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बिहार चुनावः सर बात दाल की है, गोमांस की नहीं

October 19, 2015


दाल और गोमांस का मुद्दा

नरेंद्र मोदी के लिए दोहरा संकट खड़ा हो गया है। 26 अक्टूबर को बिहार में उनका अभियान दोबारा शुरू होगा। वे आठ रैलियों को संबोधित करेंगे। लेकिन लोगों का सामना करना एक बार फिर उनके लिए चुनौतीपूर्ण साबित होने वाला है।

एक तरफ तो, ‘गोमांस’ का विवाद है, जो एक के बाद एक सामने आ जाता है। वहीं दूसरी तरफ ‘दाल’ की कीमतें हैं, जो छत को भी पार कर गई है। बीजेपी के लिए इतना बुरा वक्त तो और आ ही नहीं सकता था। पार्टी के अंदरूनी तत्व और कट्टरपंथी दक्षिणपंथ समर्थकों ने दादरी की घटना को अंजाम दिया। साथ ही ‘गोमांस’ को लेकर विवाद खड़ा किया। इसमें अन्य पार्टी के नेता भी कूद पड़े। इसका असर बिहार में भी महसूस किया जा सकता है। बीजेपी ने यहां अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली है।

गोमांस विवाद का नुकसान बिहार में गहराई तक हुआ है। बचे हुए तीन दौर का जमीनी मुद्दा होगा ‘दाल’। बीजेपी ने पिछला पूरा पखवाड़ा गोमांस से बचने पर ध्यान लगाने में बिता दिया। जबकि दाल के मुद्दे ने बिहार के सभी लोगों को प्रभावित किया है। और नरेंद्र मोदी को यह बताना बेहद मुश्किल साबित होगा कि दाल की कीमतों को नियंत्रण से मुक्त होने की इजाजत कैसे मिल गई। गोमांस एक संवेदनशील मुद्दा है। कुछ तबकों की भावनाओं को भड़का सकता है। लेकिन दाल जैसे मुख्य अनाज की कीमतें पहले ही परेशान जनता की पहुंच से बाहर हो गई है। इसका खतरनाक राजनीतिक असर देखने को मिल सकता है।

यूपीए को महंगाई के साथ ही ‘प्याज’ की बढ़ी कीमतों का नुकसान उठाना पड़ा। इसने सत्ताविरोधी समस्याओं को बढ़ाया। इसी वजह से 2014 के लोक सभा चुनावों में उसे नुकसान उठाना पड़ा। लेकिन बीजेपी की कोशिश राज्य में नीतीश कुमार के सत्ताविरोधी आधार पर जीत हासिल करने की है। लेकिन वह दाल की कीमतों को काबू में रखने में नाकाम रही है। यह पार्टी पर दोहरा संकट आ गया है।

बीजेपी ने मोदी की रैलियों को चुनावों की तारीखें बदलने का स्पष्टीकरण दिया है। पार्टी ने 28 अक्टूबर को रैली रखी है। पार्टी को लगता है कि रैली का असर 2-3 दिन ही रहता है। लेकिन यह भी एक अहम मुद्दा है। बिहार के लोगों के लिए ‘विकास’ पहला मुद्दा है। उसके बाद ‘जाति’ का मुद्दा आता है, जो प्रभाव रखता है। यह दोनों ही दीर्घकालिक मुद्दे हैं। लेकिन तात्कालिक कारण के तौर पर लोगों को गोमांस की नहीं बल्कि दाल समेत अन्य खाद्य पदार्थों की कीमतों ने परेशान कर रखा है। इसलिए मोदी दाल पर जो बोलेंगे, वह ज्यादा असरदार रहेगा। जंगल राज के जुमले या नीतीशलालू गठबंधन के खिलाफ नाम लेने से कुछ नहीं होगा। बिहार में विज्ञापनों की बाडञ में बीजेपी इन मुद्दों पर पूरी तरह नाकाम दिख रही है।

अगले दौर के मतदान में पटना शामिल है। वहां ऊंची जातियों और व्यापारियों में बीजेपी का तगड़ा जनाधार है। लेकिन दाल की कीमतों पर उसे मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। ज्यादातर लोग खाद्य पदार्थों की कीमतों से खुश नहीं है। वोटिंग के समय लोगों की नजर दाल की कीमतों पर जरूर रहेगी।

तीन दौर बचे हैं, बीजेपी ने पार्टी के अंदरूनी ढीली गांठों को मजबूती दी है। संदेश भी कड़ा पहुंचाया गया है। हालांकि, बीजेपी को अपनी रणनीति को दोबारा बनाना होगा और मोदीकेंद्रित पुश के बजाय बचे हुए दौरों में स्थानीय नेताओं को बढ़ावा देना होगा। इससे वह लोगों से जुड़ने के लिए स्थानीय पहचान हासिल कर सकती है।

यह और इसके साथ ‘विकास’ बची हुई रैलियों में प्रधानमंत्री के सभी भाषणों का मुख्य मुद्दा होना चाहिए। लालूनीतीश के खिलाफ बयानबाजी काम नहीं आ रही है और इसलिए कुछ तो आत्मावलोकन करना होगा। उम्मीद है कि बीजेपी तरोताजा होकर सामने आएगी और रुचिकर चुनाव लड़ेगी।

टेकओवर के लिए तैयार युवा ब्रिगेड

राष्ट्रीय राजनीति की ही तरह बिहार में राज्य की राजनीति में भी पीढ़ीगत बदलाव दिख रहे हैं। दो धुरंधर नेता नई पीड़ी के लिए रास्ता बना रहे हैं। लालू प्रसाद अपने दो बेटोंतेज प्रताप और तेजस्वी यादव को लॉन्च कर रहे हैं। तेजस्वी दिल्ली में पढ़े हैं और दोनों भाइयों में ज्यादा दिखते रहे हैं। आने वाले बरसों में दोनों यादव समुदाय के प्रमुख चेहरों के तौर पर देखा जाएगा। वह भी यदि वे चुनावों में जीते तो। लालू के अलावा राबड़ी देवी भी अपने बेटों को प्रमोट करने के लिए बिहार की सड़कों की खाक छान रही है। लालू को भी परिवार से ज्यादा भरोसा है। जो राज्य की राजनीति में प्रासंगिक बने रहना चाहते हैं।

राम विलास पासवान के लिए भी यही बात सच है। वे भी अब पृष्ठभूमि में चले गए हैं। अपने बेटे चिराग पासवान को आगे बढ़ा रहे हैं। बिहार में दलितों के चेहरे के तौर पर उनकी विरासत को आगे बढ़ाना चाहते हैं। चिराग पासवान ने राजनीति में आने से पहले फैशन डिजाइनिंग में हाथ आजमाया। फिल्मों में एक्टिंग भी की। जमुई संसदीय क्षेत्र से 2014 में सांसद चुने गए और अब स्थानीय राजनीति में अपनी मौजूदगी का अहसास करा रहे हैं।

चिराग ने अभी से जमुई में केंद्रीय विद्यालय लाने का श्रेय लूटना शुरू कर दिया है। उन्होंने यह भी वादा किया है कि अगले पांच साल में उनके संसदीय क्षेत्र में आने वाले हर गांव में शैक्षणिक संस्थान बनेगा। भविष्य में उन पर नजर रखनी होगी। हम उन्हें केंद्र में बड़ी भूमिका निभाते भी देख सकते हैं।

यह निश्चित तौर पर स्वागत योग्य कदम है। बिहार को ताजा खून की जरूरत है, जो अपने साथ जाति और विरासत की राजनीति को आगे न लाएं। लेकिन बिहार ऐसा राज्य है, जहां जाति राजनेताओं के पूरक आहार के तौर पर जिंदा रहेगी। क्या नई पीढ़ी जाति से ऊपर बिहार के विकास को गति दे पाएगी? यह एक अच्छा प्रश्न है।

निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनावों के लिए चुनाव आयोग से मिले पार्टी के प्रतिनिधिमंडल

कई पार्टियों के प्रतिनिधिमंडल मुख्य चुनाव आयुक्त नसीम जैदी, चुनाव आयुक्त एके जोती और चुनाव आयुक्त ओम प्रकाश रावत से मिले। ताकि राज्य में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों की स्थिति में सुधार किया जा सके। बीजेपी के प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व राज्य इकाई के अध्यक्ष मंगल पांडे ने किया। उन्होंने मुख्य चुनाव आयुक्त से अनुरोध किया कि बाहर के बजाय मतदान केंद्रों पर अर्द्धसैनिक बलों को तैनात किया जाए। वे यह भी चाहते थे कि नीतीश कुमार के गृह क्षेत्र नालंदा में अतिरिक्त ऑब्जर्वर तैनात किए जाए।

अन्य पार्टियों के प्रतिनिधिमंडलों ने चुनाव आयोग से मुफ्त एलपीजी कनेक्शनों जैसे प्रलोभन दे रहे केंद्रीय मंत्रियों पर नजर रखने को कहा। वे चाहते थे कि चुनाव आयोग पेड न्यूज से वोटर्स को प्रभावित करने पर नजर रखें। जबकि कुछ ने चेताया कि माहौल खराब करने के लिए कुछ लोग पूजा के मौसम में अफवाह फैला सकते हैं।

चुनाव आयोग ने अब तक बिहार के चुनावों को बेहद अच्छेसे संचालित किया है। उम्मीद की जा सकती है कि पांच नवंबर तक ऐसे ही हालात बने रहेंगे। कोई अप्रिय घटना नहीं होगी।