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जलियांवाला बाग नरसंहार: भारत के इतिहास की एक नीच घटना

June 20, 2017


Jallianwala-Bagh-Massacre-hindi1919 में अमृतसर में नरसंहार – इतिहास में जलियांवाला बाग ज्यादातर नरसंहार के रूप में जाना जाता है। यह भारत के इतिहास में सबसे खौफनाक घटनाओं में से एक है। जैसा कि इतिहास से पता चलता है कि मौत की घटनाओं का अमानवीय सिलसिला जनरल रेजिनाल्ड डायर के कारण शुरू हुआ था। यह घटना 13 अप्रैल रविवार के दिन हुई थी जब पूरा पंजाब बैसाखी का जश्न मना रहा था। बैसाखी एक त्योहार है जो कि 1699 में सिखों के दसवें गुरु, गुरु गोबिंद सिंह द्वारा खालसा पंथ की स्थापना करने के उपलक्ष में मनाया जाता है। फिर भी इस विशेष अवसर पर एक ब्रिटिश अधिकारी के आदेश के कारण न केवल पंजाब में बल्कि पूरे देश में- दमनकारी विचारधारा की प्रक्रिया के कारण जीवन अस्त-व्यस्त हो गया था।

जनसंहार के पैमाने का पता उस वजह से लगाया जा सकता है कि रबींद्रनाथ टैगोर किस हद तक विचलित हुए होगें कि उन्होंने नाराज होकर औपनिवेशिक स्वामी के प्रस्ताव से इनकार कर दिया। विन्स्टन चर्चिल ने इसकी आलोचना भी की थी।

संयोगवश उस दिन एक राजनीतिक बैठक थी, जिसे शहर के हरमंदिर साहिब, स्वर्ण मंदिर के परिसर में आयोजित किया जा रहा था। इस दिन के महत्व को ध्यान में रखते हुए पंजाबियों ने इसे बहुत उत्साह के साथ मनाया और कई धार्मिक और सामुदायिक मेलों का आयोजन किया गया। इसलिए यह एक सही अवसर था, उस दिन कई लोग मारे गए और कई अपंग हुए, क्योंकि बहुत लोगों को नहीं पता था कि यहाँ एक राजनीतिक सभा चल रही है। वास्तव में, सिखों के अलावा बहुत से हिंदू और मुसलमान भी उस सभा में उपस्थित थे।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

गोरखा बटालियन सहायकों की सैन्य दल की डायरी के अनुसार 9 अप्रैल को शेरवुड नामक ब्रिटिश स्कूल के एक शिक्षक पर हमला इन हत्याओं का मुख्य कारण था। हालांकि, यह सिर्फ एक सुनी-सुनाई बात थी। वास्तविकता में पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकल ओ ड्वायर और जनरल डायर ये दोनों पंजाब के पड़ोस जालंधर में दल की अगुवाई कर रहे थे, इनको डर था कि राज्य में 1857 फिर से शुरू न हो जाए और वे किसी भी तरह से लोगों को रोकना चाहते थे। यह पूरा नरसंहार उसी योजना का एक हिस्सा था।

उस दिन क्या हुआ?

उस दिन जनरल डायर के नेतृत्व में ब्रिटिश भारतीय सेना के 90 सैनिक जलियांवाले बाग में आयोजित एक समारोह में आए थे। उनमें से 25 सैनिक बलूचिस्तान से थे, जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है और बाकी गोरखा सैनिक थे। ये 90 सैनिक बंदूकों के साथ समारोह में आए थे।

डायर घुड़सवार भारी मशीनगनों के साथ-साथ कुछ बख़्तरबंद कार के साथ आया था, लेकिन चूंकि बाग का प्रवेश द्वार संकीर्ण था इसलिए उन्हें उन कारों को बाहर ही रोकना पड़ा था। डायर ने बाद में अपने आप ही बताया था कि अगर वह उन कारों को फाटकों के अंदर ले जाते तो जनहानि भारी तादात में हो सकती थी। सभा की बैठक निर्धारित समय 4:30 बजे शुरू हुई थी और डायर उस स्थान पर एक घंटे के बाद पहुँचा था।

डायर ने पहले अपनी राइफलों को एक ऊँची समतल भूमि पर लगवाया और फिर उसने सैनिकों को घुटने टेकने और फायर करने का आदेश दिया था। वे सैनिक वहाँ एकत्रित लोगों पर एक तरफ से फायर कर रहे थे। सभा में पुरुषों के अलावा महिलायें और बच्चें भी शामिल थे। जनरल डायर ने फायर करने से पहले वहाँ एकत्रित लोगों को कोई चेतावनी भी नहीं दी थी।

यह ज्ञात है कि बाग में इतने सारे लोग थे कि सैनिकों को राइफलों को कई बार पुनः भरना पड़ता था, क्योंकि सैनिकों को वहाँ एकत्रित लोगों को बेरहमी से गोली मारने का आदेश दिया गया था। ऐसा कहा जाता है कि सैनिकों द्वारा 1,650 बार फायर की गई थी! विचार किया जाता है कि जब बाग की सभा में सभी लोग निहत्थे थे, तभी जनरल के खड़े सैनिकों ने निडर उदासीनता से मानव जीवन को नरसंहार में परिलक्षित कर एक चेतना पर हमला किया था।

जीवन हानि और घायल

ब्रिटिश शासन के अनुमान के अनुसार, नरसंहार के अंत में 379 व्यक्तियों ने अपना जीवन खो दिया था। हजारों से अधिक लोग विभिन्न क्षेत्रों में घायल हो गये थे। उस समय के एक सिविल सर्जन डॉ विलियम डीमेडी के अनुसार, मरे और घायल लोगों की संख्या लगभग 1,526 थी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अनुमान के हिसाब से 1,500 की जनहानि हुई, जिनमें से करीब 1100 लोगों ने अपने प्राण गँवाए।

उस दिन इतने सारे लोग क्यों मरे?

बाग हर तरफ से इमारतों और घरों द्वारा घिरा हुआ था। बाग में कुछ संकीर्ण प्रवेश द्वार थे लेकिन इनमें से ज्यादातर को स्थायी रूप से बंद कर दिया गया था। सैनिकों द्वारा मुख्य प्रवेश द्वार पहले ही बंद कर दिया गया था। डायर ने बाग में एकत्रित लोगों को कोई चेतावनी भी नहीं दी थी कि वह उन्हें गोली मारने जा रहा है। जिसके कारण वे लोग न तो किसी तरफ भाग सकते थे और न ही दया की माँग कर सकते थे।

डायर ने अपने सैनिकों को सभा में जिस हिस्सें में अधिक लोग थे, उसी तरफ गोली चलाने का आदेश दिया था। हालांकि, इतनी मौतों की वजह केवल एकमात्र गोलीबारी ही नहीं थी, वहाँ होने वाली भगदड़ के कारण कई लोगों ने अपना जीवन खो दिया था। बहुत से लोग जान बचाने के प्रयास में बाग में स्थित कुँए में भी कूद गए थे। उस बाग में स्थित कुँए से 120 मृत शरीर बरामद किए गए थे। औपनिवेशिक सरकार ने उसी रात में विचार-विमर्श करने के बाद कर्फ्यू लगा दिया था, जिसका परिणाम यह हुआ कि बहुत सारे घायल लोग उस दिन वहाँ से नहीं जा सके। जिसके कारण अधिक लोगों की मृत्यु हुई थी।

परिणाम

इस घटना के तीन महीने बाद, औपनिवेशिक सरकार ने जुलाई 1919 में नरसंहार की जाँच के लिए एक समिति की स्थापना की थी और लोगों को आगे आने के लिए आमंत्रित किया और उन मौतों या घायलों का व्याख्यान करने लिए कहा, जो उस दुर्भाग्यपूर्ण दिन के दौरान हुई थीं। ये गणनाएं उस दोषपूर्ण विधि के आधार पर ही जारी की गई थी। कोई भी यहाँ कल्पना कर सकता है कि बहुत से लोग उस घटना को बताने के लिए आगे आने को तैयार नहीं हुए होंगे, क्योंकि बाद में उन लोगों को ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रताड़ित किया जाएगा। वास्तव में, कुछ सदस्यों ने स्वीकार किया था कि यह आँकड़ा सरकार के आँकड़ों से अधिक हो सकता है।

ऐसी परिस्थितियों में हमेशा की तरह, ब्रिटिश सरकार ने अपनी पूरी कोशिश की कि हत्याओं की खबर चारों ओर न फैल पाए। हालांकि, यह सूचना राष्ट्रीय स्तर पर फैल गई थी और वहाँ पर इसके प्रति कड़ी प्रतिक्रिया की गई थी। ब्रिटेन के लोगों को इस घटना की जानकारी दिसंबर 1919 में हुई थी।

अपने वरिष्ठों के साथ बैठक में डायर ने निहत्थे लोगों के बारे में कहा कि वह एक क्रांतिकारी सेना थी और आधिकारिक तौर पर इस कार्य को करने के लिए ओड्वायर से स्वीकृति भी ली थी। नरसंहार के बाद उन्होंने अमृतसर में फौजी कानून लगा दिया था और जिसकी स्वीकृति तत्कालीन वायसराय लॉर्ड चेम्सफोर्ड ने दी थी।

भारत के राज्य सचिव एडविन मोंटेगू, जिन्होंने हंटर आयोग का नेतृत्व किया, जिसका गठन 1919 में इस घटना को देखने के लिए बाद में किया गया था। डायर कमीशन के समक्ष पेश हुए, लेकिन उसे अपने गलत कार्यों का तनिक भी पछतावा नहीं था। चूंकि डायर के वरिष्ठ अधिकारियों ने उसके कार्यों का समर्थन किया था, इसलिए आयोग भी अनुशासनात्मक या दंडात्मक कार्यवाही नहीं कर सकता था। बाद में डायर को ड्यूटी के प्रति गलत धारणा का दोषी पाया गया और जिसके कारण डायर को अपने पद को छोड़ना पड़ा था।

बाद में 31 जुलाई 1940 को उधम सिंह ने लंदन के कैक्सटन हॉल में ओड्वायर को मार दिया था, जिसने पूरी घटना को एक अनाथ के रूप में अपनी आँखों से देखा था।