Home / Education / निजी और पब्लिक स्कूलों में अंतर – भारत में इसका प्रभाव

निजी और पब्लिक स्कूलों में अंतर – भारत में इसका प्रभाव

July 3, 2018


निजी और पब्लिक स्कूलों में अंतर – भारत में इसका प्रभाव

कोई भी वह राष्ट्र जो हर मामले में एक महाशक्ति बनने के बारे में सोच रहा है, उसे हमेशा एक पर्याप्त मजबूती की आवश्यकता होती है ताकि वह अपनी महत्वाकांक्षा को महसूस कर सके। इस शक्ति को प्राप्त करने के कई तरीके हैं जिनमें से एक तरीका शिक्षा है, जो हर किसी के लिए उपलब्ध होनी चाहिए। एक राष्ट्र के रुप में भारत ने इस संबंध में कुछ कदम उठाये हैं। भारत में 14 वर्ष तक के प्रत्येक बच्चे को अनिवार्य मुफ्त शिक्षा प्रदान की जाती है। हालांकि, सवाल और समस्याएं शिक्षा की पहुँच पर नहीं बल्कि प्रदान की जा रही शिक्षा की गुणवत्ता पर हैं।

भारत में दो प्रकार के स्कूल हैं जिनमें सरकार के स्वामित्व में या सरकार से सहायता प्राप्त तथा निजी स्वामित्व वाले स्कूल शामिल हैं। सरकारी स्कूल वास्तव में अधिक से अधिक लोगों को शिक्षा उपलब्ध करने का सराहनीय काम कर रहे हैं और आमतौर पर ये सरकारी स्कूल मुफ्त या मामूली शुल्क पर शिक्षा प्रदान कर रहे हैं जो वास्तव में सभी की पहुँच तक हैं। यह शहरी क्षेत्रों के लोगों के लिए बहुत मददगार हैं। जिनके लिए अपने बच्चों को अधिक महंगे निजी या सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों और ग्रामीण क्षेत्रों में ले जाना संभव नहीं होता है, शायद यही एकमात्र उपाय हैं जिनमें बच्चे अच्छी शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं और बेहतर भविष्य का सपना देख सकते है। हालांकि, इसके शुरुआत में कुछ समस्याएं हैं –

सरकारी स्कूलों के छात्रों को प्रदान की गई शिक्षा और सुविधाओँ के उन मानकों के लिए नहीं जाना जाता है जो कि निजी (प्राइवेट) स्कूलों द्वारा उपलब्ध कराये जाते हैं। इसके अलावा, शिक्षा प्रारम्भ होने के कुछ सालों के बाद सरकारी स्कूलों को बर्बादी से संघर्ष करते हुए देखा जाता है। शायद इस घटना का मुख्य कारण भारत में शिक्षित युवाओं के लिए विशेष रुप से ग्रामीण क्षेत्रों में नौकरियों की कमी है। आखिरकार क्यों कोई पोस्ट ग्रेजुएट होना चाहता है और फिर नौकरी के बिना घर पर बैठना पसंद करता है? अगर कोई शिक्षित होने के बाद कामयाब रोजगार शुरु करना चाहता है तो उसे उस क्षेत्र में काम शुरू करना और अनुभव एकत्र करना होता है, ऐसी स्थिति में शिक्षा समय नष्ट करने का एक जरिया बन जाती है और यह एक बहुत ही चिंताजनक बात है।

शायद यह एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ उठाये जाने वाले सवालों पर अधिकारियों को यह देखने की जरूरत है कि क्या ग्रामीण इलाकों में शिक्षा आंदोलन सफल हो रहा है। इसका कारण यह है कि कार्यबल की क्षमता और कौशल एक ऐसी चीज है जो किसी देश के भाग्य को बना भी सकती है और बिगाड़ भी सकती है, भारत में इस बात पर कोई अपवाद नहीं है। दूसरा, सरकारी ग्रामीण क्षेत्रों के स्कूलों में सरकार शिक्षकों की नियुक्ति तो कर रही है लेकिन शिक्षक हमेशा समय पर रिपोर्ट नहीं करते हैं या स्कूल बिल्कुल भी नहीं आ रहे हैं, उनके वेतन का भुगतान भी नहीं किया जा रहा है, जो कि न्याय व्यवस्था का भयानक शोषण है। अगर शिक्षक स्कूल नहीं आ रहे तो छात्र भी इसकी सूचना नहीं देते हैं। दूसरी ओर, चूँकि छात्र कुछ पाठ्यक्रमों में पढ़ाई करने के लिए अपनी कक्षाएं छोड़ देते हैं, इससे निराश होकर शिक्षक स्कूल के साथ में उन बच्चों को भी छोड़ देते हैं जो कम सुविधाओं वाले स्कूलों में भी पढ़ सकते हैं। इस प्रकार पूरी शिक्षा प्रक्रिया को घाटे में पहुँचा दिया जाता है और शिक्षा मजाक का एक विषय बन जाती है।

इसके अलावा शहरी क्षेत्र की शिक्षा व्यवस्था में अलग प्रकार की समस्याएं और पहलू हैं। शहरों और कस्बों में ऐसे निजी स्कूल हैं जो अपने छात्रों को अच्छी सुविधाएं प्रदान करते हैं और आदर्श रूप से उन्हें बेहतर भविष्य के लिए तैयार करते हैं। हालांकि, समस्या यह है कि उनकी फीस बहुत अधिक होती है जिसके कारण कई लोग इन स्कूलों तक नहीं पहुँच पाते हैं। यह स्कूल इस फीस को कम करने के लिए तैयार नहीं हैं क्योंकि छात्रों को प्रदान की जाने वाली उच्च सुविधाओँ की खरीद के लिए उनको अधिक पूँजी की आवश्यकता होती है। सरकारी सहायता प्राप्त स्कूल भी ऐसी सुविधाएं प्रदान करते हैं और वे अपने क्षेत्र के आर्थिक रूप से पिछड़े बच्चों के लिए उच्च सुविधाओँ से सुसज्जित होते हैं। लेकिन ऐसा सभी सरकारी स्कूलों के बारे में नहीं कहा जा सकता है।

यहाँ की सुविधाएं निजी या सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों के समान ही हैं और शायद यही कारण है कि वे अपने छात्रों को और अधिक सक्षम बनाने की स्थिति में नहीं हैं। चूँकि उनके पास छात्रों की संख्या अधिक है, इसका मतलब यह है कि ज्यादातर भारतीय युवा उच्च स्तर की नौकरियों और जिम्मेदारियों का वहन करने के लिए तैयार नहीं हैं। मानव संसाधन विकास में असमानता भारत को कई तरह से नुकसान पहुंचा रही है – यह देश के संभावित कर्मचारियों के पूर्ण विकास में बाधा डालती है और विदेश की उन कंपनियों को प्रभावित करती है जो भारत के ग्रामीण क्षेत्र में उच्च भुगतान वाली अपनी शाखाएं स्थापित करना चाहती हैं। यह इंटेलीजेंस से संबंधित नौकरियों को जो केवल भारत के कुछ शहरों में संरक्षित हैं,उन् पर भी बुरा प्रभाव डालती है।

कहा जाता है कि एक टीम उतनी ही मजबूत होती है जितना उसका सबसे कमजोर खिलाड़ी और भारत एक ऐसा देश है जहाँ गाँवों की अधिकता है। जब हमारे महान देश के कमजोर वर्गों को उचित अधिकारों से संपन्न नहीं किया जाता, तब तक दुनिया में महाशक्ति बनने का सपना न देखना ही बेहतर होगा। क्योंकि इस तरह कभी भी अपने विचारों को पूरा नहीं किया जा सकता।