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बिहार चुनावः पप्पू यादव का दावा तीसरा मोर्चा बनेगा ‘किंगमेकर’

October 22, 2015


क्या तीसरा मोर्चा किंगमेकर की भूमिका निभा पाएगा?

बिहार में दोनों गठबंधनों पर ही पूरा ध्यान है। यह मान लिया गया है कि दोनों में से एक गठबंधन सत्ता में आएगा। यह इस बात पर निर्भर करता है कि कोई व्यक्ति किस खेमे में है। लेकिन लोप्रोफाइल तीसरा मोर्चा भी धूप में खड़े होकर अपनी बारी का इंतजार कर रहा है। 8 नवंबर को उसे भी अपनी किस्मत चमकने का इंतजार है।

जब मुलायम सिंह ने आत्मविश्वास के साथ महागठबंधन को बीच में छोड़कर अलग राह थामी तो ऐसा लगा कि उन्होंने बिहार की राजनीति में अपने असर को कुछ ज्यादा ही आंक लिया है। यह संकेत उस समय भी मिला, जब उन्होंने तीसरा मोर्चा बनाकर राज्य की सभी 243 सीटों के लिए अपने उम्मीदवार उतार दिए। तो उस समय उनके दिमाग में क्या रहा होगा?

मुलायम सिंह अपनी प्रासंगिकता बनाए रखना चाहते हैं। कम से कम बिहार के कुछ हिस्सों में। उत्तरप्रदेश में 2017 में चुनाव होने हैं। वहां उन्हें सत्ताविरोधी मतों का सामना करना पड़ेगा। बीजेपी की ताकत बढ़ रही है और बीएसपी उड़ान भरने के लिए पंख फड़फड़ा रही है। बिहार चुनावों से पहले मुलायम ने महसूस किया कि हवा बीजेपी के पक्ष में है। उन्होंने इसके जरिये बीजेपी का समर्थन किए बिना, यह जता दिया कि वे बीजेपी के साथ है। 2017 में जरूरत पड़ी तो बीजेपी के साथ गठबंधन बना सकते हैं, इसका रास्ता भी खुला रखा है।

निश्चित तौर पर इसी कारण से उन्होंने महागठबंधन छोड़ा और सीटों के बंटवारे को बहाना बनाया। 2017 करीब है। उन्हें उत्तरप्रदेश में सत्ताविरोधी माहौल का सामना करना है। इतना ही नहीं पुराने आरोपों की वजह से सीबीआई की तलवार भी गले पर लटक रही है। वह जानते हैं कि बीजेपी के साथ गठबंधन से न केवल उन्हें सत्ता मिलेगी, बल्कि सीबीआई को भी शांत रखा जा सकेगा। लेकिन यदि बीजेपी विपक्ष में रही तो सत्ताविरोधी माहौल और बीजेपी की ताकत मिलकर उन्हें दरवाजा दिखा सकते हैं।

बिहार में लौटते हैं। महागठबंधन से उनके बाहर निकलने के बाद माहौल बदला है। तीसरे मोर्चे के मुख्य सहयोगी एनसीपी ने साथ छोड़ दिया है। छोटी और गैरमहत्व की पार्टियां भी अब इसमें बची हैं। मुलायम को पता है कि उनका फेंका पांसा उल्टा पड़ गया है। तीसरा मोर्चा नंबरों के तो नजदीक भी नहीं पहुंचने वाला, जिसकी कि 243 सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा कर उन्होंने तैयारी दिखाई थी।

तो इससे तीसरा मोर्चा आज कहां खड़ा है? अगले दो दौर का मतदान यूपी के सीमावर्ती इलाकों में होना है। इसका असर सीमापार यानी उत्तरप्रदेश में भी देखा जा सकता है। वैसे तो हम बैठकर सिर्फ 8 नवंबर को आने वाले नतीजों का इंतजार ही कर सकते हैं। यदि किसी भी गठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिलता है तो तीसरे मोर्चे का कोई महत्व नहीं रह जाएगा। मुलायम को मोलभाव करने का मौका गंवाना पड़ेगा। लेकिन यदि करीबी मुकाबला होता है और किसी भी गठबंधन को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता तो उस स्थिति में तीसरे मोर्चे के पास मोलभाव की ताकत होगी।

यही वह मौका है, जिसका जिक्र विवादित सांसद और राष्ट्रीय जनाधिकार पार्टी और तीसरे मोर्चे के सहयोगी पप्पू यादव कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि तीसरा मोर्चा किंगमेकर बनकर उभर सकता है। वे सही भी साबित हो सकते हैं। लेकिन ऐसा तभी होगा जब दोनों में से कोई भी एक गठबंधन सरकार बनाने लायक स्पष्ट बहुमत न ला सके।

यदि महागठबंधन को तीसरे मोर्चे की जरूरत पड़ती है तो राज्य की राजनीति पर मुलायम सिंह का असर काफी कम रहेगा। लेकिन यदि एनडीए को सरकार बनाने के लिए मुलायम के सहयोग की जरूरत पड़ी तो मुलायम की मोलभाव करने की ताकत बढ़ जाएगी। उनके लिए तो यह 2017 के यूपी चुनावों की तैयारी की शुरुआत ही होगी।

हमें 8 नवंबर का इंतजार करना पड़ेगा। तब ही पता चलेगा कि पप्पू यादव का किंगमेकर बनने का दावा सच साबित होता है या नहीं।

पहले दादरी, अब फरीदाबाद कस सकते हैं बीजेपी के अवसरों पर नकेल

दादरी कांड और अब फरीदाबाद में.. इन घटनाओं का राजनीतिक असर बीजेपी की परेशानी बढ़ा सकता है। बिहार में उन्हें इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। बिहार में जब अभियान शुरू हुआ तो बीजेपी फ्रंटफुट पर थी, लेकिन दादरी कांड की हत्या को लेकर उसकी रिएक्शन काफी धीमी और अपर्याप्त थी। इससे बिहार में पार्टी के अवसरों को नुकसान ही पहुंचा है। आशावाद की उम्मीद जगातेजगाते उसे बाद में बचाव की मुद्रा में आना पड़ा। तीन दौर का मतदान होना शेष है। फरीदाबाद की घटना होने के लिए इससे बुरा वक्त नहीं हो सकता था।

हालांकि, इस बार बीजेपी ने तत्काल प्रतिक्रिया दी। हरियाणा के मुख्यमंत्र एमएल खट्टर को निर्देश दिए कि तत्काल कार्रवाई करें। इसी का नतीजा है कि आरोपी तत्काल गिरफ्तार हो गए। केस भी तत्काल सीबीआई को दे दिया गया। लेकिन नुकसान तो हो चुका था। बीजेपी यदि दादरी कांड के बाद सक्रियता दिखाती और प्रधानमंत्री आक्रामकता दिखाते हुए दादरी कांड की निंदा करते तो बिहार में बीजेपी को लाभ हो सकता था। लेकिन नरेंद्र मोदी अपनी पार्टी और अपने संरक्षक आरएसएस की प्रतिबद्धताओं से बंधे हैं। इस वजह से उन्हें बिहार में संघर्ष में बने रहने का संघर्ष करना पड़ रहा है। ओबीसीईबीसी और दलित वोटों को अपने पक्ष में लाने के लिए बीजेपी ने एलजेपी और आरएलएसपी पर भरोसा जताया था। लेकिन फरीदाबाद की घटना ने गठबंधन सहयोगियों की परेशानी बढ़ा दी है। उनकी समस्या यह है कि हरियाणा में बीजेपी की सरकार है और बिहार में उनके गठबंधन का प्रमुख दल भी वही है।

यदि एलजेपी और आरएलएसपी चुप रहे तो वे अपने विधानसभा क्षेत्रों में नुकसान करवा सकते हैं। और यदि बोले तो गठबंधन को नुकसान पहुंचाएंगे। राम विलास पासवान को घटना के खिलाफ बोलना पड़ा और उन्होंने राज्य में बीजेपी को जिम्मेदार ठहराया। बिहार में विरोधी इसे एनडीए के खिलाफ इस्तेमाल कर रहे हैं। एक तरफ इस मुद्दे पर उपेंद्र कुशवाहा अब तक चुप रहे हैं और निश्चित तौर पर यह उनकी पार्टी और एनडीए को नुकसान पहुंचाएगा।

28 अक्टूबर और एक नवंबर एनडीए के लिए मुश्किल साबित होने वाले हैं।