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बिहार महाभारतः जनमत सर्वेक्षणों का दावा नीतीश सबसे पसंदीदा मुख्यमंत्री

September 11, 2015


  नीतीश सबसे पसंदीदा मुख्यमंत्री

सभी निगाहें बिहार पर आकर जम गई हैं। राजनीतिक दलों और विश्लेषकों ने चुनावी नतीजों की तमाम संभावनाओं पर गुणाभाग करना शुरू कर दिया है। चुनावों के दौरान अलगअलग एजेंसियों की ओर से कई चुनावपूर्व सर्वेक्षण होंगे। इसकी शुरुआत हो चुकी है। बिहार चुनावों के लिए आईटीजीसिसरो के चुनाव पूर्व सर्वेक्षण के आंकड़े जारी हो गए हैं। इसमें आंकड़े और निष्कर्ष जारी किए हैं।

यह कहना बहुत जरूरी है कि चुनावपूर्व सर्वेक्षणों को अंतिम सत्य मानकर नहीं चला जा सकता। एजेंसीदरएजेंसी यह बदलते रहते हैं। हालांकि, आइये देखते हैं इस सर्वेक्षण के कुछ रोचक निष्कर्ष

नीतीश कुमार मुख्यमंत्री पद के लिए लोगों की पहली पसंद

सर्वे से पता चला है कि जेडी(यू) के नीतीश कुमार अगले मुख्यमंत्री के तौर पर पहली पसंद है। 29% लोग उन्हें मुख्यमंत्री के तौर पर देखना चाहते हैं। उनके मुकाबले बीजेपी के संभावित उम्मीदवार सुशील मोदी सिर्फ 19% लोगों का दिल जीत पाए हैं। लालू प्रसाद भले ही चुनाव नहीं लड़ रहे हैं, वे 12% वोट जुटाने में जरूर कामयाब रहे। राम विलास पासवान को 7% लोग मुख्यमंत्री के तौर पर देख रहे हैं।

किस गठबंधन की जीत के आसार ज्यादा है?

यह तथ्य रोचक है कि ज्यादातर लोग नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाना चाहते हैं, लेकिन जब बात सरकार की आती है तो वे बीजेपी गठबंधन का नेतृत्व चाहते हैं। सर्वेक्षण के मुताबिक, बीजेपी गठबंधन को 125 सीटें (सामान्य बहुमत के लिए जादुई आंकड़ा 122 सीटों का है) मिलने की उम्मीद है। वहीं जेडी(यू) गठबंधन 106 सीटें जीत सकता है। बाकी 12 सीटें अन्य के खाते में जाएंगी।

ऐसा लगता है कि बीजेपी की दलित और महादलित वोटबैंक हासिल करने की रणनीति कुछ हद तक कामयाब होती दिख रही है। बीजेपी ने बड़ी चतुराई से अपनों से ही घायल होकर बैठे जीतन मांझी को साथ लाने में कामयाबी हासिल की है। इससे पलड़ा बीजेपी खेमे के पक्ष में झुकता दिख रहा है।

विकास के आधार पर ही होगा निर्णय

जब यह पूछा गया कि नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली जेडी(यू)+बीजेपी सरकार की उपलब्धि क्या है, तो 40% ने कहा– “सड़कों का निर्माण”। इसके बाद “महिला सशक्तिकरण” को 9% और “बेहतर शैक्षणिक सुविधाएं” को 8% वोट मिले हैं।

लालू प्रसाद के शासन में कानूनव्यवस्था या उसकी कमी, एक बड़ा मुद्दा था। लेकिन नीतीश कुमार सरकार पर भरोसा करने वाले 7% लोगों का कहना है कि अपराध में कमी लाना इस सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि है। वहीं 6% कहते हैं कि सुशासन बड़ी उपलब्धि रही। लेकिन सुशासन तो नीतीश की सबसे मजबूत ताकत होनी चाहिए थी। ऐसे में यह आश्चर्यजनक तथ्य है कि सिर्फ 6% लोगों ने सुशासन का श्रेय नीतीश कुमार को दिया।

नीतीश कुमार की लोकप्रियता कम होने के मुख्य कारण क्या है?

सर्वेक्षण के मुताबिक, 23% लोगों का कहना है कि इसका मुख्य कारण रोजगार बढ़ने की धीमी रफ्तार है। यह आश्चर्यजनक है। नीतीश कुमार ने कई विकास कार्य शुरू किए हैं। इनकी वजह से रोजगार के अवसर बढ़े हैं। लेकिन सर्वे इशारा कर रहा है कि लोगों की नजरों में यह काफी नहीं है।

लालू प्रसाद के शासन में, ‘भ्रष्टाचार’ को रोकना असंभव प्रतीत होता था और इसके विपरीत नीतीश कुमार की सरकार ने भ्रष्टाचार से लड़ने में अपनी पूरी ताकत लगाई है। इसके बाद भी यह निष्कर्ष रोचक है कि 21% लोग कहते हैं कि भ्रष्टाचार को पूरी तरह से हटाने में नाकामी, नीतीश कुमार के घटते जनाधार की मुख्य वजह है।

लालू प्रसाद के शासन में जातिआधारित राजनीति अपने चरम पर थी। जब नीतीश कुमार ने शासन की बागड़ोर अपने हाथ में ली, यह उम्मीद की जा रही थी कि वे जातिगत राजनीति से अलग हटकर विकास को बढ़ावा देंगे। उन्होंने इस दिशा में काफी कुछ किया भी है। इसके बाद भी 9 प्रतिशत को लगता है कि नीतीश कुमार सरकार की नाकामी की एक बड़ी वजह जातिवाद को बढ़ावा देना है। वहीं, 8 प्रतिशत को लगता है कि नीतीश कुमार ने किसानों की चिंताओं की अनदेखी की। इस वजह से उनकी लोकप्रियता घटी है।

किस सरकार ने बेहतर काम किया?

यह प्रश्न बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि नीतीश कुमार ने दो अलगअलग और विरोधी सहयोगी गठबंधनों वाली सरकारों का नेतृत्व किया है। इस वजह से, अलगअलग सरकारों में उनके नेतृत्व को लेकर लोगों की राय मायने रखती हैं। सर्वे से पता चलता है कि 40% को लगता है कि जेडी(यू)+बीजेपी गठबंधन ने मौजूदा सरकार से बेहतर काम किया। उसे 33% समर्थन मिला है। वहीं 27% ने अपनी राय “कह नहीं सकते” के तौर पर दी है। यह बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि मौजूदा चुनावों में लोग यह तुलना करेंगे। मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे तो उनके जेहन में रहने वाली बातों में इस सवाल का जवाब महत्वपूर्ण स्थान पर होगा। हकीकत तो यह है कि गिरता जनाधार इस बात का संकेत है कि नीतीश मुख्यमंत्री पद के सबसे पसंदीदा उम्मीदवार भले ही रहे, उनके मौजूदा गठबंधन को पसंद नहीं किया जा रहा है।

नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी के बीच व्यक्तिगत तुलना

इससे कई लोगों को आश्चर्य होगा। जब पूछा गया कि दोनों में से ज्यादा अहंकारी कौन हैं, तो 36% ने कहा नीतीश कुमार, जबकि 30% ने कहा नरेंद्र मोदी। कोई भी इस क्रम पर आश्चर्य कर सकता है, लेकिन सर्वेक्षण तो होते ही ऐसे हैं। जिसकी आपने उम्मीद भी न की हो, उसी को नतीजे के तौर पर सामने आना आश्चर्य में डालने को काफी है।

दोनों खेमों के समर्थन में अलगअलग जातियां किस तरह खड़ी हैं?

बिहार में, जाति हमेशा से राजनीति का अहम अंग रही है। इस वजह से जातिगत आधार या समर्थन किसी भी पार्टी या गठबंधन के बनने या बिगड़ने में महत्वपूर्ण साबित होता है। सर्वेक्षण ने जातिगत आधार पर मतदाताओं को टटोला और यह जानने की कोशिश की कि वह किस गठबंधन के साथ हैं और उनका मौजूदा रुख किस तरह नतीजे में सामने आएगा।

उम्मीदों के मुताबिक, 70% ब्राह्मणों ने बीजेपी खेमे को समर्थन दिया। वहीं 18% ने जेडी(यू) गठबंधन को। 70% ठाकुर+राजपूत समुदाय ने बीजेपी खेमे को समर्थन दिया। वहीं 16% जेडी(यू) गठबंधन के साथ ही खड़े दिख रहे हैं। इसी तरह के ट्रेंड्स में, 52% अन्य ऊंची जातियों ने बीजेपी को समर्थन दिया, जबकि 35% ने जेडी(यू) खेमे को।

राज्य में यादव/अहीर जाति सबसे ज्यादा प्रभावी और बड़ी है। 62% ने जेडी(यू) खेमे को जबकि 37% ने बीजेपी को समर्थन देने का इशारा किया है। कुर्मी/कोयरी समुदाय में 42% लोग जेडी(यू) के साथ हैं, जबकि 34% अब भी बीजेपी खेमे में दिख रहे हैं।

बिहार में मुस्लिम आबादी 16% है। इनमें भी 67% ने जेडी(यू) गठबंधन को, जबकि 15% ने भाजपा नेतृत्व वाले गठबंधन को समर्थन दिया है। यह भी उम्मीदों के अनुरूप ही है। पिछले कई वर्षों से मुस्लिम जेडी(यू) के साथ खड़े दिखाई दिए हैं।

43% अन्य ओबीसी ने भाजपा गठबंधन, जबकि 34% ने जेडी(यू) को समर्थन दिया है। 49% महादलितों ने भाजपा गठबंधन को समर्थन दिया है, जबकि 33% जेडी(यू) के साथ हैं। 54% अन्य दलितों ने बीजेपी खेमे के साथ जाने का मन बनाया है। वहीं 29% ने जेडी(यू) को समर्थन दिया है।

ऊपर दिया जाति आधारित समर्थन महत्वपूर्ण है, लेकिन मतदान के वक्त बदल सकता है। वैसे भी इसमें महिलाओं की राय शामिल नहीं है, जिसे जानना आसान नहीं रहेगा। वहीं दूसरी ओर, अकेले चुनाव लड़ने का मन बना चुके मुलायम सिंह यादव निश्चित तौर पर यादव वोटों को काटेंगे। यह सभी प्रभाव अंतिम समीकरणों पर क्या असर डालते हैं, यह देखऩा होगा। जैसा कि पहले कहा गया है, यह महज एक चुनावपूर्व सर्वेक्षण है। अन्य सर्वेक्षण भी आएंगे, जो हो सकता है कि विपरीत नतीजे सामने लाए।