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मुंबई की 17 वर्षीय लड़की चली एमआईटी

September 12, 2016


मुंबई की 17 वर्षीय लड़की चली एमआईटी

मुंबई की 17 वर्षीय लड़की चली एमआईटी

मालविका राज जोशी के पास 10वीं या 12वीं पास का पारंपरिक प्रमाण पत्र नहीं हैं। लेकिन यह उन्हें दुनिया के प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थानों में से एक मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एमआईटी) में दाखिले से नहीं रोक सका।

कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग में उनकी दक्षता ही थी, जिसकी बदौलत वह इस ऊंचाई तक जा पहुंची। शिक्षा में अंकों से ज्यादा प्रतिभा की जरूरत है, जो एक बार फिर मालविका की सफलता से साबित हो गया। यह

इस बात का उल्लेख करना यहां जरूरी है कि उनकी इस सफलता में दो-तीन प्रमुख घटकों का प्रमुख योगदान रहा- उनका आत्मविश्वास और उनकी मां की इच्छाशक्ति। जो पारंपरिक सोच के दायरे को तोड़कर ऐसा कुछ करना चाहती थी जो इस देश में नया था।
एमआईटी से स्कॉलरशिप

मुंबई की इस किशोरी ने प्रोग्रामिंग ओलिम्पियाड, जिसे पूर्व में इंटरनेशनल ओलिम्पियाड ऑफ इंफर्मेटिक्स कहा जाता था, में दो रजत और एक कांस्य पदक जीता। इन विलक्षण सफलताओं की वजह से ही, एमआईटी ने उन्हें स्कॉलरशिप देने का फैसला किया। इतना ही नहीं इस सफलता के आधार पर उन्हें प्रतिष्ठित संस्थान में बैचलर ऑफ साइंस प्रोग्राम में एडमिशन मिला।
मालविका को यह अवसर एमआईटी की पॉलिसी की वजह से मिला। जिसमें स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि अलग-अलग विषय के ओलिम्पियाड, जैसे- मैथमेटिक्स, कम्प्यूटर, फिजिक्स, और अन्य… में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वालों को सीधे प्रवेश दिया जाएगा। मालविका अब सितंबर 2016 से ही कम्प्यूटर साइंस में रिसर्च को आगे बढ़ा सकेगी। यह उनका पसंदीदा विषय भी है।

शुरुआती दिनः

मालविका ने चार साल पहले स्कूल छोड़ दिया था। उस समय वह 7वीं कक्षा में थी। उस समय उन्होंने कई विषयों को आजमाया। पसंद आया प्रोग्रामिंग। तब उन्होंने पूरा मन प्रोग्रामिंग पढ़ने में ही लगा दिया। धीरे-धीरे उनकी रुचि बढ़ती चली गई और अन्य विषयों के बजाय प्रोग्रामिंग में ही उनका ज्यादा वक्त बीतता गया।

जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है, उनकी मां सुप्रिया राज जोशी ने उन्हें स्कूल जाने से रोकने का एक साहसिक फैसला लिया। उस समय, मालविका दादर पारसी यूथ असेंबली स्कूल की कक्षा सात की छात्रा के तौर पर काफी अच्छा प्रदर्शन कर रही थीं। हालांकि, उनकी मां को लगा कि उनके बच्चों – मालविका और उसकी छोटी बहन राधा- को खुश रहने की जरूरत है।

उन्होंने भारतीय स्कूलों में पारंपरिक तरीके से दी जाने वाली शिक्षा के मुकाबले बच्चों की खुशी को प्राथमिकता दी। उस समय वह एक एनजीओ में कैंसर के मरीजों के लिए काम कर रही थी। उन्होंने कक्षा नौ और दस के कई बच्चों को कैंसर से जूझते देखा। उन्हें इस बात से गहरा आघात लगा। इसी वजह से उन्होंने बच्चों को स्कूल भेजना बंद कर दिया।

हालांकि, भारत जैसे देश में जहां ‘होम स्कूलिंग’ या ‘अनस्कूलिंग’ जैसी धारणा के बारे में ज्यादा लोगों को पता नहीं है, यह कदम इतना आसान नहीं था। उन्हें अपने पति राज को भी राजी करना पड़ा, जो एक इंजीनियर-कम-बिजनेसमैन हैं। सुप्रिया का आइडिया ऐसा था कि बच्चों को दसवीं या बारहवीं का प्रमाण पत्र नहीं मिलता। ऐसे में राज यह विचार स्वीकार नहीं कर पा रहे थे। सुप्रिया ने अपनी नौकरी छोड़ी। घर पर स्कूल जैसा माहौल बनाया। मालविका के लिए पाठ्यक्रम तय किया। उन्हें मालविका की योग्यता पर पूरा भरोसा था।

जल्द ही, उन्होंने पाया कि उनके बच्चों को इस प्रक्रिया में मजा आ रहा है। सीखने को लेकर उनकी ललक बढ़ गई है। इसके नतीजे अब हर एक के सामने हैं। लगातार तीन साल तक, मालविका चार श्रेष्ठ छात्रों में शामिल रहीं और उन्होंने प्रोग्रामिंग ओलिम्पियाड में देश का प्रतिनिधित्व किया। भले ही उन्होंने भारतीय शिक्षा पद्धति का अनुसरण करते हुए पढ़ाई न की, उनकी उपलब्धि अपने आप में विलक्षण है।
आईआईटी ने किया रिजेक्ट

कई ओलिम्पियाड में उपलब्धियों के बावजूद, मालविका को भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) और उसके जैसे अन्य संस्थानों में एडमिशन नहीं मिला। इन संस्थानों को भारतीय शिक्षा पद्धति के शीर्षस्थ संस्थानों में से एक समझा जाता है। नियम कहते हैं कि आईआईटी या अन्य संस्थानों में एडमिशन के लिए 12वीं पास का प्रमाण-पत्र होन जरूरी है। तभी किसी भी बच्चे को एडमिशन दिया जा सकता है।

मालविका को सिर्फ एक ही संस्थान ने एडमिशन दिया- चेन्नई मैथमेटिकल इंस्टीट्यूट (सीएमआई) ने। उन्हें यहां एमएससी कोर्स में एडमिशन दिया गया, क्योंकि उनका ज्ञान बीएससी लेवल से ज्यादा था।

इंडियन कम्प्यूटिंग ओलिम्पियाड के नेशनल को-ऑर्डिनेटर माधवन मुकुंद ने भी मालविका की योग्यता और प्रोग्रामिंग ओलिम्पियाड में उनकी सफलता को समर्थन दिया और एमआईटी में एडमिशन दिलाने में मदद की। मुकुंद भी एमआईटी से जुड़े हैं। उन्होंने तथा-कथित औपचारिक शिक्षा न होने के बावजूद छात्रा को एडमिशन देने के लिए एमआईटी के लचीलेपन की तारीफ भी की। उनका कहना है कि मालविका आगे चलकर और भी उपलब्धि हासिल कर सकती है।

सिस्टम का प्रोडक्ट नहीं है

अपनी जीवनी में, पाकिस्तान के महान ऑलराउंडर इमरान खान ने कहा है कि उनके देश में कई क्वालिटी क्रिकेटर पैदा हुए। यह सिस्टम की देन नहीं थी, बल्कि व्यक्तिगत प्रतिभाएं थी। जिन्होंने अपनी मेहनत के दम पर अपना नाम अंतरराष्ट्रीय जगत में चमकाया। मालविका पर भी यही सिद्धांत लागू होता है।

मुकुंद ने ओलिम्पियाड के लिए मालविका को तैयार करने में महत्वपूर्ण मदद की। उनके पास मालविका के बारे में कहने के लिए काफी सारी अच्छी बातें हैं। उन्होंने बताया कि मालविका किस तरह अलगोरिथम और गणित सीखने के लिए घंटों सीएमआई में बिताया करती थी। इसने उनकी सफलता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ज्ञान के प्रति उनकी उत्सुकता और प्रावीण्यता के दम पर उन्होंने इतनी सारी चीजें सीखी। उन्हें औपचारिक शिक्षा की तर्ज पर मैट्रिक तो नहीं की, लेकिन उतनी ही उम्र में उससे ज्यादा पढ़ ली थी।

राउंडिंग अप

सुप्रिया ने कहा कि जब लोग उनसे पूछते हैं कि मालविका ने एमआईटी में एडमिशन कैसे पाया तो वह उन्हें बताती हैं कि उसने कभी इसके लिए तैयारी नहीं की थी। वह सिर्फ इतना जानना चाहती थी कि उनके बच्चों को क्या अच्छा लगता है। जो भी अच्छा लगता है, उसे ही करें। यही बात थ्री इडियट्स फिल्म में भी थी। आंकड़ों की सफलता में आगे निकलने की होड़ के बजाय सीखने पर जोर देना चाहिए। यह बात मालविका की मां ने समझी और आजमाई भी।

भारत में समस्या यह है कि लोग जल्द से जल्द रईस होना चाहते हैं। कुछ ही फील्ड जानते हैं, जिसमें वह अपनी जिंदगी में रईस होने का लक्ष्य हासिल कर सकते हैं। विकसित देश (जैसे अमेरिका) और आंकड़ों में आगे देश (जैसे भारत) में शिक्षा पद्धति का सबसे बड़ा अंतर यह है कि विकसित देश क्षमता विकसित करने में भरोसा करते हैं, जबकि आंकड़ों वाले देशों में सिर्फ आंकड़ों की सफलता देखी जाती है।

यह नजरिया जिंदगी के हर क्षेत्र में दिखाई देता है। शिक्षा अपवाद नहीं है। भारत में शिक्षा प्रणाली में बदलाव जरूरी है। इसे मजेदार होना चाहिए, बोझिल या वजन नहीं। खासकर शुरुआती चरणों में। हो सकता है कि बच्चे को कुछ बातें सीखना अच्छा न लगे। ऐसी स्थिति में ऐसा प्रावधान होना चाहिए कि बच्चे अपने पसंदीदा विषय को पढ़ सके। मौजदा स्थिति में ज्ञान जबरदस्ती दिया जाता है। ऐसा होना नहीं चाहिए।

भारत के स्कूलों को समझना होगा कि यह इंटरनेट का युग है। बच्चों को जो भी सूचना चाहिए, वह गूगल से हासिल कर लेते हैं। उन्हें स्कूल में हर बात और कुछ भी सीखने की जरूरत नहीं है। प्रणाली में लचीलापन होना चाहिए, जो है नहीं।

उच्च शिक्षा की बात करें, खासकर मालविका के केस की तो, आईआईटी जैसे संस्थानों में एडमिशन के लिए विषयों के ज्ञान को महत्व दिया जाना चाहिए। उन्हें व्यवहारिक होना चाहिए। सिर्फ आंकड़ों में उलझे नहीं होना चाहिए। उन्हें ऐसे नियम हटाने चाहिए, जो मालविका जैसी प्रतिभाओं को एडमिशन से रोके।

उन्हें यह समझना होगा कि शिक्षा और सीखने की ललक प्रमाण पत्र हासिल करने से भी बड़ी और महत्वपूर्ण होती है। उसे मान्यता देने के अन्य तरीके विकसित किए जाने चाहिए। यदि उन्होंने इस प्रक्रिया में बदलाव नहीं किया तो और भी प्रतिभाशाली छात्र बाहर चले जाएंगे। भारत में उनके लिए कोई विकल्प ही नहीं होगा। हम हमेशा के लिए प्रतिभाओं का निर्यात ही करते रहेंगे।