Home / / बिहार चुनावः क्या यह बिहार की महिलाओं के लिए ऩिर्णायक क्षण है?

बिहार चुनावः क्या यह बिहार की महिलाओं के लिए ऩिर्णायक क्षण है?

October 15, 2015


Rate this post

बिहार चुनावों में सक्रिय हुई महिलाएं

पारंपरिक रूप से, बिहार की महिलाएं ज्यादातर पिछड़ी ही रही हैं। उन्होंने अपने आपको घर तक ही सीमित रखा है। सारे बाहरी काम पुरुषों पर छोड़ दिए हैं। लेकिन हवा बदल रही है। पहले चरण के मतदान में महिलाओं की रिकॉर्ड भागीदारी इस बदलाव का प्रमाण है। 2010 के विधानसभा चुनावों में भी, महिलाएं पुरुषों के मुकाबले ज्यादा संख्या में वोट डालने घर से बाहर निकली थी।

इससे पहले, महिलाएं सिर्फ जाती थी और घर के पुरुषों के ‘निर्देश’ के मुताबिक वोट डाल आती थी। वह दिन अब दुर्लभ हो गए हैं। बिहार की महिलाएं, ग्रामीण इलाकों में भी अपने राजनीतिक और सामाजिक हकों को लेकर जागरूक है। हकीकत तो यह है कि बदलाव की हवा ग्रामीण इलाकों में भी साफ नजर आ जाती है।

इन चुनावों में रिकॉर्ड संख्या में महिला उम्मीदवार चुनाव लड़ रही हैं। नतीजे जो भी हो, हकीकत यह है कि राजनीतिक दल भी उनका महत्व समझने लगे हैं। यह अपने आप में एक बड़ा बदलाव है। आज की तारीख में अपने लिए या पार्टी के उम्मीदवार के लिए आत्मविश्वास के साथ घरघर जाकर संपर्क करती महिलाओं को देखना असामान्य नहीं है।

बिहार की महिलाओं ने शिक्षण और सामाजिक सेवाओं के क्षेत्र में महत्वपूर्ण सफलताएं हासिल की हैं। महिलाएं अब ‘आंगनवाड़ी’ स्कीम को चलाने वाली ड्राइविंग फोर्स है। इसके साथ ही कुकुरमुत्ते की उग आए स्वसहायता समूह भी माइक्रोफाइनेंस की सेवाओं का इस्तेमाल करते हुए अपनी जीवनशैली में बदलाव ला रही हैं। नीतीश कुमार ने महिलाओं की ताकत को बहुत जल्दी पहचान लिया था। उन्होंने लड़कियों के लिए योजनाएं शुरू कर इस दिशा में कदम आगे बढ़ाया था। खासकर 2007 की मुख्यमंत्री बालिका साइकिल योजना। 2010 में नीतीश सत्ता में लौटे, तो एक बड़ी वजह यह योजना भी थी।

2010 से इन चुनावों के बीच का बड़ा अंतर यह है कि मोबाइल फोन का कवरेज बढ़ गया है। इस वजह से, सूचनाएं पहुंचाने और जागरुकता लाने में अहम भूमिका निभा रहा है। बिहार में युवा, खासकर लड़कियां, करियर को लेकर बड़ेबड़े सपने देख रही हैं। वह घर से बाहर निकलकर करियर से जुड़ी अपनी आकांक्षाओं को पूरा करना चाहती हैं। निश्चित तौर पर 2015 का वर्ष उन्हें अपनी राजनीतिक पसंद जाहिर करने का प्लेटफार्म बनेगा।

यह चुनाव सिर्फ दो राजनीतिक गठबंधनों या दो नेताओं के लिए ही महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि यह महिलाओं के लिए भी गेमचेंजर साबित होंगे। बिहार के लिए यह बात सत्ता में किसी भी गठबंधन के आने से बड़ी खबर है। यह साल उनके लिए निश्चित तौर पर निर्णायक क्षण साबित होगा।

गठबंधन सहयोगियों की बड़ी परीक्षा दूसरे चरण में

कल होने वाले दूसरे चरण के मतदान में एनडीए गठबंधन के दिग्गजों की प्रतिष्ठा दांव पर रहेगी। हमएस के जीतन राम मांझी और आरएलएसपी के उपेंद्र कुशवाहा की परीक्षा होगी क्योंकि उनकी पार्टी के ज्यादातर सदस्य दूसरे दौर में ही चुनाव लड़ रहे हैं। कल के चुनावों का नतीजा (8 नवंबर को घोषित होना है) ही उनके लिए बीजेपी के साथ भविष्य के रिश्तों पर अपनी ताकत दिखाने के लिए महत्वपूर्ण होगा। नतीजे सिर्फ यह नहीं दिखाएंगे कि कौन जीता बल्कि यह भी बताएंगे कितने अंतर से जीता। दोनों ही महत्वपूर्ण है।

कल होने वाले मतदान में हमएस को आवंटित 21 में से 7 सीटों पर उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे हैं। जीतन मांझी खुद भी गया जिले के इमामगंज से लड़ रहे हैं। यह अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीट है। बैकअप के तौर पर वह जहानाबाद जिले के मखदुमपुर से भी चुनाव लड़ रहे हैं। यह दोनों ही जिले नक्सलवाद से प्रभावित इलाके में आते हैं, जहां ऊपरी और निचली जातियां बंटी हुई हैं। निचली जातियां अक्सर मुस्लिम समुदाय के साथ खड़ी दिखती हैं। इनका झुकाव लेफ्ट की ओर रहा है। माओवादी कैडर का समर्थन भी रहता है। जिसने अपनी राजनीतिक और सामाजिक स्थिति मजबूत की है।

जीतन मांझी का मुकाबला उदय नारायण सिंह, जेडी(यू) से है। सिंह दो बार विधानसभा स्पीकर रहे हैं। इस सीट पर 1990 से उनका कब्जा है। सिर्फ 1995 में वे यह सीट हारे थे। इमामगंज में कुशवाहा और मूसहर समुदाय का अच्छाखासा जनाधार है। यह इस सीट के विजेता का नाम तय करने में महत्मपूर्ण भूमिका निभाएंगे।

जहानाबाद जिले के मखदमपुर में, जीतन मांझी का मुकाबला आरजेडी के सुबेदार दास से है। जीतन मांझी के लिए एक अनपेक्षित खुशखबर यह रही कि उनके प्रतिद्वंद्वी सुबेदार दास को एक स्टिंग ऑपरेशन में नगद लेते दिखाया गया। उनके खिलाफ अब चुनाव आयोग जांच कर रहा है। यह मांझी के लिए बड़ी राहत की बात है क्योंकि उन्हें न सिर्फ अपनी जीत सुनिश्चित करनी है बल्कि यह भी साबित करना है कि उनकी पार्टी भी बड़ी जीत हासिल कर सकती है।

उनके कुछ परिजन भी चुनाव मैदान में हैं। उनके बेटे संतोष कुमार सुमन औरंगाबाद जिले के कुटुम्बा से लड़ रहे हैं। उनका सीधा मुकाबला कांग्रेस के राजेश कुमार से होगा। जबकि मांझी के दामाद देवेंद्र कुमार बौद्धगया से आरजेडी के कुमार सर्वजीत के सामने निर्दलीय के तौर पर चुनाव लड़ रहे हैं।

दूसरे चरण के मतदान में माओवादी सबसे बड़े लूजर साबित हो सकते हैं

बिहार और अन्य प्रभावित इलाकों में जैसेजैसे शिक्षा और जागरूकता फैल रही है, वैसेवैसे, नक्सल माओवादी समूहों का दबदबा भी घट रहा है। अशिक्षा की वजह से ही ग्रामीण बिहार में लोग गरीब थे। ऊपरी वर्गों से शोषित होते थे। माओवादियों से समर्थन चाहते थे। जो अब पीपुल्स वार ग्रुप (पीडब्ल्यूजी) और माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी) के तौर पर मर्ज होकर काम कर रहे हैं।

कई दशकों तक उपेक्षा का शिकार रहे ग्रामीण बिहार में अब बदलाव हो रहा है। लेकिन इसे पूरी तरह बदलने में अभी काफी वक्त लगेगा। बिहार के ज्यादातर नक्सल प्रभावित जिलों में चुनावों का बहिष्कार करने की अपील करते पोस्टर लग चुके हैं। कल होने वाले दूसरे दौर के मतदान में ही ज्यादातर नक्सल प्रभावित जिले भी शामिल हैं। जम्मूकश्मीर में जिस तरह लोगों ने इस तरह की मांगो खारिज किया और जान हथेली पर लेकर वोट करने आए। उसी तरह का जवाब जनता कल दे सकती है।

केंद्र सरकार इन माओवादी उग्रवादी समूहों के खिलाफ लड़ने में राज्यों की पूरी मदद कर रही है। कर्नाटक, आंध्र प्रदेश के कुछ हिस्सों, झारखंड और छत्तीसगढ़ के कुछ हिस्सों में महत्वपूर्ण सफलता भी हासिल की है। बिहार को भी इसका लाभ मिला है।

चुनावों के दौरान अब तक सुरक्षा और उससे जुड़ी व्यवस्थाओं में 2015 का वर्ष सबसे अच्छे वर्ष के तौर पर सामने आया है। निश्चित तौर पर बड़ी संख्या में लोग बाहर निकलकर वोट करेंगे। यदि कल की वोटिंग भी रिकॉर्ड संख्या के साथ होती है तो इन चुनावों में सबसे बड़ी हार माओवादियों की होगी। यह देखना बचा है कि माओवादियों के खिलाफ लड़ाई में निर्णायक क्षण सामने आता है या नहीं।

Comments