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क्या 52 दिन बाद कर्फ्यू हटाना कश्मीरियों के लिए अच्छा है?

September 7, 2016


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क्या 52 दिन बाद कर्फ्यू हटाना कश्मीरियों के लिए अच्छा है?

क्या 52 दिन बाद कर्फ्यू हटाना कश्मीरियों के लिए अच्छा है?

सोमवार, 29 अगस्त को कश्मीर घाटी से अब तक का सबसे लंबा चला 52 दिन का कर्फ्यू आंशिक तौर पर हटा लिया गया। दक्षिण कश्मीर के संवेदनशील शहर पम्पोर और श्रीनगर के कुछ हिस्सों को छोड़कर तकरीबन पूरी घाटी में ही कर्फ्यू खत्म हो गया। हालांकि, सीआरपीसी की धारा 144 के तहत 10 से ज्यादा लोगों के एक जगह पर जुटने पर प्रतिबंध कायम है।
कर्फ्यू हटाने से नागरिकों को मिली राहत की अवधि लंबी नहीं रही। श्रीनगर, बांदीपुरा, अनंतनाग, बड़गाम और शोपियां जिलों के कुछ हिस्सों में हिंसा फिर भड़क उठी।

दुर्भाग्य से, प्रदर्शनकारी फिर सड़कों पर लौट आए। सुरक्षा बलों पर पत्थर फेंकने लगे। सुरक्षा बलों ने भी जवाबी कार्रवाई में अश्रुगैस के गोले छोड़े। कुछ लोग जरूरी खाने-पीने का सामान, सब्जियां और अन्य जरूरत की वस्तुएं खरीदने घर से बाहर निकले थे, लेकिन उन्हें ज्यादातर दुकानें और कारोबार बंद ही मिले।

सोमवार को वाहनों की हलचल भी सीमित ही रही। पेट्रोल पम्प बंद ही रहे, जिससे वाहनों की गतिविधियों के कम रहने के कारणको आसानी से समझा जा सकता है। बैंक और शैक्षणिक संस्थानों में भी ताले ही डले रहे।

हालात सामान्य करने का अवसर या हिंसा की वापसी?

8 जुलाई को राज्य में सक्रिय आतंकी संगठन हिजबुल मुजाहिद्दीन के स्वयंभू कमांडर बुरहान वानी की एनकाउंटर में मौत के बाद हिंसा भड़की थी।
इस जवाबी हिंसा में अब तक 70 लोगों की मौत हो चुकी है। 1,000 से ज्यादा घायल हैं। सुरक्षा बलों और पुलिस के खिलाफ अबाधित तौर पर पथराव और हिंसक प्रदर्शन लगातार हो ही रहे हैं।
ऐसी उम्मीद की जा रही थी कि कर्फ्यू में ब्रेक आने पर स्थानीय लोग इसे एक मौके के तौर पर लेंगे और हिंसा का चक्र तोड़कर घाटी सामान्य हालात की ओर लौटेगी। लेकिन एक दिन पहले जिस तरह से पथराव हुआ, उसकी वजह से प्रभावित इलाकों में फिर कर्फ्यू लगाना पड़ा।

तो लोग शांति के अवसरों का फायदा क्यों नहीं उठा रहे?

निजी बातचीत में सभी आयु वर्गों के कई प्रदर्शनकारियों ने कहा कि उन्हें लगता है कि व्यापक स्वायत्तता की उनकी मांग को अब ठंडा नहीं होना चाहिए। इस वजह से सभी आयु वर्गों के बच्चे भी पथराव में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं।

केंद्र सरकार बार-बार यही बात दोहरा रही है कि राज्य की आबादी का सिर्फ 5 प्रतिशत ही सड़कों पर प्रदर्शन कर रही है। यह एक आंशिक सच है। आंदोलन को जनसमर्थन मिला हुआ है। भले ही सभी लोग सड़कों पर न उतरे हो, घाटी के ज्यादातर लोग इस आंदोलन के समर्थन में है। यही समर्थन युवाओं को बड़ी संख्या में कश्मीर की सड़कों पर उतरने को मजबूर कर रहा है।
इसका खामियाजा स्थानीय लोगों को भुगतना पड़ रहा है। कारोबारी गतिविधियां थम-सी गई हैं। सभी कारोबारों को जुलाई में लगाए गए इस कर्फ्यू की वजह से भारी-भरकम नुकसान उठाना पड़ा है। राज्य प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रोजगार के लिए मोटे तौर पर पर्यटन पर निर्भर है। घरेलू और अंतरराष्ट्रीय पर्यटक आ नहीं रहे, इससे पर्यटन क्षेत्र का आर्थिक संतुलन ही पूरी तरह गड़बड़ा गया है।

इस परिदृश्य में सोमवार की हिंसा उन सभी वार्ताकारों के लिए निराशाजनक है, जो मौजूदा संकट का कोई व्यवहारिक समाधान निकालने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं।
राजनीतिक व्यवस्था पर लोगों का भरोसा नहीं है। समस्या यह है कि वह सभी संबंधित पक्षों को संकट के एक सर्वसम्मत हल तक पहुंचने की उम्मीद नहीं दे पा रहे। पिछले कुछ बरसों में समाधान तलाशने की कई कोशिशें हुई, लेकिन हर बार शांति स्थापित हो जाती थी। नई दिल्ली को वह प्रस्ताव राजनीतिक तौर पर जोखिम-भरा लगता था और इस वजह से वहां से कोई समाधान नहीं आता था।

2008 और 2010 में, प्रदर्शन इसी तरह के थे। दलीलें और उन पर जवाबी तर्क भी ऐसे ही थे। एक-दूसरे को काटते और दृढ़। हर बार केंद्र सरकार सर्वसम्मत हल निकालने की उम्मीद जगाकर शांति स्थापित कर लेती है। केंद्र और राज्य सरकारों में कट्टरपंथी सोच ने किसी हल तक पहुंचने से रोके रखा है।

प्रदर्शनकारियों पर भी यही बात लागू होती है। हर बार जब लोग केंद्र के साथ गंभीर बातचीत के लिए आगे आते हैं। सर्वसम्मत हल निकालने की कोशिश की जाती है, तब उनमें मौजूद कट्टरपंथी तत्व उठ खड़े होते हैं और समाधानकारी हल पर आगे बढ़ने से रोक देते हैं।

पाकिस्तान फेक्टर

जम्मू-कश्मीर में आंदोलन भड़काने में पाकिस्तान का भी हाथ है। लेकिन सारा दोष पड़ोसी देश के माथे मढ़ने से भी हालात सुधारने का रास्ता नहीं मिलेगा।

भले ही भारत सरकार ने कई अंतरराष्ट्रीय फोरम पर जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद को बढ़ावा देने में पाकिस्तान की आर्थिक और सामरिक मदद का मुद्दा उठाया है, लेकिन वह अंतरराष्ट्रीय बिरादरी को पाकिस्तान के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए मनाने में नाकाम रहा है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान का विरोध सिर्फ बयानबाजी तक ही सीमित है।

अमेरिका के हित भी अफगानिस्तान में अपने एजेंडे तक सीमित हैं। वह पाकिस्तान जैसे अशांत क्षेत्र के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने में हिचकिचा रहा है। इससे पाकिस्तान के मंसूबे बढ़ रहे हैं। वह मुखर होकर कश्मीर घाटी में चल रहे आंदोलन को समर्थन दे रहा है।

क्या केंद्र की मौजूदा राजनीतिक पहल से केंद्र नतीजे ला सकेगा?

केंद्र सरकार कश्मीर में जल्द से जल्द शांति बहाल करना चाहता है। इसके लिए केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह घाटी में सभी पक्षों से बातचीत करने जाने वाले हैं। इसके अलावा केंद्र सरकार राज्य के गवर्नर एनएन वोहरा को बदलने की तैयारी में है। यह इस बात का संकेत है कि केंद्र सरकार राज्य पर वैकल्पिक रास्ता तलाश रहा है।

पीओके के शरणार्थियों को राज्य में बसने के लिए केंद्र सरकार ने 2000 करोड़ रुपए का विशेष पैकेज घोषित किया है।

हुर्रियत चाहता है कि बातचीत में पाकिस्तान को भी शामिल किया जाए। वह लद्दाख, जम्मू क्षेत्रों के साथ ही गुज्जर व बकरवाल जैसी अन्य जनजातियों की अनदेखी करना चाहता है। यह लोग आंदोलन में शामिल है ही नहीं। वह घाटी में अल्पसंख्यकों के अलगाववादी रवैये का विरोध करता है।

ताजा दौर में, राजनाथ सिंह सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के साथ घाटी में अलग-अलग तबकों से मिलने वाले हैं। इस दौरान वे अलगाववादियों और आंदोलनकारियों से भी मुलाकात करेंगे। हालांकि, केंद्र ने यह साफ कर दिया है कि तार्किक बातचीत के लिए हिंसा बंद होनी चाहिए। अब किसी भी बातचीत में पाकिस्तान को तो शामिल नहीं किया जा सकता। खासकर इस तथ्य के बाद कि भारत की बयानबाजी के बाद पाकिस्तान में गिलगिट-बाल्टीस्तान और बलूचिस्तान में आंदोलन भड़क गए हैं।

जुलाई में जब से आंदोलन शुरू हुआ है, राज्य को आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा है। जब तक लोगों को आंदोलन के समाधानकारी नतीजे की उम्मीद नहीं होगी, तब तक वे पीछे नहीं हटने वाले। तब तक स्थायी और संतोषजनक समाधान मृग-मरीचिका ही रहेगा। हम उम्मीद करते हैं कि इस बार बातचीत का नतीजा आएगा, जो सभी पक्षों को स्वीकार्य होगा।

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