Home / / ग्रामीण भारत और सहकारी समितियां

ग्रामीण भारत और सहकारी समितियां

July 5, 2017


भारत मुख्य रूप से एक कृषि समाज देश है इसकी आबादी का आधा हिस्सा अभी भी गाँवों में रहता है। देश के सकल घरेलू उत्पाद में ग्रामीण क्षेत्र प्रमुख योगदानकर्ता है और इसलिए गाँवों में विकास की कमी का मतलब भारत में विकास की कमी है। सहकारी समितियां इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं और ग्रामीण क्षेत्रों की वृद्धि एक प्रमुख हिसा बन रही हैं, जिससे सरकारी और निजी क्षेत्र के साथ-साथ भारत की संपूर्ण अर्थव्यवस्था में योगदान हो रहा है। सहकारी समितियां 97% से अधिक भारतीय गाँवों को कवर करती हैं, इनमें से कुछ सरकारी सदस्यों द्वारा संचालित होती हैं।

ग्रामीण लोगों की आवश्कताओं को विभिन्न प्रकार के निजी और सरकारी संगठनों की सहायता से पूरा किया जाता है इनमें साझेदारी फर्म, सहकारी संस्थाएं, कंपनियां और धर्मार्थ ट्रस्ट भी शामिल हैं। सरकार प्रत्येक वर्ष ग्रामीण विकास पर लाखों करोड़ों रुपए खर्च करती है। लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में काम करने वाली सहकारिता इस क्षेत्र में उल्लेखनीय भूमिका निभा रही हैं। गुजरात डेयरी सहकारी समितियां और महाराष्ट्र शुगर सहकारी समितियां अपने योगदान को साबित कर रही हैं।

पिछली शताब्दी के मध्य में पश्चिमी देशों में सहकारी समितियां उत्पन्न हुईं और वहाँ से ये भारत आयीं। 1904 में औपचारिक रूप से सहकारी समितियों को भारत में पेश किया गया था जब भारतीय सहकारी सोसायटी अधिनियम लागू किया गया था। इसके अलावा ग्रामीण कर्जदार भारत में चिट फंड और सहकारी समितियों की शुरुआत के पीछे एक प्रमुख शक्ति थे। प्रारंभ में ये सिर्फ किसानों को सोसायटी के रूप में क्रेडिट प्रदान करते थे और धीरे-धीरे इन्होंने बैंकिंग, प्रसंस्करण और विपणन जैसे अन्य क्षेत्रों में काम करना शुरू कर दिया। सहकारी समितियों को चलाने के लिए अल्प निधि जमा की गई और यह किसानों की वित्तीय समस्याओं को सुलझाने का एक आकर्षक तरीका बन गया। स्वतंत्रता के बाद सहकारी समितियों की भूमिका से ग्रामीण भारत में सामाजिक – आर्थिक विकास और गरीबी उन्मूलन में वृद्धि हुई। यह पंच वर्षीय योजना का एक अभिन्न हिस्सा बन गयी। ये सहकारी समितियां हमारी अर्थव्यवस्था का एक मौलिक हिस्सा बन गयीं।

नॉन-क्रेडिट सोसाइटी 1912 में आई थी। 1928 में कृषि रॉयल कमीशन ने सहकारिता के महत्व को भी उजागर किया। 1935 में भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के गठन के साथ, सहकारी समितियों के विकास को अधिक महत्व दिया गया था।

सहकारी समिति का मुख्य उद्देश्य गरीब और कर्जदार किसानों को गरीबी से बाहर निकालना और दरिद्रता के चंगुल से मुक्ति दिलाना था। समय की थोड़ी सी अवधि के भीतर, कृषि ऋण से परे सहकारी समितियों की भूमिका का विस्तार किया गया। इसके अन्तर्गत उत्पादन, खेती, विपणन और प्रसंस्करण जैसी गतिविधियों को कवर करना शुरू कर दिया गया। अब ये सहकारी समितियाँ हमारे देश के सामाजिक-आर्थिक विकास में विशेष रूप से ग्रामीण भारत के विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं।

1951 भारत में सभी प्रकार की 1,81,000 सहकारी समितियां थीं और यह संख्या समय की कम अवधि के भीतर कई गुना बढ़ गईं हैं। 2007-08 के दौरान यहाँ 1,50,000 प्राथमिक ऋण सहकारी समितियां थीं और सभी प्रकार की 2,60,000 नॉन-क्रेडिट प्राथमिक समितियां थीं। भारत में प्रमुख चार प्रकार की सहकारिताएं हैः

  • प्राथमिक कृषि ऋण या समाज सेवा
  • कृषि नॉन-क्रेडिट सोसाइटी
  • कृषि सहकारी विपणन सोसाइटी
  • सहकारी कृषि सोसाइटी

हालांकि सहकारी समितियों का विस्तार और पहुँच बेहद प्रभावशाली है लेकिन उनके कामकाज का तरीका कुछ सहकारी समितियों को छोड़कर ज्यादा अच्छा नहीं है। ये केवल सरकार द्वारा अपने सदस्यों के प्रेरणा और उत्साह के बिना चलायी जाती हैं। इनमें से कुछ में आवश्यक धनराशि की कमी है। इन समितियों की काम करने की धीमी गति के साथ-साथ कुप्रबंधन, हेरफेर, प्रतिबंधित कार्य क्षेत्र, जागरूकता की कमी और राजनीतिक हस्तक्षेप जैसे अन्य कारक हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि बड़े पैमाने पर इस परियोजना का पतन हो गया है। इस सब के बावजूद, सहकारी समितियां वास्तव में आत्मनिर्भर होने में गरीबों की मदद कर रही हैं। ग्रामीण भारत में सहकारी समितियों के क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी के साथ सुधार हो सकता है।

सहकारी समितियां किसानों को राशि प्रदान करती हैं, जो खेती में सबसे जरूरी चीज है। इन सहकारी समितियों में राशि के अलावा किसानों को उचित मूल्य पर उच्च गुणवत्ता वाले उर्वरक, बीज तथा कीटनाशक आदि उपलब्ध कराने में मदद मिलती है। किसानों को सहकारी समितियों ने विपणन, भंडारण की सुविधा और परिवहन की सहायता भी मिलती है। सहकारी सेवा समितियां ट्रैक्टर तथा थ्रेशर आदि को किराए पर देकर गरीब और सीमांत किसानों की मदद करती हैं। ग्रामीण सहकारी समितियां अब रियल एस्टेट, बिजली, बीमा, स्वास्थ्य सेवा और संचार के क्षेत्रों में प्रवेश कर रही हैं। यदि ये विकास के उद्देश्य से काम करना जारी रखती हैं तो वह दिन दूर नहीं जब ग्रामीण जीवन की गुणवत्ता शहरी भारत से कहीं ज्यादा बेहतर होगी।