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उड़ी हमला- भारत के पास मौजूद प्रभावी जवाबी विकल्प

November 4, 2016


उड़ी हमले के बाद, भारत में सभी तबकों के लोग गुस्से से उबल रहे हैं। इनमें सेना के लोग भी शामिल हैं। वे तत्काल सैन्य कार्रवाई चाहते हैं। एक ऐसी कार्रवाई जिससे पाकिस्तान को करारा जवाब मिले। इससे न केवल उसकी नाक टूट जाएगी, बल्कि यह उसे सीमापार आतंकवाद को बढ़ावा देने के लिए स्टेट या नॉन स्टेट एक्टर्स को मदद देने से भी रोकेगा।
समस्या यह है कि भारत की ओर से कोई भी सैन्य प्रतिक्रिया पाकिस्तान को भारत में कश्मीर घाटी के मुद्दे पर उसकी सोची-समझी और विकसित की हुई रणनीति से पीछे नहीं धकेल पाएगी।
पाकिस्तान को यह पता है कि उसकी सैन्य और आर्थिक क्षमताएं सीमित हैं। वह भारत से लंबे समय तक पूर्ण युद्ध नहीं लड़ सकता। राष्ट्रपति जिया-उल-हक के जमाने में वह उसका खामिजाया भुगत चुका है। इसका फल वह देख चुका है। पाकिस्तान ने उस समय अफगानिस्तान में अमेरिकी सहयोग से रूस के खिलाफ लड़ाई में भाग लिया था।
उसके बाद ही पाकिस्तान ने अफगानिस्तान से लेकर जम्मू-कश्मीर तक मिले सबक को आधार बनाया और रणनीति बदली। वह उग्रवाद और नागरिक विरोध को उकसाता है। पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर से ऐसे विरोध को भड़काता है। इसमें पूरे पाकिस्तान में बने हुए मदरसा भी उसकी मदद करते हैं। वह धार्मिक आधार पर भावनाओं को भड़काना चाहता है।
उसकी यह रणनीति नई नहीं हैं। कई दशकों से वह इसे आजमा रहा है। कश्मीर घाटी में तो कई साल से वह उग्रवाद को बढ़ावा दे रहा है। पाकिस्तान के नजरिये से इसका नतीजा भी उसके पक्ष में रहा है। इस वजह से ऐसा कोई कारण नहीं है कि वह इस आजमाई हुई सफल रणनीति को त्याग देगा।
तो भारत जवाबी कार्रवाई कैसे कर सकता है? भारत को पीछे हटकर, शांति के साथ रणनीतिक रूप से कुछ न कुछ तय करना होगा। भारत के सामने कई प्रभावी जवाबी विकल्प मौजूद है, जो इन क्षेत्रों में आते हैं:  
मिलिट्री या सैन्य उपाय
कूटनीतिक या डिप्लोमेटिक उपाय
आर्थिक या इकोनॉमिक उपाय

सैन्य उपाय 
यह स्पष्ट हो जाना चाहिए। पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल राहील शरीफ का कहना है कि कश्मीर में उनकी जान बसती है। वह उनकी जीवनरेखा है। ऐसे में भारत को यदि पाकिस्तान को घुटने पर लाना है तो उसे जबरदस्ती पीओके को वापस लेते हुए उसकी जान को उससे छिनना होगा। इस पर भारत का दावा भी बनता है। 26 अक्टूबर 1947 को कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने भारत सरकार से जो संधि की थी, उसके तहत पीओके भी भारत का हिस्सा है।  
भारत के पास सैन्य क्षमता भी है और संसाधन भी। वह आसानी से सैन्य ताकत का इस्तेमाल कर पाकिस्तान को घुटने पर ला सकता है। लेकिन ऐसा होगा नहीं। यदि ऐसा किया तो पाकिस्तान से युद्ध छिड़ जाएगा। उस स्थिति में भारत ने जम्मू-कश्मीर के मुद्दे पर पिछले कुछ बरसों में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो लाभ हासिल किया है वह बेकार हो जाएगा। इतना ही नहीं कश्मीर के मुद्दे पर यूएन में पाकिस्तान की ताकत बढ़ जाएगी। वह पीड़ित होने की बात कहकर यूएन की दौड़ लगाएगा।
लेकिन यह भी सच है कि सीमापार के आतंकवाद को कुचलने के लिए पीओके पर कब्जा करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। लेकिन अंतरराष्ट्रीय समुदाय में हमें अपने रणनीतिक फायदों को गंवाना होगा। ऐसे में फिलहाल के लिए सैन्य इस्तेमाल के विकल्प को भूलना होगा।
रणनीतिक
हमारे प्रधान मंत्री अति-सक्रिय हैं। अपने बढ़ते आर्थिक प्रभाव के दम पर भारत ने पिछले कुछ बरसों में अपनी रणनीतिक स्थिति भी मजबूत की है। कश्मीर पर, विश्व समुदाय कम-ज्यादा होकर भारत की यथास्थिति बनाए रखने के पक्ष में है। हमें यूएन में जाकर पाकिस्तान पर सीधे-सीधे चढ़ाई करनी होगी और यह साबित करना होगा कि वह कश्मीर में सरकार के खिलाफ उग्रवाद को बढ़ावा दे रहा है। इसके बाद पाकिस्तान पर आर्थिक प्रतिबंध लादे जा सकते हैं। अमेरिका के साथ भी ऐसा ही है। पाकिस्तान भले ही स्वीकार न करें लेकिन अमेरिका के व्यापक हित अब भी पाकिस्तान से जुड़े हुए हैं।
इसी साल इस्लामाबाद में 9 और 10 नवंबर को सार्क सम्मेलन होने वाला है। भारत के पास उससे पहले दो विकल्प है। एक तो वह भारत से सुर से सुर मिला रहे बांग्लादेश और अफगानिस्तान जैसे देशों को साथ लेकर नेपाल, श्रीलंका और भूटान को भी अपने पक्ष में करें। ताकि सार्क सम्मेलन में सभी देश मिलकर पाकिस्तान की आलोचना करें और उसे अपनी धरती से उग्रवाद को बढ़ावा देने से रोकने को मजबूर करें। यह पाकिस्तान के लिए कूटनीतिक रूप से शर्मनाक होगा और ऐसे में मालदीव जैसे देश को भी तय करना होगा कि उसे पाकिस्तान के साथ अलग-थलग होना है या बाकियों के साथ मिलकर उसकी आलोचना करना है।
अन्य विकल्प बांग्लादेश, अफगानिस्तान के साथ ही भूटान, श्रीलंका और नेपाल को साथ आने के लिए मनाने की है। ताकि वे सब मिलकर सार्क का बहिष्कार करें। यदि अन्य देश साथ नहीं आते तो भारत ऐसा कर सकता है। वह खुद-ब-खुद सम्मेलन का बहिष्कार कर सकता है। वह दक्षिण एशियाई देशों के साथ-साथ उसके बाहर जाकर देशों के साथ व्यक्तिगत आपसी रिश्ते सुधार सकता है। द्विपक्षीय करार कर सकता है। भारत के बिना, सम्मेलन नाकाम हो जाएगा और इससे दक्षिण एशिया में पाकिस्तान कूटनीतिक रूप से अलग-थलग हो जाएगा।
हालांकि, पहले वाला विकल्प ज्यादा बेहतर था। भारत को सार्क सम्मेलन में भाग लेकर पाकिस्तान की धरती पर ही उसे घेरना चाहिए। ताकि उसे शर्मिंदा किया जा सके।
आर्थिक
सैन्य कार्रवाई से सीमित लाभ मिलेंगे और कूटनीतिक जवाब देने से पाकिस्तान पर असर दिखने में वक्त लगेगा। तत्काल कुछ नहीं होगा। आर्थिक मोर्चे पर यदि भारत पाकिस्तान को तोड़ने में कामयाब रहा तो उसे घुटने पर लाने में ज्यादा परेशानी नहीं होगी। भारत को इस मुद्दे पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।  

पाकिस्तान के खिलाफ भारत के पास सबसे प्रभावी और बड़ा हथियार है पानी। 1960 में भारत ने पाकिस्तान के साथ इंडस वाटर ट्रीटी (आईडब्ल्यूटी) की थी। विश्व बैंक भी इसमें साझेदार था। इसमें भारत पर यह जिम्मेदारी डाली गई थी कि रावी, ब्यास और सतलज जैसी पूर्वी नदियों का इस्तेमाल भारत करेगा, जबकि पाकिस्तान को झेलम, इंडस और चेनाब जैसी पश्चिमी नदियों पर नियंत्रण मिलेगा।
1965 और 1971 में दो पूर्ण युद्ध और 1999 में करगिल का सीमित युद्ध लड़ने के बाद भी इस संधि का भारत ने उल्लंघन नहीं किया। दोनों देश इस संधि का सम्मान करते आए हैं।
लेकिन अब भारत को यह संधि तोड़ देना चाहिए। किसी भी संधि के लिए दोनों पक्षों का प्रतिबद्ध और समर्पित होना जरूरी है। यदि एक भी पक्ष संधि के नियमों का उल्लंघन करता है तो संधि टूट जाती है। अमेरिका समेत कई देशों ने इस तरह की संधियां तोड़ी है। यदि भारत ने तोड़ी तो यह पहला उदाहरण नहीं होगा।
भारत इंडस, झेलम और चेनाब नदियों का रुख भारत की ओर मोड़ सकता है। यदि ऐसा हुआ तो पाकिस्तान के लिए अन्न की पैदावार करने वाले पंजाब में भुखमरी हो जाएगी। यदि कुछ दिन के लिए भी पानी रोका गया तो लोग सरकार और सैन्य ताकत के खिलाफ बगावत कर देंगे।
कावेरी नदी जल विवाद को लेकर कर्नाटक में भड़की हिंसा किसी से छिपी नहीं है। ऐसे में यदि चेनाब, झेलम और इंडस नदी का पानी नहीं मिला तो पाकिस्तान में क्या होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है।
पानी एक संवेदनशील मुद्दा है। भविष्य में निश्चित तौर पर पानी पर ही युद्ध होंगे। अब भारत के पास यह दिखाने का अच्छा वक्त है कि वह अच्छा पड़ोसी चाहता है। आतंकवाद को बढ़ावा देने वाले पड़ोसी को वह बर्दाश्त नहीं करेगा।  
यदि वह फिर भी कश्मीर का सपना देखना चाहता है तो उसे पहले जीवित रहना होगा। भारत को एक भी गोली नहीं दागनी होगी। यह एक ऐसी ताकत है जिसके दम पर हम पाकिस्तान को घुटनों पर ला सकते हैं।  
जल संधि तोड़ने से पाकिस्तान को खुद होकर बातचीत की टेबल पर आना होगा। वह भी भारत की शर्तों पर अपनी कमजोरी दिखाते हुए। जैसे 1972 में शिमला के दौरान था। पाकिस्तान सरकार के पास लोगों के घरेलू दबाव में संधि के सिवा कोई चारा नहीं होगा।
यह भारत के पास अच्छा वक्त है, जिससे वह पाकिस्तान को परमाणु हथियार कम करने की दिशा में आगे बढ़ने को मजबूर कर सकता है।  
राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाने की जरूरत
अच्छे पड़ोसी की भूमिका खूब हुई। अब भारत को दिखाना होगा कि हमारे हिस्से में जो भी मौत हुई है फिर चाहे वह किसी सैनिक की हो या आम आदमी की, उसे गंभीरता से लिया जाएगा।
दोनों ही देशों के पास परमाणु विकल्प है। आखिर रूस और चीन में भी तो इसी तरह की प्रतिस्पर्धा रही है। पाकिस्तान पर किसी भी आर्थिक प्रतिबंध के मुकाबले जल संधि तोड़ना सबसे अच्छा विकल्प होगा। वैसे भी चीन इस समय पाकिस्तान का सबसे बड़ा हिमायती बना हुआ है। आर्थिक प्रतिबंध लगाने के असर को वह खत्म कर देगा। आखिर चीन का तो ट्रैक रिकॉर्ड ही तानाशाही को बढ़ावा देने का रहा है। जैसे उत्तर कोरिया में उसने किया। अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों और अलथ-थलग कर दिए जाने के बाद भी आज वह जीवित बना हुआ है।
अब पाकिस्तान का पानी बंद करने का वक्त आ गया है।