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पेरिस समझौते पर ट्रम्प की आलोचना में भारत की जीत

June 5, 2017


cliexit-hindiराष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौते को वापस लेकर कई देशों के साथ अमेरिका को भी निराश किया है, जबकि भारत इस मुद्दे को लेकर अडिग है। इस मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ठीक ही कहा है कि यदि अमेरिका पेरिस समझौते को वापस लेने पर सदमे में है या नहीं, लेकिन भारत जलवायु की रक्षा और संरक्षण करने के लिए वचनबद्ध है। प्रधानमंत्री ने रूस में सेंट पीटर्सबर्ग अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक मंच (एसपीआईईएफ) को संबोधित करते हुए कहा, “पेरिस हो या पेरिस न हो, भविष्य की पीढ़ियों के लिए जलवायु को सुरक्षित रखने की हमारी प्रतिबद्धता है”

निस्संदेह अमेरिका द्वारा जलवायु परिवर्तन पर लिया गया फैसला मूर्खतापूर्ण गलत वक्तव्य है, भारत ने हमेशा से उत्सर्जन के मोर्चे पर अपनी उपस्थिति को समाने लाने के लिए कठिन प्रयास किया है। इसने 22,000 मेगा वॉट स्थापित करने के लक्ष्य के साथ 2010 में राष्ट्रीय सौर मिशन का अनावरण किया। 2015 के आरम्भ में, नई दिल्ली ने 2022 तक 100,000 मेगावाट सौर ऊर्जा, 60,000 मेगावाट वायु, 10,000 मेगावाट छोटे जल विद्युत और 5,000 मेगावाट बायोमास स्थापना की घोषणा की थी। 2030 तक गैर जीवाश्म ईंधन के द्वारा बिजली का उत्पादन 40 प्रतिशत के आसपास होने की संभावना है। यह महत्वाकांक्षी लक्ष्य है, जो भारत एक दशक से भी कम समय में प्राप्त करना चाहता है, जर्मनी और दूसरे देशों को यह लक्ष्य प्राप्त करने में दो दशक से अधिक समय लगा।

इसके बावजूद, जलवायु परिवर्तन पर भारत की भूमिका को दुनिया के द्वारा स्वीकार नहीं किया गया। बल्कि, डोनाल्ड ट्रम्प ने भारत और चीन पर पेरिस समझौते के द्वारा अनुचित लाभ लेने का आरोप लगाया है। ट्रम्प ने कहा है कि “भारत विकसित देशों से विदेशी सहायता में अरबों और अरबों डॉलर प्राप्त करने में अपनी सहभागिता चाहता है।” यह कठोर टिप्पणी एक अमेरिकी नेता द्वारा की गई थी जिसकी टिप्पणी ने जलवायु परिवर्तन से संबंधित चिंताओं को संबोधित करने के लिए भारत के योगदान को ही बेकार साबित कर दिया। भारत दुनिया का चौथा सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जन होने के बावजूद, विशेषज्ञों के मुताबिक 15 वर्षों में 2005 का स्तर कार्बन उत्सर्जन की तीव्रता को 33 से 35 प्रतिशत तक कम करने की योजना पर काम कर रहा है । सरकारी आंकड़ों के अनुसार, उन्नत बाजार प्रतिबद्धताओं के एक अभिनव कार्यक्रम के माध्यम से 238 मिलियन एलईडी बल्ब वितरित किए गए हैं। फिर डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर स्कीम के तहत, पूरे देश में एलपीजी सिलेंडर 176.3 मिलियन परिवारों को वितरित किए गए हैं।

यदि अमेरिका पेरिस समझौते से निकल जाए तो क्या होगा?

2015 में, पेरिस जलवायु समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए अमेरिका और भारत के साथ 190 से अधिक देश शामिल हुए थे। जिसका उद्देश्य वैश्विक तापमान को दो डिग्री सेल्सियस से नीचे रखकर जलवायु परिवर्तन के खतरे को वैश्विक स्तर पर मजबूत करना है। विशेषज्ञों का कहना है कि यदि अमेरिका जलवायु परिवर्तन समझौते से बाहर निकल जाता है, तो इस निर्णय से वैश्विक तापमान 0.3 सेल्सियस बढ़ सकता है। लेकिन यूरोपीय संघ के सदस्य यह विश्वास करते हैं कि अमेरिका राज्यों के राज्यपालों और व्यापार जगत के नेताओं में चीजों का प्रबंधन होगा। कैलिफोर्निया और न्यूयॉर्क जैसे राज्यों के पास बिजली संयंत्रों और वाहनों से उत्सर्जन में कमी करना उनके स्वयं के कार्यक्रम हैं। अमेरिका की कई निजी कंपनियाँ स्वच्छ ऊर्जा की ओर कदम बढ़ा रही हैं फिर भी अमेरिका ग्लोबल वार्मिंग को कम करने में प्रयासरत है। वर्ष 2015 में, बराक ओबामा के शासनकाल में अमेरिका ने पेरिस समझौते के तहत 2025 तक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को 2005 स्तर के मुकाबले में 26 से 28 प्रतिशत कम करने का वादा किया था। लेकिन अब ट्रम्प ने यह स्पष्ट कर दिया है कि वह पेरिस समझौते के तहत अमेरिका पहले की प्रतिबद्धता का पालन नहीं करेगा।

पेरिस समझौता क्या है?

पेरिस समझौते के बारे में सबसे अच्छा यह है कि महाशक्तियों से लेकर अमीर शहर-राज्यों तक चपेट में आए निम्नस्थ द्वीप राष्ट्र सभी जलवायु परिवर्तन पर वैश्विक स्तर पर समन्वय करने के लिए सहमत हैं। समझौते के अनुसार, सम्पूर्ण दल जलवायु परिवर्तन के लिए पूर्व-औद्योगिक स्तर से ऊपर दो डिग्री सेल्सियस से नीचे तापमान बनाए रखना है। वे पूर्व-औद्योगिक स्तर से ऊपर 1.5 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि को सीमित करने का प्रयास करेंगे। समझौते में कार्बन डाइऑक्साइड और अन्य ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में विश्वसनीय कटौती की आवश्यकता है। यह सदस्य देशों से शून्य से भी कम उत्सर्जन करने के लिए कहता है। उत्सर्जन में कटौती के लिए पाँच साल की समीक्षा है। यह सब विकसित देशों में, कार्बन उत्सर्जन का प्रमुख योगदान, जीवाश्म ईंधन ऊर्जा से नवीनीकरण ऊर्जा स्रोतों में तेजी से स्थानांतरित करने के लिए प्रेरित करना था। यह विकासशील राष्ट्र प्रदान करने वाले विकसित राष्ट्रों को भी शामिल करता है, नई तकनीक की खरीद के लिये 2020 तक प्रति वर्ष 100 बिलियन अमरीकी डॉलर और 2020 के बाद अधिक अमरीकी डॉलर का खर्च लगेगें।

निष्कर्ष

पेरिस समझौता दुनिया को जीवाश्म ईंधन ऊर्जा से छुटकारा पाने के लिए एक असान रूपरेखा तैयार करता है। यहाँ तक कि जब अमेरिका ने समझौते से पीछे हटने की धमकी दी है, फिर भी भारत जैसे देश भावी पीढ़ियों के खातिर मजबूत उत्सर्जन में कटौती करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। वास्तव में, प्रधानमंत्री मोदी के अनुसार, भारत पर्यावरण के संरक्षण के लिए हजारों वर्षों से काम कर रहा है। प्रधानमंत्री ने कहा, “पिछले 5000 वर्षों से, यहाँ तक कि जब मैं पैदा नहीं हुआ था, तब भी भारत में पर्यावरण की रक्षा करने की परंपरा रही है”। इसलिए, समझौते से वापसी से भारत पर एक छोटा सा असर पड़ेगा, जो नई तकनीक और गैर प्रदूषणकारी ऊर्जा स्रोतों के माध्यम से पर्यावरण का चेहरा बदलने के लिए उत्सुक है।