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सहारनपुर संघर्ष – योगी सरकार के लिए एक धब्बा

May 29, 2017


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प्रशासन का बुरा व्यवहार एक जातीय हिंसा को कैसे जन्म दे सकता है, सहारनपुर इसका एक प्रत्यक्ष उदाहरण है। जिले में उच्च जाति के ठाकुर और दलित जाति के लोगों के मध्य हुए इस संघर्ष में तीन लोगों ने अपनी जिंदगी खो दी और कई अन्य घायल हुए। छोटे मुद्दों के लेकर उनके मध्य संघर्ष शुरू हुआ। महाराणा प्रताप की जयंती पर, ठाकुर समुदाय के लोगों ने जोरदार और कर्कश संगीत वाला एक जुलूस निकाला। दलित समुदाय के सदस्यों ने इस पर आपत्ति जताई क्योंकि जुलूस उनके अस्थायी झोपड़ियों और कच्चे घरों के मध्य से गुजर रहा था। इसके बाद, उनके बीच तर्क शुरू हो गया और जल्द ही यह हिंसक हो गया, जिसमें अठारह वर्षीय एक लड़का पहला शिकार बन गया। ऐसी उम्मीद की जा रही थी कि जिला प्रशासन किसी भी हद तक इसे जातिगत दंगा बनने से रोकेगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और जिले में कानून और व्यवस्था में गड़बड़ी बानी रही। इस घटना के केन्द्र शब्बीरपुर गाँव में, उच्च जाति की एक भीड़ ने  दलितों के 54 घरों में आग लगा दी, जिससे तनाव और बढ़ गया। जिले के इस अदम्य हिंसक वातावरण में, एक और मौत हो गयी तथा दो अन्य घायल हो गये।

लेकिन फिर, दंगाइयों को रोकने के बजाय नागरिक प्रशासन ने क्षेत्र को उच्च सुरक्षा के घेरे में ले लिया और अपराधियों के खिलाफ कार्यवाही करने के मामले में कुछ भी नहीं किया, जिसके परिणामस्वरूप संघर्ष में और अधिक लोगों की जान गयी। इस जातीय हिंसा में 12 पुलिसकर्मी घायल हुए और कई पुलिस वाहनों को आग के हवाले कर दिया गया। योगी आदित्यनाथ के तहत नवगठित भाजपा की अगुवाई वाली सरकार के लिए, इस घटना ने उत्तर प्रदेश को एक ऐसा जटिल समाज बना दिया है जहाँ कोई असंगत मुद्दे को उछलने और खूनी संघर्ष में तब्दील होने में ज्यादा समय नहीं लगता है। उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि अखिलेश यादव सरकार के तहत 200 से ज्यादा दंगे हुए, राज्य में बिगड़ी कानून व्यवस्था विधानसभा चुनावों में उनकी हार का मुख्य कारण बनी थी।

क्या सहारनपुर घटना योगी सरकार की छवि को प्रभावित करती है?

दरअसल, सहारनपुर की जातीय हिंसा ने योगी सरकार की छवि को गंदा कर दिया है। राज्य में कानून व्यवस्था को संभालने के वादे पर सत्ता में आने के बाद, इस जाति आधारित संघर्ष ने लोगों को काफी सदमा दिया है। इन सब की पृष्ठभूमि में यह तथ्य भी सामने आया है कि राज्य के मुख्यमंत्री के साथ गृह विभाग इन पर अपनी नजर रखे हुए था और सब कुछ देख रहा था। उन्होंने सहारनपुर जिले के शब्बीरपुर गाँव में दंगाइयों के खिलाफ की गई निष्क्रियता के लिए वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक एस सी दुबे और अन्य को हटा दिया है, लेकिन नुकसान तो हुआ ही है। इससे समाज में लोगों के मिलजुल कर रहने वाली भावना को काफी नुकसान हुआ है। इस घटना ने राज्य की नयी सरकार और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को बड़ा राजनीतिक नुकसान पहुँचाया है। पंद्रह वर्षों के अंतराल के बाद, भाजपा और इसके गठबंधन सहयोगी राज्य में सरकार बना पाये क्योंकि लोगों ने प्रधानमंत्री मोदी के लिए वोट दिया था। सुशासन प्रदान करने के लिए असहनीय प्रतिबद्धता वाले एक कोई बकवास नहीं बर्दाश्त करने  वाले नेता के रूप में उनकी छवि के कारण ही भाजपा और इसके गठबंधन सहयोगियों को बहुमत से अधिक वोट मिले। भाजपा ने उत्तर प्रदेश में  विधानसभा की 403 सीटों में से 326 सीटों पर अपनी जीत दर्ज की थी। सहारनपुर में इस जाति आधारित दंगे ने उनकी इस छवि को तोड़ दिया है।

क्या ठाकुर बनाम दलित संघर्ष बीएसपी के लिये लाभकारी है?

चूँकि नजदीकी भविष्य में कोई चुनाव नहीं है, इस घटना को बहुजन समाज पार्टी या उसकी सुप्रिमों, मायावती द्वारा आसानी से मुद्दा नहीं बनाया जा सकता है। हालांकि ठाकुर और दलित के बीच संघर्ष के बाद उन्होंने शब्बीरपुर गांव का दौरा किया, लेकिन उनकी पार्टी को इससे कितना फायदा होगा, अनुमान के दायरे में हैं। राज्य में अगला विधानसभा चुनाव 2022 में होगा और संसदीय चुनाव 2019 में होने की संभावना है। इस प्रकार, वह दलित राजनीति कार्ड के जरिये अपनी चुनावी फसल तैयार करेंगी। फिर भी, मायावती के राजनीतिक कौशल को सत्तारूढ़ शासन के खिलाफ तालिका में बदलाव लाने के लिए अस्वीकार नहीं किया जा सकता। मायावती को उनकी हिम्मत के लिये जाना जाता है। राज्य में दलित नेतृत्व के शीर्ष पर खुद को रखने के लिए, वह इस घटना का इस्तेमाल कर सकती हैं। और दूसरों को दलित और भाजपा के बीच एक द्विगुणित अभियान चलाने के लिए इस्तेमाल कर सकती है, भगवा पार्टी बुरी तरह से मायावती के चंगुल से निकलने की कोशिश कर रही है।

भाजपा जानती है कि पार्टी के लिए 2019 के संसदीय चुनाव जीतना बहुत महत्वपूर्ण है। केंद्र में मोदी की सत्ता दोबारा लाने के लिए भगवा पार्टी को दलितों को अपने पक्ष में लाना होगा। 2014 के संसदीय चुनावों और उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में जाटव ने, जो एक दलित समुदाय हैं उत्तर प्रदेश की भूतपूर्व मुख्यमंत्री और बसपा सुप्रीमों मायावती बसपा के लिए भारी मतदान किया है। हालांकि, भगवा पार्टी गैर-जाटव वोटों पर जीत हासिल करने में सफल रही है। बसपा संसदीय चुनावों में एक भी सीट हासिल न कर सकी, लेकिन उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में 19 सीटों पर जीत हासिल की, राज्य में सत्तारूढ़ पार्टी बनने के लिये बसपा के सपने को एक बहुत बड़ा झटका लगा। दलित-आधारित पार्टी जो एक राष्ट्रीय पार्टी थी अब उस पार्टी की राजनीति केवल राज्य तक ही सीमित रह गई है। हालांकि, शब्बीरपुर गाँव की घटना से बसपा और उसकी सुप्रीमो को राजनीतिक प्रासंगिकता में बने रहने का मौका मिल गया है , लेकिन  तत्काल में कोई राजनीतिक लाभ लेने के लिये चुनाव नहीं है।

निष्कर्ष

उत्तर प्रदेश शासन निश्चित रूप से जातीय हिंसा की ज्वाला को रोकने में देरी के लिए ज़िम्मेदार है। कुछ चीजें नियंत्रण से बाहर निकलने से पहले, योगी सरकार को इस स्थिति से निपटना चाहिए और दंगे प्रभावित क्षेत्र में न्याय को निष्पक्ष तरीके से पेश करना चाहिए।

 

 

 

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