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गुजरात की पहली महिला मुख्यमंत्री ने अपने पद से क्यों इस्तीफा दिया ?

August 3, 2016


गुजरात की पहली महिला मुख्यमंत्री

गुजरात की पहली महिला मुख्यमंत्री


गुजरात
में पहली महिला मुख्यमंत्री के तौर पर आनंदीबेन पटेल को जिम्मेदारी सौंपने का प्रयोग ज्यादा वक्त नहीं चल सका। पटेल ने हाईकमान को अपना इस्तीफा सौंप दिया है। इसकी घोषणा उन्होंने अपने फेसबुक पेज पर की है। उन्होंने अपने इस्तीफे के बारे में कहा कि वह जल्द ही 75 वर्ष की होने वाली हैं और भाजपा में यह उम्र बड़ी जिम्मेदारी छोड़ने की है। लेकिन बात यहीं तक सीमित नहीं है।
लंबे वक्त तक भाजपा की कार्यकर्ता और राज्य में नरेंद्र मोदी की भरोसेमंद सहयोगी के तौर पर आनंदीबेन ने गुजरात में नरेंद्र मोदी के 12 साल के मुख्यमंत्री काल में किए गए विकास कार्यों की विरासत को आगे बढ़ाने के लिए हरसंभव कोशिश की।

अगले मुख्यमंत्री के तौर पर एक महिला को चुनना ही पार्टी के लिए राजनीतिक तौर पर एक जोखिम भरा कदम था। खासकर ऐसी महिला को चुनना, जिनकी राज्य की राजनीति में तुलनात्मक रूप से बहुत ज्यादा सक्रियता न रही हो। पार्टी ने गुजरात में 2001 के बाद पीछे मुड़कर नहीं देखा। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में दिन दुनी रात चौगुनी तरक्की की। उनके स्थान पर महिला को चुनना एक मास्टरस्ट्रोक भी साबित हो सकता था और राजनीतिक तौर पर नुकसान भी पहुंचा सकता था।

हकीकत तो यह है कि मुख्यमंत्री बनने के दो साल के भीतर उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। वह भी ऐसे मौके पर जब पार्टी उत्तर प्रदेश में अगले साल होने वाल चुनावों की तैयारी कर रही हो। इस्तीफे की टाइमिंग ठीक नहीं है। यह इस बात का संकेत है कि राज्य में भाजपा संकट में है।

पद छोड़ने की असली वजह

गुजरात में राजनीतिक ताकत और स्थिरता के लिए लंबा संघर्ष करने के बाद अक्टूबर 2001 में पार्टी ने नरेंद्र मोदी में कुशल नेतृत्व पाया था। मोदी ने मुख्यमंत्री पद संभालने के बाद न केवल पार्टी को नई तरह से एकजुट किया बल्कि राज्य को विकास के रास्ते पर तेजी से आगे लेकर गए।

मोदी ने राज्य में पार्टी की पकड़ को मजबूत किया। सभी समुदायों का विश्वास हासिल किया। इनमें न केवल प्रभावी पाटीदार समुदाय शामिल था, बल्कि तकरीबन सभी समुदाय शामिल थे। अब यह सभी समुदाय मोदी की गंभीरता और प्रशासनिक कुशलता की तारीफ करते नहीं थकते।

पाटीदार आंदोलन

आनंदीबेन को मुख्यमंत्री के तौर पर पिछले दो साल में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। आरक्षण को लेकर छिड़ा पटेल आंदोलन केंद्रबिंदु था। पार्टी ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जो राजनीतिक लाभ हासिल किया था, वह भी इस आंदोलन से थोड़ा खो दिया। एक पटेल होने के बाद भी आनंदीबेन इस पटेल आंदोलन पर नकेल नहीं कर सकी। एक युवा के तौर पर हार्दिक पटेल पाटीदार समुदाय के नए हीरो बनकर उभरे। उनके उभरने की एक वजह आनंदीबेन पटेल शासन की नाकामी भी रही।

हार्दिक पटेल के नेतृत्व वाले आंदोलन से निपटने में राज्य सरकार ने जिस तरह की रणनीति अपनाई, उससे पटेल समुदाय सरकार से और दूर होता चला गया। गुजरात में पटेल समुदाय भाजपा की ताकत हुआ करता था। लेकिन अब कहा जा रहा है कि समुदाय के समर्थन के बिना 2018 में राज्य में होने वाले राज्य के विधानसभा चुनावों में पार्टी का जनाधार बिखर जाएगा। यह सच भी हो सकता है।

दलित अलगाव

अब तक नरेंद्र मोदी और भाजपा को समर्थन दे रहे कई दलित समूह और अन्य पिछड़े समूह अब असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। लग रहा है कि सरकार ने उन्हें अलग-थलग कर दिया है। न सिर्फ राज्य में बल्कि पूरे देश में।

कई राज्यों में विभिन्न तरह के दक्षिणपंथी समूह गोवध के स्वयंभू रक्षक बनकर सामने आए हैं। यह समूह सतर्कता को नए स्तर पर ले गए हैं, जिन्हें अब तक छुआ भी नहीं गया था।

अब तक तो मुस्लिम समुदाय को गोवध के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता था। वह भी खासकर भैसों के वध के लिए। लेकिन पहली बार दलितों पर भी मृत पशुओं की खाल उतारने और बीफ को ट्रांसपोर्ट करने के लिए हमले हो रहे हैं।

दरअसल, दलित लंबे वक्त से आजीविका के लिए इस तरह की गतिविधियों को अंजाम दे रहे हैं। सही बात तो यह है कि कोई भी समुदाय मरे जानवरों को छूने तक को तैयार नहीं होता। इसके बाद भी अब खुद को गोरक्षक कहने वाले दक्षिणपंथी समूह उन्हें ही निशाना बना रहे हैं।

गुजरात में दलित युवकों के कपड़े उतारकर पीटने की हालिया घटना की व्यापक निंदा हुई। दलित समुदाय और कई पार्टियों के नेताओं ने इसकी कड़े शब्दों में भर्त्सना की।
गुजरात की कुल आबादी का 8.5 प्रतिशत हिस्सा दलित हैं। दलित और पटेल समुदाय किंगमेकर की भूमिका निबा सकते हैं। ऐसे में भाजपा को समर्थन दे रहे दो बड़े तबके अब उससे नाराज हैं। यह पार्टी के लिए एक बड़ी चुनौती है, जो उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही है। उसके बाद गुजरात का भी नंबर आएगा।

हकीकत तो यह है कि कांग्रेस ने गुजरात के ग्रामीण इलाकों में घुसपैठ कर ली है। दिसंबर 2015 के स्थानीय निकाय चुनावों के परिणामों ने इस बात को साबित भी किया है। यह पार्टी हाईकमान के लिए अच्छी खबर नहीं है। कई बड़े नेता गुजरात में हुई हालिया घटनाओं से निपटने में आनंदीबेन की नाकामी को इसका दोष दे रहे हैं। मुख्यमंत्री के तौर पर मोदी की पकड़ काफी मजबूत थी। लेकिन आनंदीबेन उनकी विरासत को आगे नहीं बढ़ा सकी। ऐसे में उनका इस्तीफा अपेक्षित था।

भाजपा के लिए संकट या अवसर

राज्य में भाजपा का अगला कदम क्या होगा। यह सवाल कई राजनीतिक विश्लेषक पूछ रहे हैं। राष्ट्रीय राजनीति में नरेंद्र मोदी और अमित शाह जैसे दो धुरंधर नेताओं के होने के बावजूद भी राज्य इकाई को मुख्यमंत्री पद के लिए स्वीकार्य विकल्प तलाशन में बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है।

राज्य की भाजपा इकाई में भी गुटबाजी शुरू से रही है, लेकिन मोदी के समय पर यह कभी भी खुलकर सामने नहीं आई। यह तत्व भी अब सिर उठा रहे हैं। सत्ता हथियाने के लिए जोर-आजमाइश हो रही है। अमित शाह के लिए लोकप्रिय और सर्वसम्मत उम्मीदवार को खोज पाना आसान नहीं होगा। खासकर ऐसा उम्मीदवार जो मोदी की राजनीतिक और प्रशासनिक दक्षता की विरासत को आगे बढ़ाएं।
आनंदीबेन के लिए यह काम बेहद मुश्किल रहा लेकिन क्या 2018 के चुनावों से पहले अगला मुख्यमंत्री सभी तबकों को न्याय दिला पाएगा? अमित शाह के लिए यह गुजरात में राजनीतिक संकट से निपटने के साथ-साथ प्रभावी पाटीदार समुदाय से संबंध दोबारा जोड़ने का अवसर भी हो सकता है।

उन्हें एक मजबूत और स्वीकार्य उम्मीदवार तलाशना होगा, जो दलित समुदाय में विश्वास और सुरक्षा की भावना को जगा सके। दलितों से दूर होने की राजनीतिक कीमत सिर्फ गुजरात तक सीमित नहीं होगी, इस वजह से अगले सीएम की प्राथमिकता दलितों और अन्य पिछड़े वर्गों का विश्वास जीतने की रहेगी।

बड़ा सवाल यह है कि अमित शाह के पास विकल्प क्या है? मोदी ने देश के सभी मुख्यमंत्रियों के लिए प्रदर्शन का स्तर ऊंचा कर रखा है। यह गुजरात के नए प्रतिनिधि के लिए प्रेरणा के साथ-साथ एक चुनौती भी होगी।