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बिजली शवदाह संस्कार बनाम पारंपरिक अंतिम संस्कार

July 18, 2017


जल संसाधन, नदी विकास और गंगा कायाकल्प की मंत्री उमा भारती ने कुछ दिन पहले ही सुझाव दिया था कि प्रदूषण को कम करने के लिए नदी के किनारे “बिजली द्वारा शवदाह” को प्रतिबंधित किया जाना चाहिए और इसके बजाय मृत शरीर को जलाना चाहिए। चाहे उनके सुझाव को स्वीकार किया जाए या नहीं, यह तो मालूम नहीं है। हालांकि, बिजली शवदाह के उपयोग पर हमेशा से विवाद रहा है और भारतीय हिन्दू मृत शरीर को पारंपरिक तरीके से जलाने का अनुसरण करते हैं। महानगरीय शहरों में, विद्युत शवदाह का उपयोग काफी हद तक नहीं किया जाता है, लेकिन इनमें से अधिकतर विद्युत शवदाह वित्तीय और धार्मिक कारणों से विफल हो गये हैं।

हिन्दू खुले वातावरण में अंतिम संस्कार क्यों करते हैं?

सभी हिंदुओं का मानना है कि मृत व्यक्ति की आत्मा पूरी तरह से शरीर और भौतिक दुनिया से अलग हो जानी चाहिए, ताकि उसका फिर से पुनर्जन्म हो सके। इसीलिए खुले वातावरण में अंतिम संस्कार आवश्यक है, शरीर को एक लकड़ी के बड़े ढेर के ऊपर रखकर जला दिया जाता है ताकि आत्मा को आसानी से मुक्ति मिल सके। मृत शरीर को सफेद कपड़े (कफन) पहनाये जाते हैं, फिर शरीर को लकड़ी की चिता पर रखकर जला दिया जाता है और उसकी आत्मा की मुक्ति के लिए प्रार्थना की जाती है। मृत शरीर आग की लपटों में घिर जाता है और आत्मा शरीर से मुक्त हो जाती है। प्राचीन काल से हिंदू इस परंपरागत मान्यता और अनुष्ठान का पालन करते आ रहे हैं और पारंपरिक हिंदू अंतिम संस्कार को सबसे शुभ विधि मानते हैं क्योंकि हिंदुओं का मनाना है कि इस विधि से मरे हुए व्यक्ति की आत्मा को शांति मिलती है।

पर्यावरणविदों का दृष्टिकोण

यह एक आम दृश्य है कि हम अंतिम संस्कार खुले वातावरण में काले धुएं के बादलों के साथ नीले आकाश के नीचे करते हुए देखते हैं। कुछ पर्यावरणविदों के अनुसार, अंतिम संस्कार में मानव शरीर को जलाने के लिए लकड़ी का उपयोग इस विश्वास के साथ किया जाता है कि आत्मा को शांति मिल सके, लेकिन वास्तव में यह पर्यावरण के लिए एक खतरा है। एक रिपोर्ट के अनुसार, पूरे वर्ष भारत में लगभग 50 से 60 मिलियन पेड़ों को अंतिम संस्कार के लिए काटकर जला दिया जाता है। यह लकड़ी जलते समय, दस लाख टन कार्बन डाइ ऑक्साइड गैस का उत्सर्जन भी करती है जो पर्यावरण के लिए अच्छा नहीं है। अंतिम संस्कार की पारंपरिक विधि के दो मुख्य दोष वायु प्रदूषण और वनों की कटाई हैं। इसके अलावा, खुले मैदान में अंतिम संस्कार करने से बड़ी मात्रा में राख उत्पन्न होती हैं, जो बाद में नदियों और जलाशयों, विशेषकर गंगा नदी में प्रवाहित कर दी जाती है, जिससे जल प्रदूषित होता है। इस अंतिम संस्कार की वजह से पर्यावरणीय खतरा उत्पन्न होता है।

बिजली शवदाह

बिजली से अंतिम संस्कार की अवधारणा नई नहीं है। गंगा कार्य योजना के तहत इसे जनवरी 1989 में शुरू किया गया था। इसकी मूल अवधारणा यह थी कि अंतिम संस्कार नदी के वातावरण के अनुकूल होना चाहिए। पर्यावरण प्रदूषण से निपटने के लिए, देश के विभिन्न हिस्सों में, विशेषकर मेट्रो शहरों में बिजली शवदाह की स्थापना की जा रही है। पर्यावरणविदों द्वारा इसको बढ़ावा देने के लिए सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों को प्रोत्साहित किया जा रहा है। अंतिम संस्कार के लिए बिजली शवदाह का उपयोग समाज के कुछ वर्गों द्वारा किया जा रहा है।

बिजली शवदाह के लाभ

पारंपरिक अंतिम संस्कार के लिए लगभग 500-600 किलोग्राम जलाऊ लकड़ी, तीन लीटर केरोसीन और थोड़े देसी घी की आवश्यकता होती है और प्रति मृत शरीर के लिए लगभग 300 से 400 गाय के गोबर के ऊपलों की आवश्यकता होती है। इसमें कुल लागत लगभग 2,000 रूपये से 3,000 रूपये के बीच आती है। नश्वर अवशेष 24 घंटे बाद लिया जा सकता है।

दूसरी ओर, बिजली के अंतिम संस्कार अपेक्षाकृत सस्ते होते हैं। रिश्तेदार अंतिम संस्कार के कुछ घंटों के भीतर नश्वर अवशेष ले सकते हैं। बिजली से अंतिम संस्कार करने में, लकड़ियां नहीं जलायी जाती हैं और इससे किसी भी प्रकार की गैस का उत्सर्जन नहीं होता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह अंतिम संस्कार का अपरंपरागत तरीका है, लेकिन यह लकड़ी, केरोसीन आदि जैसे संसाधनों को बचाने में मदद करता है। बिजली शवदाह अंतिम संस्कार करने के लिए सबसे किफायती विकल्प है।

भारत में बिजली शवदाह की विफलता

हालांकि, भारत में बिजली से शवदाह ज्यादा लोकप्रिय नहीं हैं, क्योंकि हिन्दू अभी भी अपने पारंपरिक विश्वास से दूर नहीं होना चाहते हैं। रूढ़िवादी परिवारों का मानना है कि बिजली शवदाह, जो कि एक ढके हुए श्मशान के अन्तर्गत आता है, आत्मा को शरीर से मुक्त नहीं होने देता है और इस प्रकार व्यक्ति की आत्मा अन्य आत्माओं के साथ नहीं मिल पाएगी और संबंधित व्यक्ति का पुनर्जन्म नहीं होगा।

कई लोग यह भी मानते हैं कि “कपाल क्रिया” जो सबसे महत्वपूर्ण अनुष्ठान के रूप में जानी जाती है, जो जलते हुए शरीर की आत्मा को अपने नश्वर अवशेषों से मुक्त करने के लिए आवश्यक होती है इसमें एक लंबी बांस की छड़ी का उपयोग करके खोपड़ी को तोड़ा जाता है यह बिजली के द्वारा किए गए अंतिम संस्कार में संभव नहीं है। भारत में बिजली द्वारा अंतिम संस्कार न केवल धार्मिक कारणों से बल्कि तकनीकी रूप से और रखरखाव में वित्तीय कमी के कारण भी विफल हो गए हैं।

“ग्रीन अंतिम संस्कार प्रणाली” की अवधारणा

यह भी एक अवधारणा है जिसे भारत में विकसित किया जा रहा है लेकिन यह भी बिजली संस्कार की तरह बहुत लोकप्रिय नहीं है। यह अंतिम संस्कार का एक वैकल्पिक तरीका है जिसमें हिंदू अपने सभी पारंपरिक संस्कारों का पालन कर सकते हैं। यह सस्ती ऊर्जा कुशल, कम जल और कम वायु प्रदूषण उत्पन्न करती है, साथ ही हिंदुओं की सभी धार्मिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखती है। ग्रीन अंतिम संस्कार प्रणाली, आदमी के आकार का धातु का सांचा, एक चिमनी के नीचे स्थित होता है, जिसमें लकड़ियों को धातु के आधार पर रखा जाता है। चिमनी का उपयोग बेहतर हवा परिसंचरण को सक्षम करता है और उष्मा का क्षय कम करता है। पारंपरिक अंतिम संस्कार में इस्तेमाल होने वाली लकड़ियों (500-600 किग्रा) की तुलना में इसमें लकड़ियों की (लगभग 150-200 किलोग्राम) मात्रा का उपयोग होता है ताकि सिर्फ शरीर को जलाया जा सके। इसके अलावा, पारंपरिक संस्कार में 6 से 8 घंटे की तुलना में इस क्रिया में पूरे अंतिम संस्कार में लगभग 2 घंटे लगते हैं। जबकि उत्सर्जन 60% तक कम हो जाता है, लागत भी काफी कम लगती है। ग्रीन अंतिम संस्कार प्रणाली 1992 में दिल्ली में एनजीओ द्वारा विकसित की गई थी लेकिन यह अभी तक लोकप्रिय नहीं हो पायी है।

निष्कर्ष

बिजली से अंतिम संस्कार का मतलब है कि पेड़, पानी और पर्यावरण जैसे मूल्यवान संसाधनों को बचाया जा सके। अब यह सही समय है कि भारतीयों को बिजली से अंतिम संस्कार या ग्रीन अंतिम संस्कार प्रणाली से जुड़ कर मिथकों से छुटकारा पाना चाहिए। यह एक मिथक भी है कि बिजली से अंतिम संस्कार एक पारम्परिक अंतिम संस्कार नहीं हो सकता।