह महागठबंधन खींच ले गया।

तो आगे क्या बदलाव देखने को मिलेंगे?

अंतिम चरण की वोटिंग सीमांचल क्षेत्र में होगी। मुस्लिम, ओबीसीईबीसी का मजबूत गढ़। बीजेपी वहां कुछ बढ़त हासिल कर सकती है। एआईएमआईएम के ओवैसी मुस्लिम वोटों को बांट सकते हैं। इसका फायदा कुछ हद तक एनडीए को मिलता, लेकिन दादरी और गोमांस विवाद के बाद ओवैसी के पास महागठबंधन के समर्थन में काम करने के सिवा कोई विकल्प नहीं है।

इसका मतलब होगा कि बीजेपी को शुरुआती दो दौर के नुकसान की भरपाई का मौका सिर्फ अगले दो दौरों में मिलेगा। यहां से बीजेपी को चमत्कार दिखाना होगा। टोपी में से खरगोश निकालना होगा। लेकिन ऐसा होने की उम्मीद कम ही है।

उनके मौकों को नुकसान पहुंचाने के लिए नीतीशलालू गठबंधन नीतीश को धरतीपुत्र के तौर पर पेश कर रहा है। और मोदी को एक बाहरी के तौर पर, जो स्थानीय लोगों को सपने बेचने आया है। बीजेपी खुद ही इसकी दोषी है। उसने जनता से संपर्क रखने वाले स्थानीय नेताओं की अनदेखी करते हुए मोदी को ही प्रमोट किया। इसका नतीजा यह है कि आधे चुनाव होने के बाद बीजेपी को महसूस हुआ कि मोदी पर पूरा जोर देना फायदेमंद नहीं है। उसने पोस्टर्स और बैनर्स में भी स्थानीय नेताओं को प्रोजेक्ट करना शुरू किया। लेकिन इसमें देर हो गई। लड़ाई नीतीश और मोदी में है। एक स्थानीय और एक बाहरी। बिहार के वोटर ऐसे में अपने समुदाय के स्थानीय चेहरे पर को चुनेंगे। इस वजह से यह मुकाबला मोदी, नीतीश के हाथों हारते दिख रहे हैं।

एनडीए खेमे में भी सुगबुगाहट शुरू हो गई है। बीजेपी के कार्यकर्ताओं में चर्चा तेज है कि मोदी को ज्यादा नुकसान से कैसे बचाया जाए और अभियान की बची हुई अवधि में उन्हें कैसे बचाकर रखा जाए। मोदी की रैलियों में बड़ी संख्या में लोग जुट रहे हैं, लेकिन क्या वोट्स में बदल पाएंगे? यह देखना दिलचस्प है कि अमित शाह की मोदी की अगली रणनीति क्या होगी। तीन और दौर जो बचे हैं।

लालू के पीछे पड़ा फैन

कप और होठों के बीच एक ‘फैन’ आ गया। शुक्रवार को लालू प्रसाद बालबाल बचे। चुनावी सभा में मंच पर बैठे थे कि उन पर एक पंखा आ गिरा। चाय पीतेपीते उन्होंने गौर किया कि पंखा हिल रहा है। डगमगा रहा है। उन्होंने आयोजकों को इसकी सूचना भी दी। लेकिन एकाएक पंखा उन पर ही आ गिरा। पंखा लालू के दाएं हिस्से पर गिरा। हाथ में चाय थी। एकाएक हुए हादसे से लालू भी भौचक्के रह गए। किस्मत अच्छी थी, कोई घायल नहीं हुआ।

यह घटना गंभीर तो है ही मजाकिया भी है। लालू ने भी इस पल को हंसी में उड़ा दिया और मोदी व उनकी पार्टी पर निशाने साधे।

लालू देश के सबसे मनोरंजक और रंगीन मिजाज के राजनेता हैं। जब भी कुछ बोलते हैं, खबर बनती है। एक रैली में तो उनका मंच ही ध्वस्त हो गया था। लेकिन उन्होंने इस बात को भी हंसी में उड़ाया और विरोधियों पर निशाने साधने लगे। खबरें लालू के पीछे नहीं जाती.. लालू खुद खबरें बनवाते हैं।